||जलपूजा के भावनात्मक गीत व कायदे हैं उतराखण्ड में||
यह तो सर्वविदित ही है कि प्रकृति प्रदत्त यह “जल पदार्थ” मात्र मानव के लिए ही नहीं अपितु सभी प्राणियों एवं वनस्पतियों के लिए भी जीवन का आधार है। बिना जल के जीवन की कल्पना कैसे कर सकते है, अर्थात जल का संबध सीधे जीवन और जीविका से है। “जल ही जीवन है” की कल्पना को लोग साकार करने के लिए जल संस्कृति की बात को इस मायने में प्रपुष्ट करते हैं कि वे जल संरक्षण के लिए जल स्रोतो की पूजा करते हैं। अतएव जल से यहां के लोगो का भावनात्मक रिश्ता है।
वैसे भी उतराखण्ड हिमालय मे जल संरक्षण की अनूठी संस्कृति रही है। इस राज्य के लोगो ने जल संवर्धन हेतु अनेकों तौर तरीके अपनाए हैं। कहीं बरसाती पानी को एकत्रित करने हेतु चाल-खाल (पारंपरिक तालाब) का प्रयोग किया तो कहीं जल को “पूजनीय” माना। चूंकि उत्तराखण्ड में जलस्रोतो की पूजा होती ही है। यह पूजा मुख्यतः दो नामों से प्रचलित है। पानी पर लगान पूजा, और जल परिचय पूजा। यानि की जल पूजा इस पहाड़ी राज्य में संस्कृति का हिस्सा है। अर्थात नवविवाहिता का गांव में पहला परिचय पानी के धारे, (पन्यारे-नौले) से कराया जाता है, इसी परिचय वक्त उक्त जलस्रोत की भी पूजा होती है। दूसरा यह कि जब किसी महिला का प्रसव हो जाता है तो प्रसव पश्चात पांचवें दिन की पहली पूजा “पानी” से आरंभ होती है। यही पानी पर लगान पूजा कहलाती है। क्योंकि महिलाओं से ही पूजा अनिवार्य नहीं है बल्कि पुरुष तो स्नान करते वक्त “जल आराधना” करते हैं कि -“गंगे च यमुने चवै, गोदावरी सरस्वती। नर्मदे सिंधु कावेरी जलस्मिन सन्निधिमकुरू। ओम कलशस्यमुखे, विष्णुकंठे रूद्रेरूसमाश्रितरू। मूलेतस्य स्थितो ब्रह्मा, मध्ये मातृ गणारू स्मृताः”। कुक्षैतू सागरेसु सर्वेसः द्वीपा वसुंधरा। ऋग्वेदः, यजुर्वेदः, सामवेदी, अथर्ववाः, और इस प्रकार आह्वान करने के पश्चात हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।
उल्लेखनीय तो यह है कि जल की सिर्फ यहां पर पूजा, प्रार्थना तक ही नहीं होती है बल्कि यहां जल संरक्षण की भी समुदाय आधारित संस्कृति है। इस संस्कृति के चलते आज से 50 वर्ष पूर्व तक उत्तराखण्ड के जल, जंगल, जमीन संरक्षित रहे हैं। जब-जब प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षणवाद और दोहन का जिम्मा सरकारी तंत्र ने लिया है तब से लोगों का रिश्ता जल, जंगल, जमीन से दूर होता चला गया है। क्योंकि इस तरह से यहां का स्थानीय समुदाय किसी की थोपी हुई व्यवस्था व नियमावली को कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। जिसका जीता जागता उदाहरण सन 1930 में हुआ तिलाड़ी कांड है। इसके पश्चात 70 के दशक में भी लोग अपने हक हकूक के लिए संघर्ष करते रहे और लोगो ने “चिपको आंदोलन” के संगठनात्मक रूप ने वन माफियाओं को क्षेत्र से खदेड़ दिया था।
ज्ञात हो कि इसी प्रकार पुनः 1994 के आसपास उतराखण्ड में वन माफिया सक्रिय हुए तो उन्हें रक्षासूत्र आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं ने करारा जवाब दिया है। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, संवर्धन, प्रबंधन और दोहन में लोगों के जेहन में सदैव परंपरा से एक प्रतिबद्धता रही है। जिस हेतु वे आंदोलित भी हुए हैं। राज्य में वन बचाने वाले आन्दोलनकारी समूहो का कहना है कि वन माफियाओं ने ऊंचाई के जंगलों में बनाई गई वर्षा के जल एकत्रीकरण हेतु चाल-खाल को नष्ट भ्रष्ट किया है। बताया जाता है कि यहां पर चाल खाल की संस्कृति प्रत्येक गांव में कमोवेश विद्यमान थी। इनकी सफाई व रखरखाव के नियम कायदे भी ग्रामीण अपनी सुविधा अनुसार बनाते थे। सो इसी आधार पर इन जलस्रोतो की पूजा भी होती थी और रखरखाव के कार्य भी सामूहिक रूप में होते थे। यही वजह है कि जल संस्कृति जैसी परंपरा टूटने के बाद पिछले 50 सालों से राज्य में भूस्खलन, बाढ़, भूमि कटाव जैसी समस्याएं बढ़ती ही जा रही हैं। हम अध्ययन करके देखें तो ऊंची पहाड़ियों में जंगलों के बीच रहने वाले पशुपालकों को जीवन रूपी अमृत पानी की प्राथमिक आवश्यकता थी। घने वनों के बीच रहने वाले पशुपालक केवल एक ही स्थान पर नहीं रहे जहां जहां पर पशुओं के लिए चारा उन्हें मिल जाता था, वहीं उन्होंने बसेरा भी बना डाला। धीरे-धीरे यह स्थान गांव के रूप में विकसित हुए। यह गांव आज भी राज्य में दूरदराज के गांव कहलायें जाते हैं।
पहले पहल इस पहाड़ी राज्य के लोग अपने एवं पशुओं को पानी उपलब्ध कराने के लिए लोग गड्ढे नुमा गोलाकार, आयताकार अथवा धरती की स्थिति के अनुरूप विभिन्न आकारों में जल एकत्रीकरण के लिए तालाब बनाते थे। पुराने समय में प्रकृति का यह संतुलित पर्यावरण, वृहद वनों से नियंत्रित वर्षा के कारण मानव निर्मित तालाबों (चाल -खाल) में बारहमास पानी छलकता था। बाद में जैसे कृषि का विकास हुआ तो घाटियों में भी यह तालाब बनाए जाने लगे। जो सिंचाई से लेकर पेयजल आपूर्ति के काम आते थे। ऊंचाई के तालाबों से दूसरा फायदा यह भी होता था कि निचले इलाकों में पानी के स्रोत भी बने रहते थे, इस कारण छोटे-छोटे जलागमों में घराट (पनचक्कियां) भी चलाई जाती थी। बता दें कि आज के आधुनिक विकास ने जिस तरह से इस जल संस्कृति का ह्यंस किया है। फलस्वरूप इसके बारहमास चलने वाले घराट भी बन्द होने के कगार पर आ गये हैं। यही नहीं पेयजल की किल्लत भी अब दिनों दिन तेजी से गहराती जा रही है।
जानकारो का कहना है कि जल संरक्षण के लिए संस्कृति की ओर लौटना होगा, इसलिए पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करने की नितान्त आवश्यकता है। यद्यपि वर्तमान में जल एकत्रीकरण के लिए सीमेंट के हौज एवं डिग्गियां अभी भी ज्यादा उपयोगी नहीं बन पाई है। बजाय इसके पर्यावरण पर लगातार खतरा बढता दिखाई दे रहा है। जहां जहां सीमेंट की डिग्गियां बनी हैं, वहां वहां पानी के प्राकृतिक स्रोत भी समाप्त हुए हैं। इसी तरह गांव में पेयजल के लिए बनाई जाने वाली पाइप लाइनों में पानी रहे या नहीं, नहर से सिंचाई हो या नहीं, लेकिन इस तरह की अनियोजित विकास की योजनाओं से लोगों के रहन सहन की शैली में अभाव जैसा परिवर्तन नजर आ रहा है। इसके परिणाम स्वरुप हिमालय क्षेत्र की जल संरक्षण की पारंपरिक व्यवस्था चाल-खाल समाप्त ही हो गई है।
जल एकत्रीकरण के अनूठे प्रयास किए थे गजु भेढाल ने
यहां गजू भेढाल नाम का शख्स कोई फिल्म का नायक नहीं था और ना ही कोई राजनीतिज्ञ था। बल्कि वह आज से 150 वर्ष पूर्व उत्तराखण्ड के पहाड़ों में हजारों भेड़ों के साथ एक घुमंतू भेड़ पालक था। इस शख्स का नाम यमुनाघाटी में जल संरक्षण की जल संस्कृति से जुड़ा है। कहते हैं कि तत्काल ऊंचाई के वनों में पेयजल की कोई व्यवस्था नहीं होती थी, मगर उन्हें तो भेड़ो की प्यास बुझाने के लिए पानी की आवश्यकता पड़ती थी। क्योंकि निचले इलाकों में उसकी भेड़ इसीलिए भी नहीं आ सकती थी कि हजारों भेड़ों को कृषि भूमि और आबादी में रहना मुश्किल होता था। गजू भोड़ाल नाम के इस योद्धा ने ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गढेनुमा आकार की हजारों ताल तलैया बनाई। जिसमे वर्षा जल एकत्रित होता था। इसलिए बरसाती जल एकत्रीकरण की पद्धति को विकसित करने का श्रेय यहां गजू भेड़ाल को ही जाता है। इस बात की पुष्टी यमुनाघाटी में गाये जाने वाले छोड़े प्रकार के लोक गीतों में होती है। इन गीतों की एक पंक्ति में जिक्र है कि -“छोड़ी दे गजू तू राती कू इठणु, चाली त बणी जाली भौल” अर्थात रात रात को मत बनाया कर चाल-खाल। यह काम कल भी हो सकता है। वह रात्री में इस कार्य पर इसलिए लगता था कि दिन में गजू को भेड़ों की देखभाल करनी होती थी।
जलपूजा के गीत
जलपूजा के आंचलिक गीत उत्तराखण्ड के लोक साहित्य में भी यत्र-तत्र मिल जाते हैं। उदाहरण के रूप में गढ़वाली भाषा के कई गीतों में गंगा महिमा का वर्णन जलपूजा के रूप में मिलती है। जैसे “गंगा मां गाडू रिंगी ओद, त्वैन उत्पतीलीनी हिमालय क गोद। गंगा जी घोटी जाली काई, विष्णु चरण सी छुटी, शिव जटा मां समाई। गंगाजी कागजू की स्याही, भक्तों का खातिर माता मृत्यु लोक मा आई। जल स्रोतो से संबधित लोग गीत इस राज्य में जल संस्कृति के पुष्ट प्रमाण है। जिन्हे विकास रूपी व्यवस्था ने नेस्तनाबूद कर दिया।