सियासत के ‘संत’ का नया ‘अवतार

||सियासत के 'संत' का नया 'अवतार'||



अभी कुछ समय पहले तक की तो बात है जब उत्तराखंड की सियासत 'भगत दा' यानी भगत सिंह कोश्यारी के इर्द गिर्द घूमती नजर आती थी । किसी भी सियासी उलटफेर या उठापटक की बात हुई हो और 'भगत दा' की चर्चा न हो यह संभव ही नहीं था । सरकार किसी की भी रही हो खांटी संघी नेता 'भगत दा' हमेशा सियासी चर्चा में रहे । राज्य बनने के बाद शायद की ऐसा कोई दौर रहा हो जब उनके मुख्यमंत्री बनने की चर्चा जोरों पर न रही हो । हालांकि अंतरिम सरकार में कुछ दिनों के लिए वह मुख्यमंत्री रहे भी, मगर निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य उन्हें हासिल नहीं हो पाया ।


आखिरकार, अलग राज्य की अवधारणा पर आधारित “उत्तरांचल प्रदेश क्यों ?” जैसी पुस्तक लिखने वाले 'भगत दा' का मुख्यमंत्री के तौर पर उत्तराखंड इंतजार करता ही रहा गया और सक्रिय राजनीति से उन्होंने चुपचाप विदाई ले ली । उत्तराखंड की निर्वाचित सरकार में 'भगत दा' मुख्यमंत्री भले ही न बन पाए हों, लेकिन भाजपा हाईकमान ने उत्तराखंड से अलग उनका नया कद तय किया है । भगत दा फिर सुर्खियों में हैं, उन्हें महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया गया है । केंद्र के इस फैसले के बाद उत्तराखंड में खुशी है, लेकिन पहाड़ के दर्द को महसूस करने वाले 'भगत दा' से पहाड़ की उम्मीदें अधूरी रहने की कसक भी है । उम्मीद है कि 'पहाड़' के 'पहाड़' सरीखे 'भगत दा' मराठा धरती पर भी वही लोकप्रियता हासिल करेंगे जो उन्होंने 'पहाड़' पर हासिल की ।


यह पहला मौका नहीं है कि जब उत्तराखंड से कोई राजनैतिक व्यक्ति राज्यपाल बना हो । भगता दा से पहले स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी आंध्राप्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं, तो वहीं सेना में अधिकारी रहे लेफ्टिनेंट जनरल एमएम लखेड़ा मिजोरम के राज्यपाल रह चुके हैं । यही नहीं उत्तराखंड राज्य बनने से पूर्व उत्तराखंड मूल के प्रो.बीड़ी पाण्डेय भी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे । मगर भगत दा के महामहिम बनने के मायने अलग हैं । उत्तराखंड के 'भगत दा' का महाराष्ट्र का 'लाट साहब' बनना एक सियासी संत का नये अवतार जैसा है । तकरीबन 77 वर्षीय भगत दा की सियासत और पृष्ठभूमि दूसरे राजनेताओं की तरह नहीं रही है ।


अपने राजनैतिक जीवन में जो सादगी और सुचिता उन्होंने रखी वह बेमिसाल है । वह सत्ता में रहे हों या सत्ता से बाहर ड्राइंग रूम पालिटिक्स से उनका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा । वह तो हर हाल में अपने बेबाक अंदाज में जनता के बीच रहे हैं । यही सादगी और बेबाकी साठ के दशक के अंग्रेजी स्नात्कोत्तर 'भगत दा' की पहचान और ताकत रहा है । जरा कल्पना कीजिये ग्यारह भाई बहनों वाले सीमांत व दुर्गम क्षेत्र के एक साधारण परिवार से निकलकर शिक्षा ग्रहण करना और राजनीति में स्थापित करना । कितना कठिन और संघर्षपूर्ण रहा होगा यह सफर ?


'भगत दा' का राजनैतिक और सार्वजनिक जीवन जितना संघर्षमय रहा है, उतना ही रोचक छात्र संघ के महासचिव से लेकर उनका महामहिम बनने तक सफर भी रहा है । साठ के दशक में वह अल्मोड़ा महाविद्यालय में छात्र संघ महासचिव रहे और उसके बाद स्वंयसेवक के रूप में संघ के प्रचारक रहे । आपातकाल के दौरान लंबे समय तक वह मीसा के तहत जेल में बंद रहे । संगठन का जिम्मा मिला तो संगठन को खड़ा करने में खुद का समर्पित कर दिया । निसंदेह उत्तराखंड में भाजपा की गहरी जड़ें जमाने में सादगी पसंद, संत स्वभाव और जमीनी पकड़ वाले 'भगत दा' की भूमिका भी बेहद अहम रही है ।


भगत दा को राजनीतिज्ञ भले ही कहा जाता हो लेकिन सही मायने में सियासत में उनकी भूमिका एक 'साधक' की रही है । तकरीबन तीन दशक तक मुख्यधारा की राजनीति में रहते हुए वह उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के सदस्य से लेकर उत्तराखंड सरकार में मंत्री, मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष से लेकर पहले राज्य सभा सदस्य और फिर रिकार्ड मतों से जीतने वाले लोकसभा सांसद रहे मगर जड़ों से कभी दूर नहीं हुए। आज जब सियासत 'धंधा' बन चुकी है, ऐसे में भी भगत दा का चाल, चेहरा और चरित्र नहीं बदला । वह राज्य के उन चंद राजनेताओं में शुमार हैं, जिनका अपना प्रदेशव्यापी जनाधार और लोकप्रियता है ।


भगत दा को जो करीब से जानते हैं जो उनके संघर्ष के साक्षी हैं, उन्हें मालूम है कि 'भगत दा' यूं ही नहीं बना जाता । आज उत्तराखंड की सियासत भले की भगत दा के इर्द गिर्द न घूमती हो लेकिन भगत दा राजनेताओं की नयी पीढ़ी के लिए एक मिशाल हैं । पहाड़ और पहाड़ का लोक उनकी आत्मा में रचता बसता है । इस दौर में शायद ही कोई ऐसा राजनेता हो जिसने भगत दा के बराबर पहाड़ की पगडंडियों को पैदल नापा हो । चाहे वह मुख्यमंत्री रहे हों या नेता प्रतिपक्ष या फिर सांसद, पहाड़ की पगडंडियों से उन्होंने नाता टूटने नहीं दिया ।


नये अवतार में यह नाता बना रहेगा, यह कहना मुश्किल है । मगर उत्तराखंड की शुभकामनांए 'भगत दा' के साथ है कि अपनी नयी भूमिका में मराठा भूमि पर नया इतिहास रचेंगे । महामहिम के रूप में भी वह वही लोकप्रियता महराष्ट्र में भी हासिल करेंगे, जो उन्हें उत्तराखंड में हासिल है । सनद रहे कि महाराष्ट्र एक बड़ा प्रदेश है, राजनैतिक लिहाज बेहद महत्वपूर्ण है । वहां विधानसभा चुनाव आसन्न हैं, हो सकता है भगत दा को महाराष्ट्र का राज्यपाल बनाए जाने के पीछे सियासी निहितार्थ भी हों । इस लिहाज से नयी भूमिका चुनौतीपूर्ण है, मगर उम्मीद की जाती है 'भगत दा' हर चुनौती से पार पाकर खुद को साबित करेंगे ।


( लेखक की फेसबुक वाल से साभार, लेखक वरिष्ठ पत्रकार है )