अब और शान से नाचेंगे बाराती

अब और शान से नाचेंगे बाराती


बारातियों को अब कछ घिसी- पिट बीट पर नहीं बल्कि नयी धुन पर नाचना होगा।  प्रदर्शन करने और दिल को भाडास निकालने के खास अवसर हाथ लगी ढोल -दमाऊं और मशक को गए जमाने का वायस मानकर बैठे थे सो अब नहीं होगा। 


इसके साथ नाल्याने मंडप मदमस करने वाले बाराती अब शाम टमाट वाटको मन-मई पाना पाक व ल अपनी शान माचरना ना या मालिककी पयात भी करनी पड़ेगी। देवाभाय उनार का पारंपरिक सादा डाल टमाळ पाच दशक से पुर्व पहाड़ा बाराता धार्मिक अनुष्ठानों और सनिक कार्यक्रमों का आवश्यक अंग समता जाता था. 


पांच दशक में बैंड पार के पारंपरिक वाद्य दाल-दमाऊ नगाहा भयोग, रणसिंगा, विणाई. मिणा मोगलगोगा, शोक, मशकमाजा, भाणा कमाल व घंटी के बीच दखल देकर न केवल अपनी पहचान बनाई अपित बारातों में सेंध लगाकर ढोल-दमाऊं के सुनहरे संसार का उजाइन में भी कामयाबी मिली। पहाद की दवाय संस्कृति के वाहक समझे जाने वाले दोल-दमाऊं और मशक के पैर धार्मिक मान्कृतिक कार्यक्रमों में तो जम के तम जम र ति बारातों में इनके पर कनीन की जमीन के दरकने का जो मिसिला शम हुआ था, वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा है।


बारातों में दिन डालकर नाचन वाला का बह का दिन वालका नाचने वालों को बंड की कानों में भड़काक धुनों में न जाने क्या शुकून मिला जाने ज्या शुक्रन मिला कि हाल-दमाऊ व मराज की लुभावनी धनोंवताला पर विरकना अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। किंतु बोल-दमाऊ पर गाज गिराकर वैभवका संसार लूटने वाले बंड के दिन भी अब फिरते नजर आने लगे हैं। ढोल-दमाऊ उजड़े संसार को पुनः आबाद करने के लिए कृतसंकल्प, पाश्चात्य रंगमंच से शरूआत कर उत्तराखंड के लोक रंगमंच के संपूर्ण अवयवां पर शोध व प्रयोग कर रह गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर के उपाचार्य डा. डी.आर. पुरोहित ने अपने निर्देशन में देहरादून की रोच' (कारल) इन्त्रप्रिन्योरशिप फार आट एण्ड कल्चरण हारटज) संस्था की एक माह का कायशाला आयाजित कर गढ़वाल क. सुप्रसिद्ध लाकगायक नरन्द्र सिंह नगी का सहभागिता स'ढाल-आकस्ट्रा' का एक एक नई प्रस्तुति तयार का है, आर वह दिन प्रस्तुत दूर नहीं जब न केवल उत्तराखड अपितु पूर आय'को देश की बारातों में इस 'ढोल-आर्केस्ट्रा' को मधुर धुना पर थिरकन क लिए वारातिया में यों में होड मची नजर आयेगी।


डा. पुरोहित से प्रेरणा लेकर भुवनेश्वरी महिला आश्रम अंजनीसैंण जनपद टिहरी गढवाल ने कई ढोल-बैंड' मास्टरों को आर्थिक सहायता प्रदान कर दी है। जिसका ताजा उदाहरण सोहनलाल का 'ढोल-बैंड' है जो जनपद टिहरी-गढ़वाल में धूम मचाए हुए है। ढाल वादकों की स्थिति को सुधारने एवं दाल-बंड के प्रात्साहन के लिए अभिनव प्रयाग करन वाल डा. पुरोहित अब तक दिला म2, नाताल में 1, अजनासेण में 1, लखनऊ म 1,दहरादन म 10, व अगस्तमुनि म1, ढाल-दमाऊ पर एक वृत्तचित्र बनान क साथ उन्हान हाल का उजड़ा विद्या का पंवारने के लिए विश्वविद्यालय परिसर संवा श्रीनगर में एक हाल-आर्केस्टा व श्रीनगर श्रीनगर में एक दोल-आर्केस्ट्रा व श्रीनगर शहर में एक व्यावसायिक दाल-यड की स्थापना की है। वस्तुतः दोल के विषय में आम आदमी का ज्ञान सीमित होने से इसकी चोर उपेक्षा हुई है। ढोल की व्यापकता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि ढाल-सागर जैसा वृहद्ध गन्थ भी इसकी पूरी विद्या का समंटने में पूर्ण रूप से सक्षम नहीं हो पाया है।


इस ग्रंथ में दस स्वरों व तेईस व्यजनों की सहायता से होल के तीन सी से अधिक तालों की रचना की गई है। उत्तराखंड के सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य एवं सिद्धसाधक देवप्रयाग निवासी भास्कर जोशी आज भादालको ताल बजाकर प्रतिदिन दी घट सरस्वती साधना करते हैं। बकौल डा. परोहित ढोल की नाले मन को ध्यान, धारणा व समाधि की ओर ले जाकर व समाधि की ओर ले जाकर उसके असीम शांति प्रदान करती हैं जब कि बैंड की. भड़कल धुनें कामुकता का ज्वार पैदा कर मन को अशांत बना देती है। बैंड के दीवानों के लिए न्यू इंग्लैण्ड यूनिवर्सिटी आस्ट्रेलिया कं संगीत के प्रोफेसर तथा ढोल मेंपी.एच.डी. प्राप्त एन्द्रोआर्टर की यह सलाह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जिस बैंड के साथ नाचने में पहाडवासी अपने को आधनिक समझते है. वह वंड किसी भी दृष्टिकोण से पाश्चात्य बैंड नहीं है।


हां वह बिजनौर और भागडा के बाल से अवश्य मेल खाता है। लांग आगर नाचना ही चाहते हैं तो मारछा. तोला. जोहारी. व्यासी और चौदासी संस्कृति से सबक लेकर नाचना चाहिए, जहां लोग अनुशासित होकर हाल और तलवार के साथ नृत्य करते हैं।