गांधी को समझने का वक्त


||गांधी को समझने का वक्त||


स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जिस तेजी से भारत में गांधी दर्शन और भारत की उनकी समझ की गहराई से उपजी विकास की दृष्टि को नकारा गया, उनके सैद्धांतिक और व्यावहारिक जीवन मूल्यों को भुला दिया गया, उसके परिणाम अब दिखाई देने लगे हैं। यदि केवल कृषि और छोटे उद्योगों के विकास के संबंध में उनकी अवधारण को अपनाया गया होता तो आज किसान का जीवन सम्मानपूर्ण और गरिमामय होता, शहरों की ओर युवाओं की दौड़ सीमित होती!


गांधी दर्शन पर विचार-विमर्श इस शताब्दी के प्रारंभ से कुछ इसी तर्ज पर हो रहा है। सन 1909 में 'हिंद स्वराज' के सौ वर्ष पूरे होने से 2019 में उनके जन्म के एक सौ उनसठ वर्ष के समारोहों के बीच के दशक में यह चर्चा जारी रही है। गांधी के जीवनवृत्त का गहन अध्ययन करने वाले आगे भी उनके व्यक्तिव विकास को लेकर उसे और गहराई से समझाने का प्रयास करते रहेंगे।


चालीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने हिंद स्वराज लिखा था। लोगों ने अधिक ध्यान नहीं दिया। बाद में भी उसका सार-तत्व समझने में पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित लोगों ने अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि उसमें निहित अनेक विचार और विश्लेषण इन लोगों को सतही तौर पर अव्यावहारिक लगते थे। उसके पीछे के दर्शन और गहन चिंतन का जिन्होंने गहराई से अध्ययन किया, केवल वे उसे प्रारंभिक वर्षों में सही ढंग से समझ पाए। आइंस्टीन ने जब सापेक्षता का सिद्धांत दिया था, तब भी अनेक वर्षों तक वैज्ञानिकों में उसे समझ पाने वाले गिने-चुने लोग ही थे। समय के साथ उसका क्रांतिकारी महत्त्व विज्ञान जगत में उजागर हुआ। लगभग उसी प्रकार आज हिंद स्वराज और गांधी दर्शन का अध्ययन करने वालों की संख्या सारे विश्व में लगातार बढ़ रही है और यह वैचारिक विमर्श जीवन के हर पक्ष तक विस्तार पा रहा है।


जिस पश्चिमी सभ्यता के प्रति युवा गांधी ने तल्खी से लिखा था और अनेक आशंकाएं व्यक्त की थीं, उसका असली स्वरूप भाषा पर लिखा, युवाओं के लिए लिखा, प्राकृतिक चिकित्सा पर लिखा, जो लिखा उसे व्यवहार में लाए, अधिकतर तो व्यवहार में लाने के बाद लिखा।


हिंद स्वराज लिखने के समय जब एक हाथ थक जाता था तो वे दूसरे से लिखने लगते थे। व्यक्ति निर्माण और शिक्षा का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिस पर उन्होंने लिखा न हो। मातृभाषा, सदाचार, स्त्री शिक्षा, देश भक्ति, आप जो ढूंढे, उनके लेखन में मिल जाएगा। आज हम शिक्षा में कौशलों की अनुपस्थिति पर चिंता व्यक्त करते हैं, गांधी चमड़े की चप्पल बना कर वाइसराय तक को भेंट करने में नहीं हिचकते थे। स्वच्छता के लिए जो उन्होंने किया और लिखा, उसका अनुपालन कितना आवश्यक था, इसकी पहचान अब हो रही है। हर शहर में कूड़े के ढेर लगे हैं जो बढ़ते ही जा रहे हैं।


स्वच्छ भारत अभियान ने लोगों का ध्यान तो आकर्षित किया है, मगर दृष्टिकोण परिवर्तन एक कठिन और समय लेने वाली प्रक्रिया है और देश उसी से गुजर रहा है। युवाओं के लिए गांधी के व्यक्तित्व विकास को समझने में उनके कुछ कालजयी कथन अत्यंत सहायक हो सकते हैं। इनमें पहला है कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है'। आज वैश्वीकरण और निजीकरण की चकाचौंध भरी दौड़ में विश्व केवल बाजार बन कर रह गया है, इस दौड़ की भयानक आशंकाएं अब उभर कर सामने आ रही हैं और इनसे हर पीढ़ी शकित और आशंकित हैं।


स्कूलों में विद्यार्थी और बाहर युवा अब समझने लगे हैं कि यह प्रश्न अब सामने दिखाई दे रहा है कि पृथ्वी कितने वर्ष और बचेगी? यह कपोल कल्पना नहीं रही है, वैज्ञानिक अनुमान कपोल कल्पना नहीं रही है, वैज्ञानिक अनुमान लगा चुके हैं कि यदि सारा विश्व अमेरिका या यूरोप के स्तर का जीवन यापन करने लगे तो क्रमशः पांच या तीन ऐसे ही अन्य पृथ्वी ग्रहों की आवश्यकता होगी! दो फरवरी 1925 को गांधी ने 'यंग इंडिया' में लिखा था कि भारत कर्मभूमि है. भोग भूमि नहींभारत का मिशन, लक्ष्य, उद्देश्य अन्य से भिन्न है।


यह देश अपने आत्मिक बल के आधार पर सदा सराहा गया है, यहां लोग जीवन के लक्ष्य, उद्देश्य और अध्यात्म को समझाने, सीखने और आत्मसात करने सदा आते रहे हैं, और थे-'अहिंसा के पथ पर चलते हुए मेरा जीवन भारत की सेवा के लिए समर्पित है।' भारत का रास्ता पश्चिम का खूनी रास्ता नहीं है, वह तो साधारण-सामान्य-सरल और ईश्वर-प्रिय आचरण से पनपता है। यही तो भारत की आत्मा है। भारत में इतनी ऊर्जा और इच्छाशक्ति होनी चाहिए कि वह पश्चिम से आ रहे भौतिकवाद के तूफान का धैर्यपूर्वक विश्लेषण कर जहां आवश्यक हो वहां प्रतिरोध भी कर सके, सभी कुछ आंख मूंद कर स्वीकार न किया जाए। यदि हम ध्यान से देखें तो अपरिग्रह की संस्कृति के महत्त्व की सामान्य जनजीवन में सार्वजानिक स्वीकृति का दूसरा उदाहरण किसी अन्य समाज और सभ्यता में इतनी गहनता से नहीं मिलता है जितना बल इस पर प्राचीन भारत के समाज और सभ्यता में मिलता है।


विश्व में सारा द्वंद्व, भयानक प्रतिस्पर्धा, आयुधों मिलता है। विश्व में सारा द्वंद्व, भयानक प्रतिस्पर्धा, आयुधों पर बेतहाशा व्यय, हिंसा और तनाव तो अनियंत्रित संग्रह को लेकर ही है। इसे सरल और संक्षेप में गांधी ने सबके सामने रखा-'प्रकृति में सभी की आवश्यकता पूर्ति के लिए संसाधन उपलब्ध हैं, मगर एक के भी लालच के लिए नहीं।' अफ्रीका के नए स्वतंत्र हुए देशों के अनेक उदाहरण दिए जाते हैं जहां एक सत्तासीन के लालच ने सारे देश की प्राकृतिक धरोहर को बर्बाद कर दियाभारत में अवैध खनन, जंगलों की कटाई, जमीन का दुरुपयोग, नदियों के आसपास अतिक्रमण के दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने आने लगे हैं।


कई बार लगता है कि बहुत देर हो चुकी है। आज अगर गंगा प्रदूषित है, तो सत्तासीनों के शर्मनाक लालच का उसमें कम योगदान नहीं है। अनगिनत उदाहरण हैं। कारण स्पष्ट है, नेताओं और गांधी का दम भरने वालों ने गांधी के जाने के बाद उनके सिद्धांतों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। इस एक सौ पचासवें वर्ष में क्या गांधी चर्चा अपना कुछ प्रभाव डाल सकेगी? क्या आज के राजनेता कुछ छोटे-छोटे प्रकरण याद रख कर अपना जीवन संवारना चाहेंगे? उनके लिए यह जानना लाभकारी होगा कि गीता का अध्ययन गांधी को जीवन पर्यंत संबल देता रहा!


बचपन में हरिश्चंद्र नाटक का उन पर प्रभाव पड़ा थादक्षिण अफ्रीका में जिस पुस्तक का उन पर चमत्कारी प्रभाव पड़ा था, वह थी रस्किन की 'अनटू दिस लास्ट' जिसे हाथ में लेकर वे छोड़ ही नहीं सके। एक बार पढ़ कर उन्हें उस रात नींद नहीं आई।