औषधीय खेती - 3 - एन्गुस्टिफोलिया

(द्वारा -  वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा
किताब - जलग्रहण विकास-क्रियान्यवन चरण, अध्याय - 3)
सहयोग और स्रोत - इण्डिया वाटर पोटर्ल-


[सनाय/सोनामुखी] वानस्पतिक नाम: एन्गुस्टिफोलिया


भारत का सोनामुखी की खेती में विश्व में प्रथम स्थान है। भारत करीब 20 करोड़ रूपयों की सोनामुखी की पत्तियों का निर्यात करता है। सोनामुखी मुख्यतया कफ दूर करने के उपयोग में आता है। बिना सिंचाई के राजस्थान में सोनामुखी की खेती 7-8 वर्षो से जोधुपर, पाली, बाडमेर, सीकर, जैसलमेर, चूरू, बीकानेर, जालौर, नागौर एवं श्रीगंगानगर आदि जिलों में की जा रही है। इस फसल के लिए सुरक्षा के इन्तजाम करने की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे कोई जानवर नहीं खाता है।


जलवायु


इसके लिए शुष्क जलवायु तथा काफी कम वर्षा की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा 300 मिमी. तक हो, इस फसल के लिए उपयुक्त है। यह पौधा न्यूनतम 4 डिग्री सेन्टीग्रेड तथा अधिकतम 50 डिग्री सेन्टीग्रेड तक की गर्मी सहन करने की क्षमता रखता है।


भूमि एवं भूमि की तैयारी


यह सभी प्रकार की भूमियों में उगाया जा सकता है, परन्तु इसकी खेती के लिए रेतीली से लेकर दोमट मिट्टी ज्यादा उपयुक्त रहती है। ज्यादा लवणीय भूमि उपयुक्त नहीं है। विशेष रूप से ऐसे क्षेत्र जहाँ कभी खेती ही नहीं हो (बंजर क्षेत्र) अथवा जहाँ खेती में कभी रासायनिक खाद का उपयोग नहीं किया गया हो, में इसकी उपज काफी गुणवत्तापूर्ण होती हैं। बीज बोने से पूर्व एक दो अच्छी जुताई करके भूमि को खरपतवार रहित कर देना चाहिए।


बुवाई का समय


मानसून की अन्तिम वर्षा के तुरन्त बाद इसको बोना ज्यादा लाभदायक है। बोने के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए। 15 जुलाई से 15 दिसम्बर तक का समय इस फसल को बोने का उपयुक्त समय है।


बीज की मात्रा


अच्छी किस्म का 10 किग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर इसकी बुवाई के लिए पर्याप्त है।


बीजोपचार


पौधों को आद्र्रगलन रोग से बचाने हेतु बीज को थाइरम या कैप्टान से 2.5 ग्राम प्रति किग्रा, बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए।


बुवाई की विधि


इसकी बुवाई हल या ट्रैक्टर से कतारों में करनी चाहिए। कतार से कतार व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. रखनी चाहिए। इसे छिड़काव विधि से भी बोया जा सकता है। बीज को 1-2 सेमी. से अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए।


बाद एवं उर्वरक


बुवाई के समय 10-15 टन प्रति हैक्टेयर की दर से गोबर की खाद भूमि में मिलाना उपयुक्त रहता है। भारत में कई स्थानों पर हुए परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि सोनामुखी का पौधा 4-5 माह की बढ़वार अवधि में 50-100 किग्रा. 20-50 किग्रा. फास्फोरस एवं 20 किग्रा. पोटाश मृदा से लेता है। यह मात्राएं पौधें की बढ़वार एवं पत्तियों की तुड़ाई की संख्या पर निर्भर करती है।


सिंचाई एवं निराई-गुड़ाई


यदि खेत में खरपतवार हो तो निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। यद्यपि सोनामुखी आधारित फसल के रूप में अच्छी तरह उगाया जा सकता है परन्तु सिंचाई करने पर उपज में वृद्धि होती हैं। विशेषकर नई पत्तियाँ एवं फूल निकलते समय सिंचाई लाभपद रहती


कटाई


जब फसल 80-90 दिन की हो जाये तब तेज धार वाले हसिये से पूरे पौधें को जमीन से करीब 30 ऊपर से काट लेना चाहिए। पौधें काटते समय ध्यान रखे कि पौधा जमीन से नहीं उखड़े। पाला पड़ने के डर से पहली कटिंग पाला पड़ने की सम्भावना से पूर्व ही कर लेनी चाहिए। पहली कटिंग के बाद करीब 60-70 दिन के अन्तराल पर दूसरी कटिंग करनी चाहिए। एक वर्ष में 4 बार कटिग करें। इस प्रकार एक बार फसल की बुवाई कर 5 वर्ष तक उपज ले सकते हैं।


भण्डारण


फसल की कटाई के बाद तनों से पत्तियाँ तोड़कर छाया में अलग-अलग रखकर 8-10 किग्रा. की छोटी-छोटी ढेरियों में गर्मियों में 3 दिन तथा सर्दियों में 5 दिन तक सुखाना चाहिए। पत्तियों को सूखाते समय बांस से उलटते रहना चाहिए। सूखने के बाद पत्तियों को एक ढेरी में इकट्ठा कर लेना चाहिए परन्तु ध्यान रहे कि इस समय पत्तियों में नमी न रहे। धूप से बचाने के लिए ढेरी को ढक कर रखे एवं 5-7 दिन बाद अगर पत्तियाँ डन्ठल से नहीं तोड़ी गई हो तो पूरे ढेर को चैखनी से झाड़कर पत्तियों को डन्ठल से अलग कर लेना चाहिए। पत्तियों को 1,30, 1.30 मीटर आकार के बोरों में भरकर नमी रहित स्थानों पर भण्डारित करना चहिए।


उत्पादन


इसकी सूखी पत्तियों का उत्पादन चार कटाई करने पर प्रतिवर्ष प्रति हैक्टेयर 1000 किग्रा. होता है। एक बार बोने पर बराबर काटते रहने से 5 वर्ष तक फसल उत्पादन देती रहती है।


सनाया/सोनामुखी से होने वाली आय


आमदनी प्रथम वर्षः 15000 - 4300 खर्च = 13000 प्रति वर्ष


दूसरी वर्ष से पांच वर्ष 15000 - 2000 खर्च = 13000 प्रति वर्ष


बाजार


दवा बनाने वाली सभी कम्पनियाँ इसको खरीदती हैं। इस समय दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई कानपुर, इन्दौर व अमृतसर इसकी बड़ी मण्ड़ियां है। एक दो वर्षो में जोधपुर भी इस फसल की विश्वस्तरीय मण्डी बनने जा रहा है। निर्यात करने वाली कम्पनियों से सम्पर्क कर इसका निर्यात भी किया जा सकता है।


फसल के मुख्य लाभ-



  1. अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता नहीं, बोने के 80 दिन बाद कटाई शुरू।

  2. कोई जानवर या पक्षी नुकसान नहीं पहुँचाता अतः सुरक्षा की आवश्यकता नहीं।

  3. रासायनिक खाद कीटनाशक के उपयोग की आवश्यकता नहीं।

  4. निर्यात कर मुद्रा की आय सम्भव।

  5. पूर्णतया असिंचित फसल होने के कारण बिजली, डीजल व सिंचाई जल की पूर्ण बचत।

  6. भू-संरक्षण व जल संरक्षण के लिए उपयुक्त।

  7. बढ़ते रेगिस्तान को रोकने व टीबा स्थिरीकरण के लिए उपयुक्त

  8. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध रहने से ग्रामीणों का शहर की ओर पलायन कम होगा।

  9. रेगिस्तानी जिलों की ग्रामीण गरीबी को दूर करने के लिए सर्वोत्तम फसल।

  10. मधुमक्खी पालन उद्योग सम्भव, कम लागत से अधिक लाभ।

  11. इस फसल पर आधारित उद्योगों का इस क्षेत्र में तीव्र गति से विकास सम्भव।