आधुनिक पत्ती संग्रह यंत्र

आधुनिक पत्ती संग्रह यंत्र


महेश सिंह गलिया


आजकल किसानों के पास लोहे के तार से निर्मित एक ऐसा यंत्र उपलब्ध है, जिसमें पाँच से सात नोकें होती हैं। इस यंत्र का उपयोग जंगल की सतह पर पड़ी हुई सूखी पत्तियों को इकट्ठा करने के लिए किया जाता है।इस यंत्र के उपयोग की शुरुआत चीड़ के वन वाले क्षेत्रों से हुई। दुर्भाग्यवश यह चौड़ी-पत्ती वाले वन क्षेत्रों में भी उपयोग में लाया जा रहा है। पारंपरिक रूप से जंगल में पड़ी हुई सूखी पत्तियों को इकट्ठा करने का कार्य वन-घड़ी (स्थानीय वनस्पति) से बने हुए झाडू से होता था। घरों में लिपाई, मिट्टी से दीवारों की पुताई (छपटना) भी इन्हीं झाडुओं से होता था। फ्लावरिंग बीज बाधित होने से इसका अस्तित्व समाप्त हुआ। परिणामस्वरूप ग्रामवासी घिंघारू, किल्मोड़ा आदि वनस्पतियों के काँटे युक्त झाडू उपयोग में लाने लगे। धीरे-धीरे घेरबाड, कृषि यंत्रों एवं बिन्डों की लकड़ी में उपयोग होने के अलावा मौसम की मार तथा बीज-प्रकीर्णन की प्रक्रिया में व्यवधान होने से जंगलों पर लकड़ी के लिए दबाव बढ़ता गया। इस वजह से पत्ते और सूखा बिछावन का संग्रह अठारह गहन के जाल की जगह सूत के बोरो (एक कुन्तल) में किया जाने लगा। उस के बाद आलू की पैकिंग में उपयोग होने वाले बोरों का प्रचलन बढ़ा । जब से बाजार से खरीदा जाने वाला खाद्यान्न कट्टों में बंद होकर आने लगा, गाँवों में प्लास्टिक के कट्टे (50 किग्रा) प्रचलन में आ गये।लोहे के कठोर तारों से बना हुआ झाडू जंगल की त्वचा को घायल कर देता है । यह झाडू गर्मी के मौसम में ज्यादा घाव करता है। उस वक्त नमी की कमी के कारण मिट्टी सूख जाती है। लोहे का झाडू लगाने से आसानी के साथ उखड़कर बाहर आ जाती है। हम अपनी त्वचा को धूप से बचाने के लिए देशी-विदेशी क्रीम दिन में बार-बार स्वयं और नौनिहालों के चेहरे में बड़े प्यार से मलना नहीं भूलते। लेकिन यह जरूर भूल जाते हैं कि, चेहरे में कांति लाने वाले तत्व इन्हीं वनों की बेलों और जड़ी-बूटी से मिलते हैं।नाना प्रकार की वनस्पतियों के बीजों को धरती अपनी कोख में लगातार सहेजती रहती है। मिट्टी की ऊपरी सतह की नमी एवं पुराना मुलायम ह्यूमस, शिशु-अंकुर को बढ़ने में मदद करता हैलोहे के तारों से बने झाडू के उपयोग से मौस से आच्छादित उबड़-खाबड़ धरातल साफ हो जाता है यंत्र के प्रयोग से जंगलों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता समाप्त हो रही है। मिट्टी की सतह पर इसकी रगड़ से बारिश की तेज बौछारों व तीव्र बहाव से होने वाले नुकसान के कारण झाड़ियाँ, जड़ी-बूटियाँ, नाना प्रकार की बेलें और छोटे-छोटे वृक्ष विलुप्त हो जाते हैं। इससे जंगल-जल-जमीन-जानवर और जन-जीवन लगातार प्रभावित हो रहा है। वन-विभाग, समाज-सेवी संस्थाओं, ग्रामीण महिलाओं-पुरुषों एवं सभी युवाओं को इस विषय पर चिंतन मनन करके ठोस काम करने की आवश्यकता है।