आपदा का मंजर


आपदा का मंजर



आँख खुली तो आपदा का मंजर था,


प्रकृति ने पीठ पर घोंपा खंजर था।


तबाही का आलम बिछा था,


चारों ओर हाहाकार, मचा था।


बेहताशा दौड रहे थे, बेसुध हो गिर रहे थे।


कोई खुद को संभाल रहा था,


कोई अपनों को पुकार रहा था।


मुश्किलों का वो दौर था,


जब अपने बिछड गए, लापता हो गए।


कल तक जो मुस्करा रहे थे,


आज गमजदा हो गए।


प्रकृति का यह रूप भयावह, विकराल,


ले बैठा न जाने कितने मासूमों की जान।


आखिर क्यों प्रकृति ने ये तांडव मचाया,


कहाँ भूल हुयी जो ऐसा  प्रतिफल पाया ।


क्यों सूनी हो गयी गोद माँ की,


क्यों माँ ( प्रकृति ) ने माँ को  आज रूलाया ।


कुछ विचार करें, कुछ प्रयास करें,


निःशुल्क मिला है जो हमको, उसका सही उपभोग करें।


निष्ठुर न हो प्रकृति हमसे, आओ इसका सदुपयोग करें।


 



यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है। कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखक की संस्तुति अनिवार्य है।