ढोल से पहले ढोली का संरक्षण हो - प्रीतम भरतवाण


||ढोल से पहले ढोली का संरक्षण हो - प्रीतम भरतवाण||


वर्तमान की आधुनिक सभ्यता ने लोक संस्कृति को नया आयाम दिया है जो अब सर्व-जन का कर्म बन गया है। यह उद्गार उत्तराखण्ड के जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण के है। उनके जन्म दिन की पूर्व संध्या पर श्री भरतवाण से हुई सूक्ष्म वार्ता के अंश -


लोक संस्कृति के बारे में बतायेंगें।


दरअसल कुछ अर्सें पहले यानि कि जब संचार के कोई साधन नहीं थे तत्काल उत्तराखण्ड पहाड़ के गांव में बसने वाले जो लोक बाध्यन्त्रों को संवारने व प्रस्तुत करने का कार्य करते थे वे सम्पूर्ण मिडिया का कार्य तो करते ही थे अपितु वे समाज में हमेशा अपने गीतों के माध्यम से परस्परता का कार्य भी करते थे। आज खुशी इस बात की है कि तब एक विशेष प्रकार के लोग ही संस्कृति के कर्ता-धर्ता थे। आज यह सार्वजनिक हो गया है। तब एक ही प्रकार के लोगों को लोक संस्कृति कर्मी मानते थे। लोक संस्कृति का सीधा अर्थ जीवन से और जीवन को जीने से है।


आप लोक संस्कृति के उत्थान व विकास के बारे में बतायंे ?


निर्भरता जीवन को समाप्त करती है। मेरा मानना है कि यदि अपने राज्य के संस्कृति कर्मी सरकार पर आस लगाये बैठे रहेंगें तो शायद इस ओर कोई कारगर प्रयास सार्थक हो। वर्तमान में आडियों-विडियों व मिडिया के माध्यम से लोक संस्कृति के प्रसार के लिये जो कार्य हो रहे हैं वे निसन्देह प्रशंसनीय हैं। उत्थान व विकास का सीधा अर्थ है कि बिना अध्ययन व मेहनत से यह सब अधूरा है।



जितने भी गायक है (उत्तराखण्ड में) सभी लोक गायक हैं ?


यह सत्य है कि गायन और प्रस्तुतीकरण क्षेत्र मंे लोक तब जुड़ता है जब समाज की प्रमाणिकता उस प्रस्तुति को प्राप्त हो। अर्थात यह भी कह सकते हैं लोक की अभिव्यक्ति का प्रस्तुतिकरण। जैसे कि श्री नरेन्द्र नेगी, श्री जीत सिंह नेगी, श्री रतन सिंह जौनसारी, मंगला रावत, चन्द्रसिंह राही, हीरा सिंह राणा आदि हमारे अग्रज यह लोक गायक हैं । इससे पहले की ओर देखें तो घनश्याम सैलानी व गोपाल बाबू गोस्वामी जैसी दिवंगत आत्माये असली लोक गायक थे।


समाज में जागर का महत्व ?


जागर विद्या आदि और अनन्त काल से है। यह सिद्ध है कि जब कोई सभ्यता एक हजार साल तक समाज मंे व्याप्त रहती हैं तब एक छोटी संस्कृति का जन्म होता है यहां हम कहसकते हैं कि हमारे पहाड़ में जागर और ढोल की पैदाइश इस प्रकार ही हुई है। जागर का सम्बन्ध जागृत करने से है। जो एक दम मृत प्रायः हो गया और उसका पुनर्जन्म करना ही जागर है।



आपने ढोल की भी बात कही ?


उत्तराखण्डी समाज में अनादीकाल से यह सभ्यता है कि मरने से लेकर मृत्यु तक ढोल की सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है। जीवन जीने में जब सोलह संस्कारों का पर्दापर्ण होता है। उसमें ढोल मुख्य है। जब सोलह संस्कारों में ढोल इतना महत्वपूर्ण है तो राज्य मंे इसे भी राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्यता मिले ढोल के बिना कोई भी राष्ट्रीय पर्व सम्पन्न न हो। एक बार कुछ साथियों ने ढोल के बोल लिपी बद्ध किये है। यह अच्छा प्रयास है परन्तु यह कार्य तब तक अधूरा है जब तक हम उस विद्धान तक नहीं पहंुचे जिसने ढोल को जिया होगा।


ढोल के संरक्षण की बात हर स्तर पर वर्षों से उठ रही है। आप बतायेंगें कि ढोल का संरक्षण हो गया या हो रहा है ?


ढोल का ना तो कोई संरक्षण होगा ना ही हो पायेगा। वनस्पत जब तक ढोली (बजाने व बनाने वाला) का संरक्षण व पुर्नवास नहीं हुआ तब तक यह बातें अधूरी हैं।


तो आप मानते है ढोल का संरक्षण होना चाहिए ?


उत्तराखण्ड में जब लोक संस्कृति की बात आती है तो ढोल सर्वोपरी है इसलिये हर स्तर पर ढोली और ढोल दोनो का पहले पुनर्वास हो उसके बाद संरक्षण करना आसान हो जायेगा। ढोल तो सर्वप्रथम शिव ने बनाया था जो ढोल सागर में बताया गया। आज इस ढोल सागर के साहित्य की भी नितान्त आवश्यकता है।


आप इस ओर कोई उल्लेखनीय कार्य करेगें ?


हां-हां बिल्कुल हमने लोक संस्कृति में लोक बाध्ययन्त्रों व संगीत के संरक्षण व प्रशिक्षण के लिये ''हिम लोक कला केन्द्र'' की स्थापना की है। जिसके माध्ययम से तमाम लोक विद्यायों पर समय-समय पर अध्ययन और कार्यशालायें आयोजित करते है ताकि भविष्य की पीड़ी इनसे वाकिफ हो व दक्ष बनें।


अन्त मंे कोई सन्देश


जवाब - मिडिया के बिना लोक संस्कृति को ऊँचाई तक पहुँचाना नामुमकिन है । यही कहना चाहूंगा कि जिस तरह समाज का रूझान लोक संस्कृति की ओर बढ़ रहा है वह निश्चित तौर पर सुखद है। सभी पाठक और श्रोताओं को मेरा प्रणाम