आंसुओ की एक एक बूंद का हिसाब चाहिए

#आराकोट आपदा #



|| आंसुओ की एक एक बूंद का हिसाब चाहिए|| 


उत्तरकाशी जिला आपदा का घर है, और सदियों से रहा है। लोग किसी ना किसी वर्ष यूं ही अपनो को खो देने के आदि हो गये है। किन्तु आपदा में बेमौत हुए लोगो को कुदरत ताउम्र जख्म दे देती रही है। आपदा में जख्मी लोगो की आंसुओ की एक एक बूंद सवाल करती है कि कुदरत का उन्होने आखिर क्या बिगाड़ा, जो हर वर्ष उन्ही के जख्मो को कुरेद देती है। आपदा से नासूर हो चुके उत्तरकाशी वालो के घाव पर सरकारी मरहम भी काम नहीं कर पा रहा है।


लोग चिल्ला रहे होते है। सुरक्षा की भीख मांग रहे होते हैं। अपनो को खो देने का गम उन्हे विवश कर रहा होता है कि उनकी मदद कोई फरिस्ता आकर करे। और ना जाने उनका दर्द उन्हे क्या क्या करने के लिए बाध्य करता है। पहले उनका परिवार खूब हंसता-खेलता होता है। आपदा के बाद उस दर्द पर सरकारी मरहम पट्टी घाव भरने का नही बल्कि घाव पर नमक जैसे छिड़कने वाला काम करती है।


उतरकाशी के मोरी ब्लाक में आराकोट, माकुड़ी, टिकोची, सनेल गांव, मोल्डी, चींवा आदि गांव में इस वक्त मातम छाया हुआ है। लोग अपनो को ढूंढते हुए कभी सरकारी कर्मचारियों के पास विनती करते है तो कभी अपने नजदिकीयों के पास अपनो को वापस पाने की गुजारिश करते है। वे बस बार बार यही कहते हैं कि उन्होंने तो कभी ऐसा नहीं सोचा था कि उनके अपने बिना कहकर कहीं दफा हो जायेगे। मलबे में दबे लोगो के अवशेष बार-बार यूं चिढा रहे हैं कि कुदरत ने ऐसा क्यों किया। यदि उन्हंे ऐसा प्रतीत होता तो वे कहीं दूर व ऊंचे पहाड़ो पर चले जाते, जहां कभी जलप्रलय ही नहीं आता।


आराकोट के सुदेश रावत कुछ कहने की हिम्मत तक नहीं कर पा रहा है। उन्ही के आंखो के सामने उनका 650 पेड़ो वाला सेब का बगीचा जल में समाता नजर आया। वे तो उक्त बाग से 15 टन सेब को मंण्डी पंहुचाना चाहते थे। यही उनकी आजीविका थी। इस तरह आराकोट क्षेत्र में लगभग सेब के 70 बाग प्राकृतिक आपदा की भेंट चढे है। शिक्षक मोहन लाल की नंम आंखे कुदरत के इस बेखौपनाक चेहरे पर कुछ कहने की हिम्मत तक नहीं कर पा रही है। उन्हे क्या मालूम था कि उनके ही सामने उनकी पत्नी जलप्रलय की ग्रास बन जायेगी। वे तो सिर्फ यूं कहकर गये थे कि वह नदी का जलस्तर देखकर आते है और तब तक वह नाश्ता तैयार कर दे। बस इतना ही था कि कुदरत ने उनके आवासीय मकान पर कहर बरपा दिया। देखते ही देखते क्षणिक समय में उनकी पत्नी और आवसीय भवन मलबे में मिल गया। वे यूं ही खाली हाथ मसोसते रह गये। अब ना उनकी आंसू बह रही है और ना ही वे कुछ कहने की हिम्मत जुटा पा रहे है। आंसुओं से भरी आंखे स्पष्ट कह रही है कि कुदरत ने उनके साथ ऐसा क्रूर व्यवहार क्यों किया। इसी तरह उतरकाशी से आराकोट पंहुची बस के चालक और परिचालक आपदा के दौरान बस में ही सो रहे थे, पर परिचालक को सुझा कि वे गाड़ी से बाहर निकलेंगे। वे बाहर निकल ही पाये कि उनकी बस भी मलबे में दफन हो गई।


राजेन्द्र, जालम, सोहनलाल, राधा दून मेडिकल कालेज देहरादून में मौत और जिन्दगी के बीच झूल रहे है। वे आपदा के मंुह से तो छूट गये मगर उनके सामने जो खौपनाक चेहरा प्रकृति का था, उससे उनकी रूहें कांप उठती है। वे सही ढंग से जबाव भी नहीं दे पा रहे है। बस उनकी आंखो से आंसुओ का समन्दर बहता हुआ इतना ही कह पा रहा हैं कि उनके घर में क्या हाल है। आपदा के नाम वे कांप उठते है। आराकोट में सेवानिवृत शिक्षक का कहना है कि जल का ऐसा सैलाब था कि लोग कुछ संभल पाते, तब तक सबकुछ दफन हो गया। कुछ देर तक तो पास में बह रही पाबर नदी भी झील में तब्दील हो गई। अंजली


आराकोट में आंगनबाड़ी केन्द्र चलाती है। वे रोती बिलखती हुई कहती है कि उनके आंगन में इतना भंयकर जल सैलाब आया कि वे घर के भीतर अपने दस माह के बच्चे को बचाने दौड़ पड़ी, तब तक जलप्रलय ने उनका घर अपने आगोश में ले लिया। वे कुछ कर पाती इतने में कुदरत के इस कहर ने उसके गोद से उसका लाडला छीन लिया, वे बेसुध हो गई थी। उसे मालूम नहीं कि उसे इस राहत कैम्प में किसने लाया। उसके आंसुओं की एक एक बूंद अपने लाडले की खोज कर रही है।


इस दर्दनाक आपदा ने कदापी भी लोगो को सोचने का वक्त नहीं दिया। लोग कुछ कर पाते कि आपदा उनके द्वार पंहुच गई। गांव के गांव मिट्टी में मिल गये, पानी और मिट्टी का इतना खतरनाक मंजर आराकोट क्षेत्र के लोगो ने कभी नहीं देखा। लोग अब भौचक्के हैं कि आखिर ऐसा हुआ क्यों? हालाकि उत्तरकाशी का पूरा क्षेत्र संवेदनशील है। मगर सवाल मथ रहे हैं कि इतना विकराल रूप प्रकृति का उन्होने कभी नहीं देखा। कुछ लोग कह रहे हैं कि पाबर, टौंस और रूपीन-सुपिन नदियों पर आधा दर्जन जलविद्युत परियोजनाऐ निर्माणाधीन है। इसी तरह पड़ोस के हिमांचल प्रदेश में भी इन नदियों के जलग्रहण क्षेत्र और जलागम क्षेत्र में भी जलविद्युत परियोजनाऐं निर्माणाधीन है। इस निर्माण में आधुनिक मशीने नहीं बल्कि सामान्य मशीने ही निर्माण कार्य करी ही है। निर्माण के दौरान कई बार इस क्षेत्र में धरती डोल जाती है। पर लोग यहां पशोपेश में है।


यहां कई बार राज्य और देश के ख्यातिलब्ध भू-वैज्ञानिक राज्य सरकार को अगाह कर चुके हैं कि इस पहाड़ पर भारी भरकम निर्माण के कामो पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए। साल 2013 की आपदा पर भी यही सवाल खड़े किये गये थे। मगर इन जैनून सवालो को जिम्मेदार सरकारे नजरअन्दाज करती रही है। 1978 के बाद जितने भी प्रकृतिक आपदायें उत्तरकाशी या राज्य के किसी भी भाग में आई हो उनका सीधा सबन्ध बहुविशाल निर्माण कार्यो से है। यहां बहुविशाल निर्माण कार्यो का तात्पर्य बड़ी-बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं से है। 


https://youtu.be/1MWsEBWOi9I


वैज्ञानिको का मानना है कि हिमालय में पिछले 10 वर्षो में जहां भी प्राकृतिक आपदा का कहर बरपा वहां वहां जलविद्युत परियोजनाऐं निर्माणाधीन है। मंदाकीनी और अलकनंदा नदी पर कमसे कम एक दर्जन जलविद्युत परियोजनाऐं निर्माणाधीन थी। सो 2013 की आपदा में नेस्तनाबूद हो गई। बताया गया कि इन परियोजनाओ में भारी भरकम ब्लास्ट इस्तेमाल किया गया, 90 सेंटीग्रंट व एकदम ढालदार पहाडियों पर सुरंग बनाई गई। पहाड़ से निकलने वाला मलवा सीधे नदियों और छोटी-छोटी नदियों में उड़ेल दिया जाता है। बगैरह, इन्ही जगहो पर केदारनाथ आपदा 2013 ने अपना रौद्ररूप दिखाया। जिसमे हजारो लोग हताहत हुए। यही हालात इस बार आराकोट क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा ने बनाये हैं।