आरक्षण भी नहीं पाट पाया असमानता

|| आरक्षण भी नहीं पाट पाया असमानता ||


पहले उच्च न्यायालय इलाहबाद तथा सर्वोच्च न्यायालय तक आरक्षण बावत चुनौति दी गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपने 2006 के निर्णयों में धारा 3(7) का कोई जिक्र तक नहीं किया था। लिहाजा इसी को आधार मानते हुए 10 जुलाई 2012 को उच्च न्यायालय नैनीताल ने विनोद प्रकाश नौटियाल की याचिका पर राज्य सरकार को यह निर्देश दिये कि आरक्षण अधिनियम 1994 की धारा 3(7) को निरस्त किया जाता है। इस आशय से कि उक्त धारा मौजूदा उप्र के दौरान से ही राज्य में लागू थी अर्थात वर्तमान में राज्य में ऐसी कोई धारा प्रभावी नहीं है। इन निर्णयों के आने के बाद राज्य में हालात जाति व भेद में बंटते हुए दिखाई दे रहे हैं। मौजूदा हालातो की नजाकत यूं बयां कर रही है कि जो परिस्थितियां 1994 में आरक्षण के विरोध में पृथक राज्य आन्दोलन को हौव्वा दे बैठा वह स्थितियां दुबारा नजर आ रही है। जबकि उच्च न्यायालय नैनीताल ने अपने फैसले में यह भी टिप्पणी दी है कि यदि राज्य सरकार संविधान की भावना और एम नागराजा के मामले में दिये गये सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यदि कोई नियम लाती है तो यह फैसला उसमें कोई बाधा नहीं बनेगा।


दरअसल संविधान संसोधन 1995 से लेकर 2001 के दौरान हुए 77वां, 81वां, 82वां, 85वां संसोधन में मूल संविधान की धारा 16 में 16(4क) जोड़कर यह स्पष्ट रूप में कहा गया था कि राज्यों को यह शक्ति दी गयी कि वह अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा पीछड़ी जातियों के पक्ष में (राज्य की सेवाओं में परिणामी श्रेष्ठता सहित प्रोन्नती के मामलो में) आरक्षण का प्राविधान कर सकता है। कुलमिलाकर आरक्षण के बावत हुए पांच बार के संविधान संसोधन में यह कहीं भी नहीं लिखा अथवा बताया गया कि पदोन्नती व पद सृजन में अरक्षण खत्म किया जावें। जबकि इन संसोधनो और न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से यह बात उभर कर आयी कि सभी संविधान संसोधन अधिनियमो को संवैधानिक रूप से विधिमान्य ठहराया जाता है।


अब सवाल यह खड़ा हो रहा है कि यदि सभी वर्गो की समुचित भागीदारी से जाति व्यवस्था मजबूत होती है तो क्या एक बाहुल्य वर्ग के वर्चस्व से यह नष्ट होती है। क्या अलग-अलग जातियों की समुचित भागीदारी को कंफैडरेशन कहा जायेगा। यदि इसी को पलटकर देखा जाये तो निम्न वर्ग समूह के लोग यह महसूस कर रहे हैं कि इस देश के लोक जीवन में प्रचलित वर्चस्व वाली व्यवस्था ही सवर्ण साम्राज्यवादी ही है।


आज भी अधिकांश जगह विद्यालयो में बच्चे आरक्षित भोजन माता द्वारा बनाया गया भोजन नहीं खाते तो, वहीं आज भी इक्कसवीं सदी में भगवान के दरबार में एक जाती विशेष के लिए प्रवेश वर्जित है। मैला ढोना, बंधुवा मजदूरी तथा राज्यो मे भूमिहीन की सर्वाधिक शिकायते निम्न वर्ग की आज भी मौजूद है। लोक जीवन व लोक नियोजन में जब असमानता की शिकायते बरकरार रहेगी तो इस लोकतांत्रिक देश में आरक्षण की व्यवस्था भी बनी रहेगी। 


राज्य सरकार 85वां संविधान संसोधन के अनुच्छेद 16 (4क) के अनुरूप राज्य की सेवाओं में आरक्षण की व्यवस्था कर सकता है। अब देखना यह है कि वर्चस्व वाली व्यवस्था का असर परवान चढेगा या सामाजिक असमानता के लिए नीति-नियन्ता कोई कारगर कदम उठाते है।


सन् 2006 में एम नागराजा बनाम भारत संघ के मामले मे सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि अपर्याप्त प्रतिनिधित्व पिछड़ापन और प्रशासनिक दक्षता के विषय में पिछड़ रहे लोगो के लिए राज्य/संघ संविधान सम्मत व्यवस्था करें। इसलिए आज भी इन विषयों बावत न्यायिक पुनर्विचार याचिका का रास्ता खुला हुआ है।