आज के परिपेक्ष में आरक्षण उचित या अनुचित 

||आज के परिपेक्ष में आरक्षण उचित या अनुचित|| 


आरक्षण की शुरुआत देश को स्वतंत्रता मिलने से पहले सकारात्मक कार्यवाही के तहत हुई थी। सन् 1882 में जब हंटर आयोग बना उस समय प्रख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेजी सरकार की नौकरियों में आनुपातिक आरक्षण की माँग की थी। सन् 1891 में जब त्रावणकोर के सामंत ने रियासत की नौकरियों के लिये स्थानीय लोगों को दरकिनार कर विदेशियों को नौकरी देने की मनमानी शुरू की तो उनके खिलाफ प्रदर्शन हुए और लोगों ने अपने लिए आरक्षण की माँग उठाई। 


यानि सन् 1909 में आरक्षण का प्रावधान  भारत में शुरू हुआ। आरक्षण शुरू करने के दो मुख्य कारण थे। पहली असमानता व दूसरी आर्थिक स्थिति। इस तरह आजाद भारत में संवैधानिक रूप से पिछडे़पन को दूर करने के लिए भारत सरकार ने 10 सालों के लिए आरक्षण की व्यवस्था आरंभिक की। 


अतः 10 सालों में भी असमानता खत्म न होने के कारण इसे अगले 10 सालों के लिए बढ़ा दिया गया। तब से अब तक आरक्षण को लेकर लगातार बहस हो रही है। जैसे- किसी परीक्षा में सामान्य वर्ग का अधिकतम कटआॅफ 35 और न्यूनतम 74 अंक है। वहीं ओबीसी का न्यूनतम कटआॅफ 45 है तथा एससी, एसटी, एवं विकलांग वर्ग का न्यूनतम कटआॅफ क्रमशः 29, 24, तथा 35 अंक हैं। इन वर्गों में अधिकतम अंक 73 है। कटआॅफ अंकों में विशाल अंतर को अलग-अलग नजरियों से देखा जा रहा है। 


इधर आरक्षण को अपने मौकों पर डाका डालने वाली व्यवस्था बताना एक तरह से इस पूरे मामले को सामान्यीकरण या सरलीकरण करने जैसा ही है। रही बात आर्थिक समानता की तो उसमें दलितों की एक बड़ी आबादी देश की आजादी के 70-71 साल बाद भी समाज के निर्मित अंधेरों में जीने को अभिशप्त है। उन्हें ना ही आरक्षण का पता है, ना उनके लाभ का और ना ही अपने मानवाधिकारों का।


कु॰ अंशिका कक्षा 11 की छात्रा है देहरादून में 30 सितम्बर 2019 को हुऐ वाद-विवाद प्रतियोगिता में इस छात्रा ने आरक्षण को लेकर अपना पक्ष इस तरह रखा।


आपको जानकर ताज्जुब होगा कि दलितों पर अत्याचार के खिलाफ कड़ा कानून है। बावजूद इसके अपराधो की दर में कोई कमी नहीं आई है। जाति के आधार पर आरक्षण होना चाहिए या नहीं, यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर आप और हम रोज बहस कर सकते हैं। लेकिन अगर कोई नेता इसका विरोध करता है तो इसे राजनीतिक आत्महत्या की तरह देखा जाता है। 
आरक्षण अब ऐसा मुद्दा बन चुका है जिसे छेड़ना खुदकुशी करने की जैसा है। कुछ माह पहले भारत की संसद में आरक्षण के मुद्दे पर बहस हुई। इस दौरान प्रमुख दलों के नेताओं ने अपने-अपने पक्ष रखे। मगर सदन के अंदर आरक्षण के सवाल पर सकारात्मक रुख नहीं अपना पाए, बल्कि राजनीतिक दलों के नेताओं ने आपस में आरोप-प्रत्यारोप ही गढ़ते रहे। जबकि आजादी के 70 साल बाद भी आरक्षण के सवाल पूर्ववत ही खडे दिखते हैं। 


हालांकि मौजूदा समय में आरक्षण की स्थितियां बदल चुकी हैं। मगर आरक्षण का सवाल इसलिए जिन्दा हैं, क्योंकि इस देश के अन्दर गैर-बराबरी समाप्त नहीं हुई है। उदाहरणस्वरूप- सरकारी रोजगार के लिए आरक्षित पद खाली हैं। तो दूसरी तरफ सामाजिक प्रतिष्ठानों जैसे-मठ, मंदिर, आश्रम, आदि-आदि में आरक्षित वर्गों के लोगों की पहंुच नहीं बन पाई है। इतना जरूर हुआ कि आरक्षित वर्ग में शिक्षा का प्रसार हुआ है। फिर भी आरक्षित वर्ग के अधिकांश शिक्षित नौजवान गुणवत्ता परख व व्सवसायिक शिक्षा से कोसो दूर है। इस बात को कहने का तात्पर्य यह है कि देश के विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में हिन्दी विषय के विभाग अध्यक्षों के अधिकांश पद रिक्त पड़े हैं। क्योंकि इन पदों की भरपाई आरक्षित वर्ग से ही होनी हैं।


अतः भारत की जनसंख्या का एक बडा हिस्सा आरक्षण को खत्म करने की राय रखता है। कई लोगों ने जाति के आधार पर आरक्षण खत्म करने की मांग की थी। उनका ये मानना है कि नौकरियों में आरक्षण से कमजोर वर्ग को कोई खास फायदा नहीं हो सकता। बल्कि उनमें योग्यता पैदा करने की जरूरत है। दूसरी ओर आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसा भी है, जिसका कहना है कि आरक्षण को ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया है और इसकी जरूरत आज भी है। मेरा मानना भी यही है कि पिछड़ेपन को दूर करने के लिए आज भी आरक्षण की जरूरत है। इसका मतलब है कि जिन लोगों को आरक्षण का फायदा मिल चुका है उनकी जीवनचर्या में परिवर्तन आए हैं। वें आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं। परन्तु गैर-बराबरी की समस्या उनके सामने आज भी खड़ी है।