आपदाएं और उत्तराखण्ड

आपदाएं और उत्तराखण्ड 


रविन्द्र कुमार जलवायु एवं पर्यावरण की विविधता लिए हुए उत्तराखण्ड एक विशिष्ट राज्य के रूप प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों से प्राकृतिक आपदाएं विभिन्न पौराणिक देव-स्थानों छोटे-छोटे प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर स्थलों को प्रभावित कर रही हैं। तूफान, वनाग्नि, बादल फटना, त्वरित बाढ, वर्षा आदि से प्राकृतिक संसाधनों एवं मानव निर्मित सुविधाओं का विच्छेदन हो रहा है।


क्षेत्र की विशिष्ट जलवायु केकारण यहाँ बाढ़, भूस्खलन, बादलों का फटना तथा वनाग्नि जैसी घटनाएँ निरंतर घटित होती रहती हैंविशिष्ट भौगोलिक संरचना के कारण भी यह राज्य अति संवेदनशील क्षेत्रों की श्रेणी में आता हैइस क्षेत्र में लगातार भूगर्भीय हलचलें भी महसूस की जाती रही हैं देव-भूमि के नाम से प्रसिद्ध उत्तराखण्ड आज तमाम तरह की आपदाओं से घिर गया हैपहले उत्तराखण्ड के नाम से देशी-विदेशी पर्यटकों के बीच प्राकृतिक खूबसूरती को लेकर एक ललक पैदा होती थी लेकिन आज परिस्थितियाँ बिल्कुल विपरीत हैं। मानव आपदाओं से भयग्रस्त है। आपदा दो प्रकार की होती है:


1) प्राकृतिक


2) मानव-जनित


प्राकृतिक आपदाएँ प्राकृतिक कारणों से घटित होती हैं। इसमें मानवीय हस्तक्षेपों का प्रभाव नगण्य होता है। प्राकृतिक आपदायें जल और वायु से संबंधित हो सकती हैं। वायु से सम्बन्धित आपदाओं में तूफान, चक्रवात, आँधी आना जैसी घटनाएं सम्मिलित हैं। जल-संबंधी आपदायें जैसे-बादल फटना, त्वरित बाढ़, अत्यधिक वर्षा, सूखा एवं अकाल की स्थिति आने पर होती हैं। इसके अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक आपदाओं जैसे–भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन, वनाग्नि आदि से पर्वतीय क्षेत्रों में जीवन की परिस्थितियाँ दुरूह हुई हैं। 


मानव-जनित आपदायें मनुष्य के अविवेकपूर्ण व्यवहार से उपजती हैं। विज्ञान की सहायता से मानव तमाम उपकरणों जैसे-रेफ्रीजरेटर, एयर कंडीशनर आदि का प्रयोग करता है। ये सभी सुविधाएं मानव-जनित आपदाओं का आधार है। खनन की वजह से चट्टानों का खिसकना हो अथवा भू-स्खलन, मृदा का अपरदन, वनों का अन्धाधुन्ध कटान हो अथवा पर्वतीय जंगलों में अग्नि, ये सभी घटनाएं पर्यावरण को हानि पहुँचाती हैं। आपदा कभी भी, किसी भी समय आ सकती है। यदि समाज प्राकृतिक एवं मानवीय आपदाओं से निपटने के लिए तैयार ना हो तो अवश्य ही जन-धन की हानि होती है। 


उत्तराखण्ड में घटित आपदाओं का उल्लेख एक क्रमबद्ध श्रृंखला में नहीं किया जा सकता क्योंकि अनेक गाँव वर्षों से लगातार प्राकृतिक आपदाओं का प्रभाव झेलते रहे हैं। जैसे-सैकड़ों गाँव भूस्खलन से प्रभावित रहते हैं-दशकों तक । तथापि वर्ष 1998 में मालपा में भूस्खलन (जिसमें 261 तीर्थयात्री काल कलवित हो गए), वर्ष 1991 में उत्तरकाशी, 1999 में जनपद चमोली में भूकम्प, सन् 1998 में ऊखीमठ क्षेत्र में भूस्खलन आदि की घटनाएं जन-धन की हानि की प्रमुख वजहें रही हैं।


16-17 जून 2013 को केदारनाथ, बद्रीनाथ एवं मुनस्यारी क्षेत्रों में घटित आपदा ने उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि देश की एक बड़ी तबाही का रूप ले लिया। इस तबाही में हजारों मनुष्य, घोड़े-खच्चर एवं अन्य जीव-जंतु मारे गये। साथ ही, धन-संपदा की अपार हानि हुई।


राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर बहस हुई कि यह आपदा प्राकृतिक थी या मानव-जनित इस बहस से थोड़ा अलग हटकर स्थानीय ग्रामवासियों की हालत देखें तो पता चलता है कि उत्तराखण्ड में सैकड़ों घर-बार उजड़ गये । खेती की जमीन, गाँवों तक पहुँचने के मार्ग, मकान–आँगन आदि सम्पत्ति और संसाधन आपदा की चपेट में आ गये । ग्रामवासियों को अत्यंत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। इस तबाही के घाव अभी भी हरे हैं।


आपदा के संदर्भ में उत्तराखण्ड राज्य को तैयार रहने की आवश्यकता हैढ़ीले-ढाले सरकारी रवैये से आपदा की मार को नहीं झेला जा सकतासावधानी व मुस्तैदी से इस विषय पर काम हो तो भविष्य में जन-धन की हानि को रोका जा सकता है।