एक अभियान, जो सजीव है, अमर है


||एक अभियान, जो सजीव है, अमर है||
पांच - ''प'' - पानी, पर्यावरण, पहाड़, पेड़ और पंचायत  

उतराखण्डियों के रग-रग में जल, जंगल जमीन बसा है, इसलिए वे इनकी सुरक्षा के लिए यात्राऐं, अभियान और अन्य रचनात्मक कार्य करते है। यहां ऐसे अलग-अलग अभियानो की सूक्ष्म जानकारी प्रस्तुत की जा रही है।
एक -
जल, जंगल जमीन, जीव जन्तु, संरक्षण, संवर्द्धन को लेकर पर्यावरण हितैषी सेना के राष्ट्रीय संयोजक डॉ.बद्रीनाथ कसेरा ने बिते माह उत्तराखंड के चारों धाम समेत हेमकुंड साहेब तक के यात्रा मार्गो पर पैदल यात्रा के माध्यम से जन जागरुकता अभियान चलाया है। बद्रीनाथ कसेरा का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण के लिए तत्पर रहना चाहिए। जल जंगल जमीन पर ही मनुष्य का जीवन निर्भर हैं। बढ़ते पर्यावरण से सचेत रहने की आवश्यकता है। सम्पूर्ण भारत में पदयात्रा के माध्यम से जन जागरुकता अभियान चलाया गया है। इस अभियान में 70 लोगो ने हिस्सा लिया है। बताया कि उन्होंने यात्रा 25 अप्रैल 2019 से पैनवेल मुम्बई उपनगरी के जिला रायगढ़ सांई मंदिर से प्रारंभ की है। जो हिमालय के ठेठ हेमकुण्ड साहिब तक जारी रही है। इस अभियान की पैदल यात्रा के दौरान वेस्ट कूड़ा कबाड़, पॉलीथिन प्लास्टिक, कांच की बोतल नमकीन रेपर आदि को भी एकत्र करके नष्ट किया गया हैं। साथ साथ वृक्षरोपण भी किया गया है।
दो -
टिहरी जनपद की ग्राम पंचायत अमस्यारी की खुली बैठक में वनाग्नि सुरक्षा और जल संरक्षण सहित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की गई। ग्रामीणों ने जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिए मिलकर कार्य करने की बात कही। बता दें कि पहले इन कार्यो के लोग भावानात्मक रूप् से एकत्रित होते थे। सो अब ऐसे प्रस्ताव ग्राम पंचायत में भी आने लग गये है। जो सुखद है, इसलिए कि सरकारी व्यवस्था भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक हुई है।
अमस्यारी के सरपंच बसंत बल्लभ जोशी की अध्यक्षता में आयोजित बैठक में आय-व्यय और पिछली कार्रवाई की पुष्टि की गई। इसके बाद वनों की आग से सुरक्षा, पिछले श्रमिकों का भुगतान करने, जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिए घेरबाड़ करने, जल संरक्षण, प्रदूषण, स्वच्छता आदि मुद्दों पर चर्चा ही नहीं की गई बल्कि एक कार्य योजना बनाई गई जो ग्रामीणो की सहभागिता से सम्पन्न होगी। इस अवसर पर पूर्व सरपंच जुगल किशोर, दान सिंह परिहार, सदस्य कमला देवी, विमला देवी, देवकी देवी, गंगा देवी, रमा देवी, हेम चंद्र, पुष्कर सिंह, ईश्वर चंद्र तेवाड़ी आदि सम्मिलित हुए।
तीन - 
टिहरी जनपद के ही अन्र्तगत गढ़वाल विकास केंद्र संस्था की पहल पर बिते माह सुमन क्यारी स्थित में 'जल, जंगल व जमीन संरक्षण' विषय पर कार्यशाला आयोजित की गई, जिसमें नदी घाटी संस्कृति को बचाने के लिए बढ़ते शराब के प्रचलन पर रोक लगाने की आवश्यकता पर बल दिया।
सर्वोदयी नेत्री राधा बहन ने कहा कि जंगलों की सुरक्षा आज की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गई है। यदि जंगल नहीं रहेंगे, तो पानी के स्रोत भी खत्म हो जाएंगे। इन दोनों विषयों पर हमें गंभीरता से चिंतन व मनन करने की आवश्यकता है। रक्षा सूत्र आंदोलन के सुरेश भाई ने कहा कि जल विद्युत परियोजनाओं ने पहाड़ के गांवों के लोगों का सुख, चैन छीन लिया है। तत्कालीन जिला पंचायत उपाध्यक्ष मीरा सकलानी ने कहा कि जल, जंगल व जमीन बचाने के लिए गांव-गांव से मुहिम शुरू करने की आवश्यकता है। इस मौके पर गढ़वाल विकास केंद्र के संस्थापक प्रवेंद्र सकलानी, भदराज स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष सुरजी देवी, किशना देवी, चम्मा देवी, सुनीता राणा, बिनू देवी, बंको देवी सहित सैकड़ो महिलाऐं मौजूद थी।
चार - 
इधर सरकार की सबसे बड़ी वैज्ञानिक संस्था वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान देहरादून की ओर से भी एक कार्यशाला आयोजित हुई है। पहाड़ो से हो रहे “पलायन और समाधान” विषय पर पलायन एक चिंतन के संस्थापक रतन सिंह असवाल ने अपना पक्ष रखा। उन्होंने बताया कि पृथक उत्तराखंड राज्य गठन के बाद प्रदेश के विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले पहाड़ी इलाके से बड़े पैमाने पर तराई और मैदानों की ओर पलायन हुआ। जिसका कारण वे सरकारो की बेरूखी मानते हैं। सरकारी सिस्टम पहाड़ में स्थानीय स्तर पर ऐसे आजीविका के साधन तैयार नहीं कर पाए, जिससे की स्थानीय युवा अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा कर सकते। वे आगे बताते हैं कि दुनिया के अनेकों ऐसे देश हैं, जिनका समूचा भूभाग पहाड़ ही है, लेकिन इसके बावजूद उन मुल्कों की सरकारों ने अनुसंधान, तकनीकी व इंजीनियरिंग की मदद से उन पहाड़ों को यहां के मैदानों से सुगम और मानवीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल दिया, इसका उदाहरण पड़ोसी राज्य हिमाचल है। इस वक्तव्य से भी मालूम होता है कि इस तरह के समूह उत्तराखण्ड राज्य में प्राकृतिक संरक्षण बावत दबाव ग्रुप के रूप में काम कर रहे है। अर्थात पर्यावरण जागरूकता जारी है।
पांच - 
सुझाव भी राज्य के पक्ष में



विभिन्न संगठनो का का कहना है कि सरकारों ने अनुसंधानों, तकनीकी व इंजिनीरिंग का समुचित लाभ नहीं लिया है, कारण इसके पहाड़ लगातार दुर्गम होते जा रहे हैं। सुझाव है कि पहाड़ व पहाड़ की पारिस्थितिकी के संदर्भ में हो रहे तमाम रिसर्च के केंद्र में इकोसिस्टम के साथ मानव जीवन के सहज अस्तित्व का सवाल अवश्य हो। देशभर में वन, पर्यावरण व पारिस्थितिकी के क्षेत्र में अध्ययन व अनुसंधान कर रहे सभी संस्थानों को पारस्परिक समन्वय के साथ शोध करने होंगे, इसके लिए मानवविज्ञान के विशेषज्ञों से भी व्यापक संवाद जरूरी होना चाहिए। उत्तराखंड के पहाड़ की एंथ्रोपोलॉजी ही जल, जंगल व जमीन से शुरू होती है, इनके साथ मानव जीवन के पारस्परिक रिश्ते को मजबूत किये बिना पहाड़ के अस्तित्व की उम्मीद नही की जा सकती। पहाड़ में प्रकृति व मानव के सहअस्तित्व की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा को जीवित रखने के लिए हमारे ख्यातिलब्ध संस्थानों व उनके अनुभवी विद्वानों को शिद्दत के साथ कार्य करना होगा। भू-विज्ञान, सीस्मोलॉजि, एंथ्रोपोलॉजी व इकोसिस्टम के लिए काम करने वाले संस्थान स्थानीय स्तर पर अनुसंधान के ऐसा ब्लूप्रिंट तैयार करें जो एकतरफा न हो, जिसके केंद्र में स्थानीय निवासी हों, और जिसमे प्रकृति एवम मानव एक दूसरे के पूरक हों, कुल मिलाकर जो व्यवहारिक हो। जिस तन्त्र में इकोसिस्टम के साथ आजीविका के साधनों की पुख्ता व्यवस्था भी हो।