आखिर खुशी किस बात की सरकार?

|| आखिर खुशी किस बात की सरकार? || 



वास्थ्य सुविधाओं का हाल लोगों से छिपा नहीं है। सड़क और जंगल में प्रसव हो रहे हैं और इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी की बात फेल साबित हो रही है। कोई सुनवाई नहीं है और न ही कोताही करने वाले डाक्टरों पर कोई कार्रवाई होती है। प्रदेश सरकार शराब को राजस्व का मुख्य स्रोत मान रही है। यही कारण है कि पिछले तीन साल में देहरादून और हरिद्वार जिले में जहरीली शराब से 50 से भी अधिक मौत हो हो गयी, लेकिन अब तक किसी को सजा नहीं हुई।



सरकार ने राज्य स्थापना दिवस समारोह पूरे एक सप्ताह तक आयोजन करने का फैसला किया है। इस आयोजन में अलग-अलग वर्गों के लोगों के साथ संवाद किया जाएगा या उनके साथ राज्य निर्माण का जश्न मनाने की तैयारी है। सवाल यह है कि जब राज्य कर्ज में इतना डूबा हो तो किस बात की खुशी? जब प्रदेश में दस लाख से भी अधिक युवाओं को रोजगार की तलाश हो और सरकार मुंह बाए सो रही हो, तो ऐसे में कैसी खुशी मिल सकती है।


सरकार ने लगभग एक सप्ताह चलने वाले कार्यक्रमों में निश्चित रूपसे 15-20 करोड़ रुपये ठिकाने लगा दिये होंगे। जिस तरह से प्रचार-प्रसार किया जा रहा है और खास मीडिया घरानों को लाभ पहुंचाया जा रहा है यह साबित करना है कि यह राज्य स्थापना दिवस समारोह से कहीं अधिक इवेंट मैनेजमेंट है। त्रिवेंद्र सरकार के पास इस सवाल का जवाब नहीं है कि आखिर किस बात की खुशी में यह सप्ताह भर का आयोजन हो रहा है। राज्य में पूर्व सैनिक, युवा, महिलाएं परेशान हैं। शिक्षा व्यवस्था का आलम यह है कि न तो शिक्षक हैं और न ही पाठ्यक्रम की पुस्तकें। लाइब्रेरियां पुरानी किताबों से भरी हैं और छात्रों को नयी तकनीक और जानकारियां नहीं मिल पा रही है।


हमारे प्रदेश की उच्च शिक्षा सिर्फ सफेद कालर युवाओं का उत्पादन केंद्र बनकर रह गयी हैं, क्योंकि शिक्षा में गुणवत्ता नहीं होने के कारण युवा अन्य राज्यों के विद्यार्थियों से रोजगार के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहा है? आईटीआई से लेकर मेडिकल की शिक्षा महंगी कर दी गई है? एक गरीब का बच्चा अब डाक्टर तो क्या आईटीआई भी नहीं कर सकता है क्योंकि फीस ही कई गुणा बढ़ा दी गई हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय की फीस भी बढ़ा दी गई है। आयुष के छात्र धरने पर हैं। एमबीबीएस की फीस चार लाख सालाना कर दी गई है, जो कि पूरे देश में सर्वाधिक फीस है। ऐसे में राज्य सरकार की खुशी का औचित्य समझ में नहीं आता है? त्रिवेंद्र सरकार के पास पिछले तीन वर्ष के दौरान गिनाने के लिए अधिक उपलब्धियां नहीं हैं। इन्वेस्टर्स समिट अच्छा प्रयास था और सरकार को आशातीत सफलता भी मिली।समिट के दौरान सवा लाख करोड़ रुपये के करार भी हुए लेकिन इनमें से दस प्रतिशत भी धरातल पर नहीं उतरे, क्योंकि हम न तो उद्यमियों को बुनियादी सुविधाएं देना तो दूर उन्हें जमीन भी मुहैया नहीं करा सके। पूर्व सैनिक भी सरकार से खुश नहीं हैं, कैंटीन में सरकार पूर्व सैनिकों से वैट वसूल रहे हैं। कैंटीन से बाहर हिलटॉप जैसी शराब की फैक्ट्रियां खल रही हैं।


युवा पीढ़ी तेजी से नशे की चपेट में आ गयी है उनकी मां अपने बच्चों को नशे में देख खुन के आंसूरो रही है। तो इस बात की खुशी मनाना कहां तक उचित है। पलायन रोकने के लिए आयोग भी गठित किया गया, लेकिन इस पर काम कहां हुआ? जो रिपोर्ट आई भी उस पर काम नहीं हुआ? खुद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के गांव खैरासैंण में भी आधे से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं। सीएम के गांव के स्कूल में शिक्षकों की कमी है और पुस्तक भी नहीं हैं। सीएम सतपुली के जिस कालेज में पढ़े वहां के हाल बुरे हैं। ऐसे में जब पहाड़ के विकास की अवधारणा नये राज्य गठन के लिए थी वो सपने तो पूरे हुए ही नहीं, तो खशी किस बात की। स्वास्थ्य सुविधाओं का हाललोगों से छिपा नहीं है। सड़क और जंगल में प्रसव हो रहे हैं और इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी की बात फेल साबित हो रही है। कोई सुनवाई नहीं है और न ही कोताही करने वाले डाक्टरों पर कोई कार्रवाई होती है। प्रदेश सरकार शराब को राजस्व का मुख्य स्रोत मान रही है।


यही कारण है कि पिछले तीन साल में देहरादून और हरिद्वार जिले में जहरीली शराब से 50 से भी अधिक मौत होहो गयी, लेकिन अब तक किसीको सजानही हई। जीरो टोलरेंससरकार के दावे की हकीकत यह है कि तीन साल से अब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा नहीं। पेयजल निगम में नमामि गंगे के 700 करोड़ का घोटाला सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है।