संग तेरे


संग तेरे 


हां मै मजबूर था......
शायद समय रहते,
तुम्हे पहचान ना पाया।
अब जब पहचाना,
तो शायद समय नही रहा।
...
अकल भी क्या चीज़ होती है।
जब जरुरत नही होती,
सिर्फ तभी आती है।।
........
और हां....
माफ कीजियेगा मेरी खता को,
ए हमसफर।
मंजिल तक ना पहुंच पाऊ,
गर सँग तेरे।

आशाओ के बियाबान मे,
भटककर काटता रहा जिन्दगी।
कि ढल जायेगी उम्र,
इसी आशा में मेरी।

ढालने की कोशिश मै लगा रहा,
वक़्त बेक़क्त तुम्हे।
कोशिशे नाकाम,
खुद का जमीर ही अब,
सो गया मेरी।।।।


नोट- यह कविता काॅपीराइट के अन्र्तगत है। प्रकाशन से पूर्व लेखक की संस्तुति अनिवार्य है।