उत्तराखण्ड में दो लाख हेक्टेयर में होगी शुद्ध जैविक खेती


||उत्तराखण्ड में दो लाख हेक्टेयर में होगी शुद्ध जैविक खेती||


यह बात जगजाहीर है कि किसी भी उत्पाद पर यदि जैविक का मार्का चस्पा हो और उसी उत्पाद पर यदि हिमालय क्षेत्र में उत्पादित होने वाला उत्पादन छपा हो तो कौन भला जो इस उत्पाद को नहीं खरिदेगा। यह एक बाजार के रूप में विकसित हो रहा है। उत्तराखण्ड में इन दिनों कुछ काश्तकार तो सरकार के भरोसे जैविक खेती को आगे बढा रहे है कुछ किसान खुद के बलबूते पर जैविक खेती को विकसित कर रहे हैं। जो भी हो पर जैविक खेती से जुड़े लोग स्वरोजगार से जुड़ चुके हैं, साथ ही वे स्थानीय पर्यावरण की भी चिन्ता करते है। वे किसान प्राकृतिक संसाधनो का पूरा-पूरा ख्याल रख रहे हैं क्योंकि उनके उत्पाद इसी आबो-हवा के बीच उत्पादित होने पर बिक रहे हैं। इसलिए पहाड़ की खेती फिर से सरसब्ज हो रही है। इधर सरकार ने भी जैविक खेती को बढावा देने के लिए 1500 करोड़ का एकमुश्त बजट स्वीकृत कर दिया है।


सरकार भी जैविक खेती की ओर
बताया जा रहा है कि केन्द्र सरकार ने कृषि आधारित विकास की सभी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिए छब्बीस सौ करोड़ की योजना को स्वीकृति प्रदान की है। जिसे वे सहकारिता के आधार पर पहाड़ में बंजर हो चुके खेतों को फिर से सरसब्ज करने पर खर्च करवायेगी। ताकि एक तरफ पहाड़ में स्वरोजगार के साधन सुलभ हो सके और इस नीमित पहाड़ से पलायन को रोका जा सके। यही नहीं राज्य में सिर्फ व सिर्फ जैविक खेती को संवारने के लिए केन्द्र सरकार ने अलग से 15 सौ करोड़ की योजना को भी मंजूरी दे दी है। अगर सब ठीक-ठाक रहा तो इस योजना के तहत उत्तराखंड को देश के दूसरे जैविक राज्य की पहचान मिलने की प्रबल संभावना है। इधर संबधित अधिकारियो का कहना है कि जैविक उत्पाद संबधित अधिनियम जल्द ही राज्य में अस्तित्व में आ जाएगा। वैसे भी राज्य के जैविक उत्पादों को बाजार देने के लिए जगह-जगह पर हाट लगाए जा रहे हैं। इतना ही नहीं, जैविक उत्पादों को बाजार की कठिनाइयों का सामना न करना पड़े, इसके लिए उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार स्थित पतंजलि संस्था के साथ करार भी कर दिया है और इस करार के तहत राज्य में उत्पादित होने वाले एक हजार करोड़ रुपये तक के जैविक उत्पादों को पतंजलि खरीदेगा।


कहानी जैविक विकासखण्ड मुनस्यारी की
उत्तराखण्ड के पिथौरागढ जनपद अन्र्तगत मुनस्यारी विकास खंड को साल 2016 में जैविक विकास खंड बनाया गया था। वैसे भी इसी जिले के अन्य सभी विकास खंडों में भी जैविक खेती को बढ़ावा देने के कार्य किये जा रहे हैं। सरकरी सूचनाओ के अनुसार जिले में कुल 32 जैविक कृषि कलस्टर बनाए गए हैं। एक कलस्टर 20 हेक्टेयर भू-भाग में चिन्हित किया गया है, और प्रत्येक कलस्टर में 50 किसानों के माध्यम से जैविक खेती की जा रही है। वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय जैविक कृषि विकास योजना के तहत पिथौरागढ़ जिले के लिए लगभग 20 करोड़ से भी अधिक रूपये की योजना को मंजूरी मिली थी, जिसमें से 11 करोड़ रूपये खर्च कर दिए गए। योजना से 6235 काश्तकारों को जोड़ा गया है और 3014 हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक कृषि योजना का संचालन किया जा रहा है। इतना सब कुछ होने, करोड़ों रूपये खर्च कर देने और हजारों किसानों को जैविक कृषि से जोड़े जाने के बावजूद, आखिर मुनस्यारी के काश्तकारों के उत्पाद मुम्बई में 'जैविक उत्पाद' की संज्ञा पाने से असफल रहे। इसका जवाब देने में कृषि महकमे से जुड़े लोग किसानो पर आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ देते हैं। अतएव जैविक विकास खंड, जैविक जिला, जैविक राज्य का हाल इस उदाहरण से समझा जा सकता है।


उत्तराखण्ड में कृषि विभाग के सुहावने आंकड़े 
जैविक खेती को लेकर कृषि विभाग के हालिया आंकड़े बता रहे हैं कि राज्य में 585 कलस्टरों में जैविक कृषि की जा रही है और 80 हजार किसान जैविक कृषि से जुड़े हैं। विभाग का दावा है कि राज्य में एक लाख 76 हजार क्विंटल से अधिक जैविक उपज ली जा रही है। जैविक कृषि के तहत 15 फसलों को चिन्हित किया गया है। बताया गया कि केन्द्र से जैविक कृषि के लिए 15 सौ करोड़ की नई योजना को मंजूरी मिल गई है। उत्तराखंड जैविक उत्पाद बोर्ड के निदेशक संजीव कुमार ने बताया कि इस परियोजना के तहत राज्य में 10 हजार नए कलस्टरों में जैविक कृषि की जाएगी, जिससे राज्य के पांच लाख किसानों को जोड़ा जाएगा। 20 हेक्टेयर भू-भाग में एक कलस्टर का निर्धारण किया गया है। इस प्रकार अब राज्य के दो लाख हेक्टेयर भू-भाग में जैविक कृषि किया जाना तय है। इस तरह अब पूरे उत्तराखंड को जैविक कृषि के अंतर्गत लाया जा रहा है। उल्लेखनीय हो कि यदि जैविक प्रदेश की योजना धरातल पर उतरती है तो आने वाले कुछ ही वर्षो में उत्तराखंड फिर से जैविक राज्य के रूप में उभरकर आयेगा। इसके अलावा वैज्ञानिक ढंग से भी खेती की जायेगी तो पहाड़ के काश्तकारों की आय चैगुनी होने की संभावना है।


जैविक प्रदेश
देश के अन्य हिमालयी राज्यों के साथ ही उत्तराखंड इस बात के लिए भाग्यशाली है कि इसके पहाड़ी क्षेत्रों में रसायन खादो का प्रयोग नाम मात्र का होता है। कमोवेश यदि यहां रसायनिक खादो का इस्तेमाल किया भी जाता है तो वे बारिश के पानी के साथ पहाड़ी ढलानों में बहकर जाते हैं। इस खूबी का लाभ उठाने के लिए मौजूदा परिस्थितियों ने उत्तराखंड के सामने पर्याप्त अवसर पेश किए हैं। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि जैविक खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीके से अपनाकर विकसित किया जा सकता है। अर्थात यहां किसानों को जैविक खेती के लिए प्रेरित किया जाय, जैविक उत्पादन को बढ़ाया जाय और बाजार तंत्र को आज की जरूरत के अनुसार विकसित किया जाय, ताकि यहां किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिए इधर-उधर ना भटकना पड़े।


बंजर खेत और भुतहा गांव
यह सच है कि उत्तराखंड हिमालय में, खेती में रसायनिक खादो का प्रयोग न के बराबर हुआ है, लेकिन कृषि की चुनौतियां यहां मुंह बाए खड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो पूरे पहाड़ के अन्न उगलते खेतों का बंजर पड़ जाना है, जो पिछले 20 वर्षो में सर्वाधिक हुआ है। आज पहाड़ के अधिकांश गांवों की आबादी आधी या इससे भी कम रह गई है। कुछ गांव वीरान होकर 'भुतहा गांव' कहलाने लग गये है। गांवों को केवल उन्ही लोगों ने आबाद किया है जो कतिपय कारणों से गांव में ही रूक गये हैं।


इससे इतर पहाड़ में खेती इसलिए भी संकट के दौर से गुजर रही है क्योंकि जैव-विविधता चक्र के गड़बड़ाने के कारण वन्य जंतुओं का आबादी और खेती पर हमला तेजी से बढ़ा है। बिखरी और छोटी जोत वाले पहाड़ी काश्तकारो ने अब खेती से मुंह मोड़ लिया है। पहाड़ी किसान की इस उदासी की जिम्मेवार सरकारें बताई जा रही है। सरकारी कृषि महकमे का काम अब तक पहाड़ी किसान को रबी व खरीफ की गोष्ठियों में उलझाये रखने तक का रहा तो सिंचाई के नाम पर सूखी गूलें काटकर कमीशनखोरी और घोटालों से सुविधा सम्पन्न जीवन जीने तक सिमटा रहा। ताज्जुब तो यह है कि अब सरकार राज्य बनने के 17 साल बाद जैविक खेती के नाम पर 'पारंपरिक खेती विकास परियोजना' का संचालन करने जा रही है। यहां याद दिला दें कि इस परियोजना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'ड्रीम प्रोजेक्ट' बताया जा रहा है, जिसे उन्होंने उत्तराखंड की पिछली केदारनाथ यात्रा के दौरान उजागर किया था।


अब तो जैविक प्रदेश बनाने के कार्य में लगे महकमे के पास संसाधनों की कमी भी नहीं है। उसके पास 1500 करोड़ रुपये का भारी-भरकम बजट जो है। इस भारी-भरकम बजट से उत्तराखंड की कृषि उपज पर 'जैविक' का लेबल बाजार में स्वीकार होगा कि नहीं यह तो समय ही बता पायेगा। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में बजट तो खर्च हो जायेगा और मुनस्यारी की तरह फिर से किसानों को जैविक उत्पाद प्रमाणन के लिए दर-दर भटकना पड़ेगा। यही नहीं इधर 'पतंजलि' ने राज्य सरकार के साथ करार किया हुआ है कि वे राज्य के सभी जैविक उत्पादो को किसानो से सीधा खरीदेगा। इस तरह जैविक उत्पादो को बजार उपलब्ध करवाने के नियोजन किये गये है। इन पर कब रंग चढेगा जिसकी इन्तजारी राज्य के काश्तकारो को है। 



जैविक उत्पादों का आकर्षण
हालिया दौर में पूरी दुनियां का आकर्षण जैविक उत्पादों की तरफ बढ रहा है। जबकि रासायनिक उत्पादों की तुलना में जैविक उत्पादों के दाम 20 फीसदी से लेकर 150 फीसदी तक अधिक है। बता दें कि साठ के दशक के अंत में शुरु हुई हरित क्रांति के बाद खाद्यान्नों के मांग को पूरी करने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल के चलते कृषि उपज में पर्याप्त उछाल तो आया, लेकिन धीरे-धीरे खेती में प्रयुक्त किए गए रसायन और कीटनाशक भोजन के जरिये शरीर में पहंुचकर कैंसर जैसे तमाम गंभीर रोगों का कारण बन गए। दुनियां के सामने अब एक तरफ भूख को मिटाने की चुनौती है तो दूसरी तरफ रोगों के नियंत्रण की। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए जैविक ख्ेाती के अलावा कोई दूसरा और रास्ता हो नहीं सकता। 


भारत में वर्ष 2004 में राष्ट्रीय जैविक खेती विकास परियोजना की शुरुआत की गई। जिसके तहत वर्तमान में पूरे देश में लगभग साढ़े सात लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में जैविक खेती की जा रही है। लगभग साढ़े बारह करोड़ टन जैविक अनाजों, फलों, सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है। एक आंकलन के मुताबिक भारत मंे खेती करने वाले किसानों की संख्या 12 करोड़ बताई जा रही है। जबकि जैविक खेती करने वाले किसानो की संख्या छह लाख तक बताई जा रही हैं। कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण निर्यात विकास प्राधिकारण (एपीडा) का अध्ययन बताता है कि जैविक प्रमाणन के अंतर्गत खेती करने वाले देशों में भारत अभी 10वें स्थान पर है। इसी संस्था के आकलन के मुताबिक जैविक उत्पादों का बाजार वर्तमान में तीन हजार करोड़ है जोे इतनी तेजी के साथ बढ़ रहा है कि आने वाले पांच सालों में छः हजार करोड़ और दस सालों में नौ हजार करोड़ के आंकड़े को पार कर सकता है।


बाजार में जैविक उत्पाद
बाजार में जैविक उत्पादों की मांग और बाजार मूल्य भी बहुत बढ रहा है। लेकिन उत्पादन इतने कम है कि उससे मांग की पूर्ति करनी संभव नहीं है। बता दें कि हमारे सामने आज ऐसी स्थिति बन आई कि जो 'मरता, वह क्या नहीं करता' जैसी है। दूध में रसायन, तेल में रसायन, दाल, सब्जी, चावल, आटे में रसायन, फलों में रसायन। और तो और उस तागे में भी रसायन की मिलावट हो गई है, जिससे तैयार कपड़े को हम पहन रहे हैं और रसायनों की यही मिलावट हमें रोगग्रस्त करने का कारण भी बनती जा रही है। इसलिए अब प्रकृति के साथ जीवन जीने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है। इसलिए अब जैविक खेती करना लाजिमी है। ऐसी स्थिति में जैविक उत्पाद और जैविक खेती के लिए रास्ता तय करना ही होगा। स्वाभाविक है कि अपने देश में सरकारी प्रयासों के साथ ही मोरारका फाउंडेशन, एमवे, टाटा ट्रस्ट जैसी कई कई संस्थाएं जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए आगे आई हैं।


रसायन बनाम जैविक उत्पाद
प्रश्न यह है कि खाद्यान्नों की जो मांग देश-दुनिया में बढ रही है, उसे क्या अकेले जैविक खेती से पूरा किया जा सकता है? इस सवाल पर वैज्ञानिक बंटे नजर आते हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हरित क्रांति के बाद के पिछले पांच-छह दशकों में खेती में रसायनों का इस तरह से इस्तेमाल हुआ है कि मिट्टी का स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ चुका है। इस मिट्टी में अब बिना रसायनों के प्रयोग से खेती घाटे का सौदा है। जैविक खेती करने पर मिट्टी में सने रसायन एकाएक हटने वाले भी नहीं हैं। विज्ञानी मानते हैं कि लगातार तीन-चार साल तक जैविक खेती करने पर ही मिट्टी से रसायन हट सकते हैं। इस अवधि में तुलनात्मक रुप से उत्पादन में भी गिरावट आ सकती है। इस प्रकार खाद्यान्न की आपूर्ती कुछ समय तक असन्तुलित हो सकती है।