जीएसटी और लोगो में जंग


|| जीएसटी और लोगो में जंग||


देश में अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है। मंदी का दौर यहां रोजगार छीन रहा है। लाखो लोग सड़क पर आ गये है। हमारे कर्णधार अभी भी कश्मीर राग अलाप रहे हैं। छोटे और मंझौले नौकरी-पेशा लोग बेरोजगारी की कगार पर है। उद्योगो का कारोबार कम होता जा है। विशेषकर वे उद्योग जिनसे आम लोगो का वास्ता होता है। इस मंदी के लिए जीएसटी को दोषी ठहराया जा रहा है। जीएसटी भुगतान करना कितना सही है कितना गलत है। यह तो मौजूदा चरमराई हुई देश की अर्थव्यवस्था ने बता दिया है।


ज्ञात हो कि 90 साल पुरानी बिस्कुट की पारले-जी कम्पनी ने लगभग 10 हजार कर्मचारियों को सामान्य फरमान सुना दिया कि वे भविष्य में किसी अन्य जगह नौकरी ढूंढ सकते हैं। सूत्रो के मुताबिक पारले जी ने यह फैसला जीएसटी के कारण लिया है। ऐसा फैसला पारले-जी ने नहीं बल्कि अन्य कारोबारी संस्थाओं ने भी लिया है। मंदी का सर्वाधिक असर कारपोरेट सेक्टर पर पड़ा है। इस सेक्टर में में काम करने वाले लाखो लोग बेरोजगारी की कगार पर आ चुके है। मंदी की मार वर्तमान में मीडिया संस्थाओ पर भी साफ-साफ दिख रहा है। मीडिया संस्थाओ में काम करने वाले 50 फीसदी लोग सड़क पर आ गये है। देश के भीतर पनप रहा मंदी का घुन बढता ही जा रहा है। इस संकट पर किसी भी जिम्मेदार प्रतिनिधि का ध्यान नहीं जा रहा है। फकत गाल बजाने के सिवाय यानि आरोप-प्रत्यारोप के बहस में समय बर्बाद हो रहा है।


उदाहरण स्वरूप उतराखण्ड मे संस्कृति विभाग में अनुबन्धित कलाकरो को एक प्रस्तुति का प्रति कलाकार 400 रू॰ मानदेय मिलता है। जिसमे से जीएसटी का भुगतान भी अमुक कलाकार को करना होता है। देश के सभी महानगरो, नगर निगमो, पालिकाओं व अन्य छोटे तथा बड़े शहरो में खोमचे, ठेली चलाने वाले एकाएक अपने कारोबार को छोड़ रहे है। वे भी जीएसटी के भुगतान से परेशान हैं। कुलमिलाकर जीएसटी के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर मंदी की मार पड़ चुकी है। मगर हमारे कर्णधार देश को मंदी से उबारने पर कोई ध्यान नहीं दे रहे है। बल्कि उन्हे तो पूर्व के राजनितकि प्रतिद्वन्दो का हिसाब-किताब चुकदा करना है।  
ताज्जुब हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालात लगातार सुधरने के बजाय बिगड़ती ही जा रही है।



फलस्वरूप इसके कामगारो में कारोबारी संस्थान छंटनी का काम बढ़ा रहे है और भर्ती घट रही है। सर्वाधिक असर देश के बिस्किट, अंडरगार्मेंट्स, बाइक और शराब जैसे इन चार बड़े उद्योगों पर दिख रहा है। क्योंकि यहां खपत में गिरावट दिखने लग गयी है। साथ ही उत्पादन की मात्रा निरन्तर घट रही है। कारण इसके कंपनियां खर्चा निकालने के लिए कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा रहे है। जून तिमाही में इनरवियर सेल्स ग्रोथ में भारी गिरावट पाई गयी है। चार शीर्ष इनरवियर कंपनियों के तिमाही नतीजे पिछले 10 सालों में सबसे कमजोर रहे हैं। संकेत स्पष्ट नजर आते हैं कि पुरुषों के अंडरगारमेंट्स की बिक्री में आने वाली गिरावट देश की खराब अर्थव्यवस्था कही जाती है। जबकि इनरवियर की बिक्री बढ़ने पर अर्थव्यवस्था रफ्तार पकड़ने लगती है। यह अर्थव्यवस्था का कड़वा सच है। 


सालाना 10 हजार करोड़ रुपए की बिस्किट बेचने वाली कंपनी पारले-जी के कैटेगिरी हेड मयंक शाह का कहना है कि वे सरकार से जीएसटी कम करने की मांग कर रहे हैं। कहा कि 100 रुपए प्रति किलो की कीमत वाले बिस्किट पर सबसे ज्यादा जीएसटी लग रही है। जीएसटी की वजह से कंपनी की लागत भी नहीं निकल रही है। ऐसे में लोगों को निकालने के सिवा कोई और रास्ता नहीं दिख रहा है। उनका कहना है कि अगर सरकार जीेएसटी कम नहीं करती तो उन्हें अपनी फैक्टरियों में काम करने वाले 8,000-10,000 लोगों को निकालना पड़ेगा। यही हाल ब्रिटानिया बिस्कीअ कम्पनी का भी है। 



पहली बार मंदी का असर शराब की बिक्री पर दिखा है। इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में शराब, बीयर और वाइन की बिक्री एक-तिहाई रह गई है। सबसे बुरा हाल ऑटो सेक्टर का है। चार पहिया के साथ-साथ दो पहिया वाहनों की बिक्री में भी भारी गिरावट दर्ज की गई है। कई कंपनियों ने उत्पादन बंद कर दिया है।
इसके इतर देश के शेयर बाजारों में भी पिछले हप्ते भारी गिरावट दर्ज की गई। जो प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 587.44 अंकों की गिरावट के साथ 36,472.93 पर और निफ्टी 182.30 अंकों की गिरावट के साथ 10,736.40 पर बंद हुआ था। बंबई स्टाक एक्सचेंज (बीएसई) का 30 शेयरों पर आधारित पिछले सप्ताह का संवेदी सूचकांक सेंसेक्स सुबह 27.21 अंकों की तेजी के साथ 37,087.58 पर खुला और 587.44 अंकों या 1.59 फीसदी गिरावट के साथ 36,472.93 पर बंद हुआ। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) का 50 शेयरों पर आधारित संवेदी सूचकांक निफ्टी 13.4 अंकों की गिरावट के साथ 10,905.30 पर खुला और 182.30 अंकों या 1.67 फीसदी गिरावट के साथ 10,736.40 पर बंद हुआ। अर्थशास्त्री भी भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत पर चिंता जता चुके हैं। भारतीय अर्थशास्त्रीयो के अनुसार, मोदी सरकार की नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर मंदी और चार दशक की उच्च बेरोजगारी सामने देखी है। ऑक्सफोर्ड से शिक्षित अर्थशास्त्री पुलापरे बालकृष्णन ने हालिया शोधपत्र में कहा कि साल 2014 से ही मैक्रोइकॉनमिक नीतियां अर्थव्यवस्था को सिकुड़ाने वाली रही है। 


हेतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ हाई लेवल मीटिंग भी की है। जिसमें देश की आर्थिक स्थिति का जायजा लिया गया, इसे सुधारने के लिए बड़े कदम उठाने को कहा गया। जनवरी-मार्च तिमाही में देश की जीडीपी घटकर 5.8 प्रतिशत रह गई है, मौजूदा समय में और घट गयी है। यहां तक कि देश में सबसे छोटे कारोबार सूत-कपास, जिससे आम लोगो की आर्थिक स्थिति सामजस्य में बनी रहती थी, सो बहुत ही खराब हो चुकी है।


सूत्रों के अनुसार इंडस्ट्रीज के लिए सरकार एक प्रोत्साहन पैकेज पर काम कर रही है, जिसमें कर कटौती, सब्सिडी और अन्य प्रोत्साहन समेत कई वित्तीय कदम उठाए जा सकते हैं। इस पैकेज का लक्ष्य उद्योगों की लागत घटाने के साथ-साथ ऐसे उपाय भी करना है, जिससे ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा मिले। माना जा रहा है कि सरकार ऑटो के रजिस्ट्रेशन फीस और रोड टैक्स में भी कमी कर सकती है। रियल एस्टेट सेक्टर के लिए भी सरकार प्रोत्साहन पैकेज का ऐलान कर सकती है। 



अर्थशास्त्री बालकृष्णन के मुताबिक सरकार ने अपनी दोनों ही भुजाओं एक मौद्रिक नीति और दूसरी राजकोषीय नीति का प्रयोग अर्थव्यवस्था में मांग को घटाने के लिए किया है। जबकि मोदी सरकार अपनी मैक्रोइकॉनमिक नीतियों के असर का अंदाजा नहीं लगा पाई। सरकार ने अवसंरचना और नौकरियां दोनों को बढ़ाने का वादा किया था, लेकिन व्यवस्थित रूप से यह प्रयास सफल नहीं हो पा रहा है।


अर्थात 2014 से ही देश में पैसों की तंगी हो गई थी। मोदी सरकार के विवादास्पद नोटबंदी के कदम के बारे में अर्थशास्त्री बालाकृष्णन ने कहा कि नोटबंदी के बाद निजी निवेश में गिरावट नहीं दिख रही थी, लेकिन इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि इसके कारण निवेश की दर में जितनी तेजी आ सकती थी, उतनी नहीं आई है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था पर चिंता जाहिर की है। साल 2018 में अर्थव्यवस्था सुस्त रहने की वजह से विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत अब सातवें पायदान पर पहुंच गया है। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में भारत की अर्थव्यवस्था महज 3.01 फीसदी बढ़ी है। वहीं साल 2018 में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था 6.81 फीसदी बढ़ी। जबकि साल 2018 में फ्रांस की अर्थव्यवस्था 7.33 फीसदी बढ़ी है। पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने पर मोदी सरकार ने इसका खूब प्रचार किया था और अगले पांच सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था को 50 खरब तक पहुंचाने की बात कही था। ऐसे में विश्व बैंक का ये ताजा आंकड़ा सरकार को परेशान कर सकता है।