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!!समलैंगिक अपराध कैसे!!
प्रकृति के रूप निराले है। महिला व पुरूष के आपसी परस्पर व भावनात्मक संबधो की चर्चा सरेराह हैं। इसी तरह अब समाज में एलजीबीटी, समलैंगिक व ट्रांसजेण्डरो की मांग भी बड़ी जोरो से सामने आ रही है। वे चाहते है कि महिला व पुरूषों की भांति उन्हे जीने की मान्यता संवैधानिक और भावनात्मक रूप से मिले। यह बात देहरादून में मनाया गया गर्वोत्सव 2019 में सामने आई। इस दौरान देश के कोने-कोने से आये एलजीबीटी, समलैंगिक व ट्रांसजेण्डर सैकड़ो की संख्या में सम्मलित हुए।
आमतौर पर महिला व पुरूषो के अतरंग संबध समाज में चर्चो का विषय रहते है। समाज भी सामान्य रूप से स्वीकार करता है कि यह प्राकृतिक है। इसलिए कि इन दोनो के मिलने से नई जनरेशन पैदा होती है। मगर इन्ही दोनो के मिलने से ऐसे भी पैदा होते हैं जिनकी समझ कहती है कि महिला महिला के साथ रहना चाहती है, पुरूष पुरूष के साथ रहना चाहता है। अब तो मौजूदा तकनीकी ने अंग परिवर्तन करके इन्हे अतरंग सबंध और साथ रहने के लिए और सहज कर दिया।
महिला और पुरूष के ही मिलने से ऐसी भी जनरेशन पैदा हुई है कि जिसका रूप महिला का है, या पुरूष का है मगर इनका स्वभाव विपरित है। जिन्हे समाज में किन्नर कहते है। इन्ही सवालो को लेकर एलजीबीटी, समलैंगिक व ट्रांसजेण्डर समुदाय खड़ा हुआ है।
उल्लेखनीय हो कि अभी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया कि एलजीबीटी समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं। यौन रुझान को जैविक स्थिति बताते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। इस दौरान प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा, 'एलजीबीटी समुदाय के पास भी आम नागरिक के समान अधिकार हैं। लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर समुदाय के पास अन्य नागरिकों के समान अधिकार हैं। सबसे ऊपर मानवता है। समलैंगिक सेक्स को आपराधिक करना तर्कहीन और अनिश्चित है।
अपवाद क्या है
अपने देश में लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल एवं ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) लोगों को गैर-एलजीबीटी व्यक्तियों द्वारा कानूनी और सामाजिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वे अक्सर अपने परिवारों से अस्वीकृति का सामना करते हैं। विपरीत लिंग विवाह के लिए उन्हें मजबूर किया जाता है। समान लिंग के लोगों के बीच यौन गतिविधि कानूनी है। लेकिन समान-लिंग वाले जोड़े कानूनी रूप से विवाह नहीं कर सकते हैं या नागरिक भागीदारी प्राप्त नहीं कर सकते हैं। देश में समलैंगिको की आबादी 25 लाख बताई जाती है। एलजीबीटी, लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर का यह संक्षिप्त रूप है। बीसवीं सदी के आखिरी दशक की शुरुआत में यह संक्षिप्त नाम इस समुदाय की पहचान बनता चला गया।
मौजूदा समय में जब दुनिया में शादी को भी सन्तानोत्पत्ति से नहीं जोड़ा जा सकता है, तो दो वयस्कों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक या विपरीत सेक्स के संबंधों पर अप्राकृतिक यौनाचार का ठप्पा लगाने पर सवाल उठ रहा है। संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जीतने वाले नवतेज सिंह जौहर क्लासिकल डांसर हैं। 59 वर्षीय नवतेज अशोका यूनिवर्सिटी में गेस्ट फैकल्टी हैं। 2010 में मिशिगन विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं। इन्होंने ही धारा 377 को पहली बार न्यायालय में चुनौती दी थी। 33 वर्षीय केशव सूरी ललित सूरी हॉस्पिटेलिटी ग्रुप के कार्यकारी निदेशक हैं। वे दिवंगत ललित सूरी के बेटे हैं। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में उन्होंने कहा था कि लगभग एक दशक से एक व्यक्ति से उनका रिश्ता है। वहीं, कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि अगर समलैंगिक सम्बन्धों को गैर-आपराधिक घोषित कर दिया जाएगा तो समाज में अपराधों की संख्या बढ़ जाएगी।
कानून कहता है
छः सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 377 (भारतीय दण्ड संहिता) को असंवैधानिक घोषित करके समलैंगिकता के अपराधीकरण को समाप्त कर दिया। जबकि 2014 के बाद से ट्रांसजेंडर लोगों को बिना लिंग परीक्षण के लिंग बदलने की सर्जरी करने की अनुमति दी गई थी। और तीसरे लिंग के तहत खुद को पंजीकृत करने का संवैधानिक अधिकार दिया गया है।
इतिहास
अपनी कामुक मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध खजुराहो मंदिरों में समलैंगिक गतिविधियों के कई चित्रण हैं। इतिहासकारों ने लंबे समय से तर्क दिया है कि पूर्व-औपनिवेशिक भारतीय समाज ने समान-यौन संबंधों का अपराधीकरण नहीं किया था, और न ही इस तरह के संबंधों को अनैतिक या पापी हिंदू धर्म के रूप में देखा है। हालांकि पारंपरिक रूप से समलैंगिकता को प्राकृतिक और आनंदपूर्ण रूप में चित्रित किया गया है। कुछ हिंदू ग्रंथों में समलैंगिकता के खिलाफ निषेधाज्ञाएं हैं। हिंदू धर्म में तीसरे लिंग को हिजड़ा के रूप में भी जाना जाता है। महाभारत में कई चरित्र हैं जो लिंग बदलते हैं, जैसे शिखंडी जो जन्म लेने वाली महिला है, लेकिन पुरुष की पहचान करता है और अंत में विवाह वाली महिला होती है। बहूचरा माता प्रजनन की देवी हैं, जिन्हें हिजड़ों द्वारा उनके संरक्षक के रूप में पूजा जाता है।
धर्म और चिकित्सा से संबंधित प्राचीन भारत के दो महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थों क्रमशः नारदस्मृति और सुश्रुत संहिता ने घोषित किया की समलैंगिकता का कोइ इलाज नही है। नारदस्मृति चैदह प्रकार के पंडाओं (पुरुष जो स्त्रियों के साथ नपुंसक है) को सूचीबद्ध करती है। इनमें मुखेभगा (दूसरे पुरुषों के साथ मुख मैथुन करना), सेवयका (वे पुरुष जो अन्य पुरुषों के यौन आदी हैं) और इरशयका (दृश्यरतिक जो अन्य पुरुषों को सेक्स करते हुए देखते हैं) हैं। कामसूत्र मनुष्य के यौन व्यवहार को चित्रित करता है की समलैंगिक इच्छाओं बावत पुरुषों के लिए तृतीया-प्राकृत शब्द का उपयोग करता है। कामसूत्र कहता है कि समलैंगिक स्वैरिनि, जो अन्य महिलाओं के साथ आक्रामक प्रेम-प्रसंग में संलग्न रहता है। अब यहां बाइसेक्शुअल यानि कामी या पक्षा के रूप में संदर्भित करते हुए ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स लोगो का एक समुदाय खड़ा है।
बता दें कि आधुनिक सामाजिक होमोफोबिया को यूरोपीय उपनिवेशवादियों और अंग्रेजों ने धारा 377 अधिनियमन के मार्फत पेश किया था। ब्रिटिश राज ने गुदा सेक्स और मुख मैथुन (विषमलैंगिक और समलैंगिक दोनों के लिए) को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराधी बना दिया। यह अधिनियम 1869 में लागू हुआ था। इस अधिनियम ने एक व्यक्ति के लिए स्वेच्छा से प्रकृति के आदेश के खिलाफ संभोग करना अपराध बना दिया। यही नहीं आपराधिक संभोग तर्कहीन, मनमाना और प्रकट रूप से असंवैधानिक ठहरा दिया।
आजाद भारत के 70 साल बाद
जस्टिस इंदु मल्होत्रा का कहना है कि इतिहास इन लोगों और उनके परिवारों के लिए एक माफी का दावा करता है। समलैंगिकता मानव कामुकता का हिस्सा है। उनके पास सम्मान और भेदभाव से मुक्त होने का अधिकार है। एलजीबीटी समुदाय के लिए वयस्कों के यौन कार्यों की अनुमति है। न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़ कहते हैं कि इतिहास द्वारा गलत को सही करना मुश्किल है। लेकिन हम भविष्य के लिए रास्ता तय कर सकते हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यौन अभिविन्यास के आधार पर कोई भी भेदभाव भारतीय संविधान का उल्लंघन है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को इस तथ्य को सही तरीके से प्रसारित करने के लिए सभी उपाय करने के निर्देश दिए। कहा कि समलैंगिकता अपराध नहीं है, सार्वजनिक जागरूकता पैदा करने और एलजीबीटी समुदाय के चेहरे के कलंक को खत्म करने और उन्हें संवेदनशील बनाने के लिए पुलिस बल को अतिरिक्त प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
इसके लिए 15 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कहा कि शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के हकदार ट्रांसजेंडर लोगों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग घोषित करें। साथ ही संघ और राज्य सरकारों को उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने फैसला दिया कि ट्रांसजेंडर लोगों को किसी भी प्रकार की सर्जरी के बिना अपना लिंग बदलने का मौलिक संवैधानिक अधिकार है, और ट्रांसजेंडर लोगों के लिए समान उपचार सुनिश्चित करने के लिए सरकार से आह्वान किया। न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया कि भारतीय संविधान आधिकारिक दस्तावेजों पर तीसरे लिंग की मान्यता को अनिवार्य करता है, और यह कि संविधान के अनुच्छेद 15 लैंगिक पहचान के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है। निर्देश दिये कि सरकारी दस्तावेजों में उन्हें मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट और बैंक फार्म में पुरुष (एम) और महिला (एफ) के अलावा तीसरा लिंग विकल्प प्रदान करना होगा, जिसे आमतौर पर अन्य (ओ) या तीसरा लिंग (टीजी) या ट्रांसजेंडर (टी) माना जाय।
समलैंगिकता का इतिहास
भारत में वर्ष 1925 में खानू बनाम सम्राट का समलैंगिकता से जुड़ा पहला मामला था। उस मामले में यह फैसला दिया गया कि यौन संबंधों का मूल मकसद संतानोत्पत्ति है, लेकिन अप्राकृतिक यौन संबंध में यह संभव नहीं है। 2005 में गुजरात के राजपिपला के राजकुमार मानवेंद्र सिंह ने पहला शाही 'गे' होने की घोषणा की। मायानगरी में 'माई ब्रदर निखिल' 'हनीमूंस ट्रेवल प्रा लिमिटेड' दोस्ताना' जैसी फिल्में इसी विषय पर बनीं।
क्या है धारा 377
स्वेच्छा से 18 साल से अधिक उम्र का कोई पुरुष, महिला या पशु से अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करे तो भारतीय दंड संहिता की इस धारा के तहत उसे आजीवन कारावास या दस साल तक कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। 1935 में पहली बार इसमें संशोधन करके इसका दायरा बढ़ाया गया।
2001 समलैंगिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले नाज फाउंडेशन ने जनहित याचिका दायर कर इसे वैध किए जाने की मांग की। 18 सितंबर 2008 को स्वास्थ्य और गृह मंत्रालयों के परस्पर विरोधी हलफनामों पर हाईकोर्ट ने केंद्र को फटकार लगाई। दो जुलाई 2009 को सहमति के आधार पर वयस्कों में समलैंगिक संबंधों को हाईकोर्ट ने वैध ठहराया। जबकि नौ जुलाई को दिल्ली के एक ज्योतिष शास्त्री ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली। बाद में भाजपा नेता बीपी सिंहल समेत कई धार्मिक संगठनों ने भी इसके विरोध में शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया। 15 फरवरी 2012 को मामले में सुप्रीम कोर्ट ने रोजाना की अंतिम सुनवाई शुरू की। 11 दिसंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को पलट दिया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने 150 साल से अधिक पुराने कानून की धारा 377 पर फैसला करने का सवाल संसद पर छोड़ दिया।
2014 में सरकार ने अपने पक्ष में कहा कि मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इस पर कोई फैसला आने के बाद ही कोई कदम उठाएंगे। 2015 में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने के लिए कांग्रेस नेता शशि थरूर ने लोकसभा में निजी बिल पेश किया। हालांकि उनका बिल बुरी तरह गिर गया। धारा 377 की संवैधानिक वैधता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में 2016 में पांच याचिकाएं दाखिल की गईं। अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में लैंगिक झुकाव को निजता के अधिकार से जोड़कर देखा।
इधर संयुक्त राष्ट्र के 94 सदस्य देश इनके समान अधिकारों का समर्थन करते हैं। 54 विरोध में, 46 का रुख तटस्थ है मुस्लिम देश लेबनान, कजाखिस्तान, माली, तुर्की, इंडोनेशिया, बहरीन, अल्बेनिया, अजरबैजान, नाइजर इन देशों में ऐसी प्रवृति करने वाले के खिलाफ कठारे नियम है।
देहरादून का प्राईड मार्च
रंगों से भरे फ्लैग और रंग-बिरंगे पोस्टरों संग एलजीबीटी समुदाय ने समलैंगिक गर्वोत्सव के उपलक्ष्य में 24 अगस्त को परेड ग्राउंड से प्राइड मार्च निकाला। एडवोकेट लता राणा और अल्पना जदली ने प्राइड मार्च को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। लता राणा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का सबको पालन करना चाहिए। समलैंगिकता अपराध नहीं है। भारतीय सभ्यता के अनुसार सबको अपनी जिंदगी जीने का अधिकार है और हम सबको इस सत्य को अपनाना चाहिए। प्राइड मार्च में लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, और ट्रांसजेंडर्स ने भाग लिया। इस दौरान लेट्स फाइट फॉर जस्टिस, विकृति एवं प्रकृति और दून प्राइड के खूब नारे लगाए गये। प्राइड मार्च को हमसफर ट्रस्ट, परियोजना कल्याण समिति, इंडिया क्योर ऑब्जर्वर की ओर से आयोजित किया गया।
दिल्ली से आए गौतम ने बताया कि उन्होंने एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट में हमसफर ट्रस्ट की ओर से समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी में न लाने की मांग की थी। तब उन्हें मालूम पड़ा कि नास फाउंडेशन का 10 साल पुराना केस पहले ही सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जब फैसला आया तो उनकी और उनके साथियों की आंखे नम हो गई। उनकी मुख्य मांग एलजीबीटी समुदाय को शादी करने का अधिकार मुहैया करवाने की है। समलैंगिक राहुल ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने भले ही समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया हो, लेकिन एक नियम अभी भी समलैंगिकों को खुलकर नहीं जीने देता है, वह है जिलाधिकारी से मिलने वाला सर्टिफिकेट। इस सर्टिफिकेट को पाने के लिए सर्जरी की रिपोर्ट देनी होती है, जो कि बिल्कुल भी उचित नहीं। क्योंकि हर कोई समलैंगिक अपनी सर्जरी करवाना उचित नहीं समझता। अरुणाचल प्रदेश से आए मेसंग ने बताया कि उन्हें जितना गर्व समलैंगिक समुदाय से होने का है, उतना ही गर्व प्राइड मार्च में शामिल होने का है। वह भारत में होने वाली हर प्राइड मार्च में शामिल होते हैं। बाईसेक्सुअल भावना ने बताया कि सबको अपनी जिंदगी खुशी से जीना पसंद है।
एक छात्रा आकांक्षा ने बताया कि उनके पिता भी एलजीबीटी समुदाय से संपर्क रखते है, लेकिन उनकी मां को इस बारे में कुछ मालूम नहीं। सरकार को ग्राम स्तर पर लोगों को जागरूक करना चाहिए। एचआर प्रियांजली क्षेत्री ने बताया कि वह प्राइड मार्च में अपनी बहन के साथ एलजीबीटी समुदाय के सपोर्ट में खड़ी हैं। हालांकि उनके अभिभावकों को इस बारे में बिल्कुल भी मालूम नहीं। उन्हें डर है कि उनके अभिभावक यह जानकर उनके खिलाफ हो जाएंगे। कोलकाता से आए वेंक्टेश ने बताया कि वह 15वीं बार प्राइड मार्च में भाग ले रहे हैं। उनके अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अधिकार तो दिए, लेकिन अधूरे। वह न तो शादी कर सकते हैं, न साथ में बैंक अकाउंट खुलवा सकते हैं। ऐसे में अधिकार मिलना भी उनके लिए ना के बराबर है।