औषधीय ख़ेती - 7 -कोम्मीफोरा वाईटी

(द्वारा -  वर्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, कोटा
किताब - जलग्रहण विकास-क्रियान्यवन चरण, अध्याय - 7)
सहयोग और स्रोत - इण्डिया वाटर पोटर्ल-


||[गुग्गल] वानस्पतिक नाम: कोम्मीफोरा वाईटी||


गुग्गल एक बहुशाखीय झाड़ीनुमा पौधा होता है। इसकी शाखाओं का अग्रभाग नुकीला होता है। इसके पत्ते चिकने होते है। इसकी शाखायें श्वेत व मुलायम होती है। इसकी छाल हरापन लिये पीले रंग की होती है। इसके तने व शाखाओं पर कागज की तरह की एक झिली सी होती है। यह राजस्थान में उदयपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, सिरोही, जालौर, जोधपुर, पाली, सीकर, अलवर, नागौर, अजमेर, भरतपुर, झालावाड़, सवाईमाधोपुर, टोंक, खेतड़ी व सरिस्का के जंगलों में पाया जाता है। सरकार ने इसको नष्ट होने से बचाने के लिए अजमेर के पीस मांगलियावास में एक सरकारी गुग्गल फार्म खोला है वहाँ से इसकी कटिंग्स सा पौध प्राप्त की जा सकती है। गुग्गल एक दिव्य औषधि है। इसका उपयोग वातरक्त, आमवात, ब्रणशोध, नाड़ीवण कुष्ठ प्रमेह, नेत्ररोग, उदररोग आदि में प्रभावी रूप से किया जाता है।


नर्सरी तैयारी


गुग्गल के पौधे कलम से ही तैयार किये जाते हैं। पुराने पौधों से कलम लेने का उपयुक्त समय फरवरी माह है। कलम की मोटाई तर्जनी उँगली से पतली नहीं होनी चाहिए तथा यह हाथ के अंगूठे से मोटी नहीं होनी चाहिए। कलम लगभग 9 इन्च लम्बी होनी चाहिए। स्वस्थ पौध से कलम प्राप्त कर पॅालीथीन की थैली में लगाकर नियमित हल्की सिंचाई करते रहना चाहिए। लगाने के एक महीनें से दो महिने के बीच इन कलमों में नये पत्ते आने शुरू हो जाते है तथा जुलाई-अगस्त तक ये पौधे खेत में लगाने लायक हो जाते हैं।


पौध की रोपाई


जुलाई से सितम्बर तक का समय इन पौधों (कलमो) को खेत में लगाने का होता है। इसके लिए गर्मियों से 60 60 60 सेमी. आकार के गड्ढे खोद लेने चाहिए तथा तैयार गड्ढे में 25 ग्राम यूरिया एवं 10 किग्रा. गोबर की खाद प्रति गड्ढे के हिसाब से डालनी चाहिए। जिस थैली में पौधे लगाये गये हो उस थैली को काटकर अलग कर ले एवं पौधें को पिण्ड सहित तैयार किये गये गड्ढे में रोप देना चाहिए। पौधों को खेत में लगाते समय कतार से कतार व पौधें से पौधें के मध्य 2 मीटर की दूरी रखनी चाहिए। पौधा लगाने के बाद उसके चारों तरफ की मिट्टी को अच्छी तरह दबा देना चाहिए एवं हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।


पौधों की देखभाल


गुग्गल में प्रायः कोई बीमारी नहीं लगती लेकिन दीमक से इसे अवश्य खतरा रहता है। चूंकि औषधिय पौधों की खेती करने में रासायनिक खाद तथा रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग नहीं करना चाहिए अतः दीमक नियन्त्रण के लिए जैविक तरीका ही अपनाना चाहिए। इसके लिए तैयार गड्ढों में दो किग्रा. नीम की खली का चूर्ण डालना चाहिए। वर्ष में दो बार पौधों के चारों और निराई-गुड़ाई करे। गुग्गल का पौधा धीमी गति से बढ़ता रहता है लेकिन पौधों की बाजू वाली शाखाएं काटने व हलका पानी देने से पौधें की बढ़ोतरी अच्छी होती है। गुग्गल के पौधों को अतिरिक्त सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती तथा यह पौधा कम पानी में भी जिन्दा रह जाता है जो पानी बरसता है उसको यह पौधा अपने अन्दर संग्रहित करके रख लेता है।


पौधें से दूध निकालना


दिसम्बर से मार्च माह के बीच में चीरा लगाकर पौधों से दूध निकाला जाता है। जब पौधा करीब 6 से 8 वर्ष का हो जाता है तो चीरा लगाने लायक हो जाता है। यह पौधें की वृद्धि पर निर्भर करता है। चीरा पौधों की मोटी शाखाओं पर आड़ा लगाया जाता है। चीरा अधिक गहरा नहीं देना चाहिए अन्यथा पौधा मर जायेगा या दूध कम निकलेगा। चीरा लगाने के पूर्व एक बर्तन में थोड़ा सा गुग्गल का घोल बनाकर उसमें प्रिक चिजूल (चाकू) को डुबोकर इस तरह छाल पर चीरा लगावे कि थोड़ा सा गुग्गल का घोल छाल के अन्दर पहुँच जायें। इससे अधिक मात्रा में सुनहरा, पीला, खुशबुदार पतले रस का रिसाव होगा जो हवा के सम्पर्क में आकर पीला गहरा भूरा हो जाता है तथा ढेलों के रूप में इकट्ठा होता है जिसमें रासायनिक रूप से गोंद, तेल और रेजिन तीनों होते हैं। गुग्गल गोंद में उड़नशील तेल पाया जाता है जिसमें मुख्यतः माइसिन होता है। एक पौधें से एक ऋतु में चीरा देने पर सामान्यतः 200-250 ग्राम शुष्क गोंद प्राप्त होता है। 15-20 दिनों के बाद चीरे दिये गए स्थान से गुग्गल गोंद को इकट्ठा करके छाया में सुखाना चाहिए क्योंकि धूप में सुखाने से उसकी गुणवत्ता कम हो जाती है।