||अब देखनेभर के लिए रह गये हैं घराट||
ना कोई जनरेटर, ना कोई कंरट, ना ही टनल, ना कोई डीपीआर, ना ब्लास्ट और ना ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, बल्कि प्राकृतिक संसाधनो के लिए संरक्षण कार्यो के साथ-साथ एक ऐसी मशीन का अविष्कार है जो सिर्फ पानी से चलती है और लोगो को स्वावलम्बी बनाती थी, लोगो में परस्परता को बढावा देती थी, पहाड़ की घराट नाम की यह मशीन।
अब इतने नजर नहीं आते हैं घराट! फिर भी जब आप उत्तराखण्ड राज्य के पहाड़ी गांव की तरफ जा रहें होंगे तो किसी नदी व नाले पर घराट/पनचक्की ;ॅंजमत डपससद्ध दिखायी देंगे। भले ये घराट बंजर नजर जरूर आ रहें हों, परन्तु यह एक ऐसा लोक विज्ञान था, जिसे लोग अपने ही आस-पास के प्राकृतिक संसाधनो से बनाते थे और अनाज पिसाई के सारे काम इस घराट के बिना असंभव थे। परस्परता इतनी थी कि अनाज पिसाई के बदले घराट मालिक को थोड़ा सा अनाज दिया जाता था। घराट बिन पानी नहीं चल सकता था, तो लोग जल संरक्षण के भी उपादान करते थे। फलस्वरूप इसके घराट तक लाया जाने वाला पानी भी निरन्तर अपने आगोश में बहता रहता था।
देश के अन्य भागों में लोगो को घराट शब्द अपरिचित हो परन्तु उत्तराखण्ड के पहाड़ी लोगो को इससे गहरा संबध है। घराट न केवल स्थानीय रोजगार का साधन है, बल्कि पहाड़ी लोक जीवन और परम्पराओं से भी कहीं गहरे तक जुड़ा है। घराट वास्तव में अनाज पिसाई की पुरानी चक्की का नाम है, जो सिर्फ पानी के बहाव से ही चलती है। पानी का बहाव जितना तेज होगा चक्की उतनी ही तीव्र गति से घूमती है। नदी अथवा नालो से चक्की तक पानी गूल की सहायता से लाया जाता है। इस तरह घराट चलाने वाली गूल से सिंचाई व पेयजल इत्यादि के कामों में भी लाया जाता है। यह भी खास है कि घराट उसी नदी नाले के किनारे पर बनाया जाता है जहां पानी वर्षभर रहता है। घराट ऐसी लोक तकनिकी है जो पानी से ही चालित होती है। घराट का ताना-बाना प्राकृतिक संसाधनों से विकसित किया जाता है।
हालांकि घराट बाहर से देखने में कोई झोपड़ीनुमा ही लगता है। इसकी दिवारे मिट्टी व पत्थरो तथा छत भी पत्थरों एंव टीन से बनी होती है। मगर इसके भीतर की दुनियां बड़ी ही निराली होती है। भीतर पांच फुट गहरा गड्ढा होता है, जिसके ऊपर की तरफ तली व पत्थर का गोल पहिया स्थापित होता है। इसकी तली स्थिर होती है, पर इसके नीचे लगी पुली पानी के बहाव से घूमती है। पानी का बेग घटाना व बढाने के लिए गूल पर मुंगरे का स्तेमाल किया जाता है। पानी घराट के निचले हिस्से में लगी पुली पर डाला जाता है। ऊंचाई से पानी गिरने से पुली घूमने लगती है और पुली के घूमने से घराट के भीतर स्थित आटा पिसने वाला गोल पत्थर 'वट' (पत्थर का चक्का) भी घूमने लगता है। वट के ऊपर गोल व तिकोने आकार का बांस या लकड़ी से बना डिब्बा लगा रहता है। जिसे स्थानीय भाषा में 'ओडली' कहा जाता है। इस डिब्बे में पीसने वाला अनाज डाला जाता है। ओडली के नीचे एक छोटा सा लकड़ी का डंडा लगा रहता है। जो बार-बार वट को छूता रहता है। इसकी सहायता से अनाज के दाने ओडली से धीरे-धीरे वट के मध्य गिरते हैं और इनकी इस तरह पिसाई होती है।
घराट पर संकट
मौजूदा समय बाजार में आटे की थैलियां उपलब्ध होने और गांवों में भी बिजली, डिजल चालित चक्किया स्थापित होने से घराटो के अस्तित्व पर संकट मंडराने लग गया है। इतनाभर ही नही सरकारों की उदासीनता के कारण इस तरह की सस्ती और परम्परागत जैसी तकनिकी समाप्त होती जा रही है। जबकि राज्य बनने के दो वर्ष बाद सरकार ने घराट के नवीनीकरण बावत बाकायदा ''उतरा विकास समिति'' का गठन किया था। यह समिति घराटों का अध्ययन करेगी और साथ ही साथ घराट को विद्यृत उत्पादन के लिए विकसित करना समिति का प्रमुख कार्य था। समिति ने तत्काल घराटो का सर्वेक्षण कर दिया और इसके बाद से यह समिति सिर्फ व सिर्फ कागजो की धूल चाटती रह गयी।
विद्युत उत्पादन का भी यन्त्र है घराट
अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण के मुताबिक एक घराट से पांच से पन्द्रह किलोवाट बिजली पैदा की जा सकती है। सरकार के आंकड़े गवाह है कि राज्य में अभी भी लगभग 22 हजार घराट मौजूद है। यदि उरेडा की तकनिकी पर गौर फरमाये तो इन पनचक्कीयों से लगभग एक हजार मेगावाट से लेकर तीन हजार मेगावाट तक की बिजली उत्पादित की जा सकती है। अकेल उत्तरकाशी जनपद में 2075 घराट मौजूद है। इनमें से मात्र 35 घराटों का उच्चीकरण करवाया जा रहा है, जिनमें 25 इलैक्ट्रिीकल घराट है। बता दें कि इलैक्ट्रिीकल घराट के लिए डेढ लाख और मैकनिकल घराट के लिए 50 हजार रू॰ की अनुदान की धनराशी सरकार द्वारा दी जाती है। उत्तरकाशी में उरेडा के परियोजना अधिकारी मनोज कुमार का कहना है कि घराट को विकसित करने के लिए सरकार 90 फीसदी अनुदान देती है। लोग अनुदान का फयदा उठाकर बहुद्देशीय घराट चलाये तो यह कमाई का अच्छा जरिया बन सकता है।
पहले भी घराट से हो चुका है विद्युत उत्पादन
80 के दशक में लोक जीवन विकास भारती बूढा केदारनाथ, दशोली ग्राम स्वराज मण्डल चमोली और बाद में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान उत्तरकाशी, हेस्को संस्था देहरादून ने भी अपने-अपने कार्य क्षेत्र में घराट पद्धति को विद्युत उत्पादन के लिए विकसित किया है, जो आज बहुपयोगी है। बता दें कि रामदेव भी इन्ही घराटो से पीसे हुए अनाज को ही बाजार में उपलब्ध करवा रहा है।