अलकनन्दा

||अलकनन्दा||


गढ़वाल क्षेत्र की सबसे बड़ी जल प्रवाहक नदी अलकनन्दा हैइसमें नीती घाटी का जल समेटने वाली धौली, दशौली नन्दाक क्षेत्र का जल लाने वाली पाताल गंगा, विरही और नन्दाकिनी, बधाण क्षेत्र का जल लाने वाली पिंडर (कर्णगंगा), केदारघाटी का जल समेटने वाली मन्दाकिनी आदि नदियों की प्रचुर जल राशि समाहित है। इन नदियों में उनकी कई छोटी-बड़ी अन्य सहायक जल धारायें भी मिलती हैं।


बदरीनाथ के निकट सतोपंथ झील (समुद्रतल से 4330 मीटर) वर्ष के छह माह बर्फ से ढकी रहती है। बरसात के दिनों में इसका नीला, निर्मल जल 2 किमी० के घेरे में फैला हुआ दिखाई देने लगता हैइस झील का उत्तरी भाग धार्मिक ग्रन्थों में अलका हिमनद के नाम से जाना जाता है। इस झील के चारों ओर खड़े पहाड़ों में कई प्राकृतिक गुफायें हैंझील के किनारे-किनारे पत्थरों की स्लेटें ऐसी फैली मिलती हैं, मानों तराशे हुए पत्थर बिछाये गये हों। अपने इन्हीं दुर्लभ दृश्यों के कारण इसके आस-पास ही अलकापुरी/स्वर्गनगरी होने की बात पुराणों में कही गई है। अलकापुरी के अधिष्ठाता देवता कुबेर हैं।


जिसे बदरीनाथ का धनरक्षक माना जाता है। कुबेर की मूर्ति बदरीनाथ के साथ मन्दिर में पूजी जाती है। शीतकाल में छह माह के लिए जब बदरीविशाल के कपाट बन्द हो जाते हैं, तो मान्यता है कि कुबेर ही अपने अनुचर यक्षगणों सहित बदरीनाथ नगरी की रक्षा और देवताओं की पूजा करते हैं।


इसी से मिला हुआ भगत-खरक नाम का हिमनद भी है। अलकनन्दा इसी भगत-खरक तथा सतोपंथ से निकलने वाली प्रारम्भिक दो जलधाराओं से मिलकर बनती है। अलकाबांक से निकलने वाली धारा में अधिक जल होने से नदी को अलकनन्दा नाम दिया गया है। आस्थावानों ने विष्णुतीर्थ बदरीनाथ के नाम पर शिखर को बदरीनाथ तथा अलका जलधारा को विष्णु गंगा नाम प्रदान किया है।


बदरीनाथ, नीलकंठ पर्वत तथा चौखम्बा हिमशिखर के बायीं ओर स्थित है। इसके बायें ढाल से अलकनन्दा निकलती है। नीलकंठ पर्वत चौखम्बा हिमशिखर की श्रृंखला से जुड़ा है। नीलकंठ के ठीक नीचे बदरीनाथ तीर्थ है। अमरत्व प्राप्त करने की आकांक्षा से जो व्यक्ति स्वर्ग की सीढ़ियों पर चढ़ने की लालसा लिए जिस हिमनद में समाते थे, वह स्वर्गारोहणी भी इसी क्षेत्र में है। मान्यताओं के अनुसार पाण्डव भी इसी रास्ते से स्वर्ग को गये थे। बदरीनाथ से स्वर्गारोहणी को जाने वाला मार्ग 'सत्यपथ' कहलाता है।


'अलक' शब्द संस्कृत में धुंघराले बालों का अर्थ देता है और नन्दा शब्द का अर्थ पुत्री तथा सम्पन्नता होता हैअतः स्वाभाविक अर्थ बनता है कि अलकनन्दा हिमालय की अनेक चोटियों के जटामय स्वरूप से टपकती जलधाराओं से बनी हैधार्मिक आस्था ने इस विशाल जटामयी स्वरूप को शिव अर्थात् कल्याणकारी देवता माना है, जिसकी एक जटा वल्लरी से अलकनन्दा तो दूसरी जटा वल्लरी से भागीरथी निकली। अलकनन्दा का अर्थ चारों ओर का जल समेटने वाली नदी के रूप में जाना जाता है।


पौराणिक कथनों में आश्चर्यजनक रूप से कुछ तथ्य सामने आते हैं जैसे-विश्व के सप्त महाद्वीपों के मध्य में एक जम्बू द्वीप है, उसके मध्य में मेरु पर्वत है। भूगोलविद् जिसे अब पामीर पर्वत मानते हैं। इससे चार बड़ी नदियां निकलती हैं, वक्षु, सीता, भद्रसोमा और अलकनन्दा। ये नदियां क्रमशः पश्चिम, पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा को बहती हैं। प्रसिद्ध भूगोलविद् मुजफ्फर अली ने वंक्षु की पहचान आक्सस अर्थात् आमू दरिया, तारिमयारकन्द की पहचान सीता से और सरदरिया या जक्सर टीज की पहचान भद्रसोमा से की है (मुजफ्फर अली-द ज्यॉग्रफी ऑफ पुराण)अब यह चौथी दक्षिण वाली नदी अलकनन्दा ही है। यहां पर एक और बात की ओर ध्यान जाता है कि सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने पामीर को शुंगलिंग नाम देते हुए उससे पूर्व को बहने वाली नदी का नाम सितो (सीता) लिखा था।


जैन-बौद्ध धर्म ग्रन्थों के विवरणों में अलकमन्दा और अलकनन्दा दोनों नामों का उल्लेख मिलता है। हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ महाभारत में नर-नारायण आश्रम (बदरीनाथ) के निकट की गंगा का नाम भागीरथी बताया है "नर-नारायण स्थान भागीरथ्योपशोभितम्' (वनपर्व 145-41) उधर विष्णु पुराण (2-2-35) बताता है "नथैवालकम नंदापि दक्षिणे नैत्य भारतम" यानि अलकनन्दा और नंदा (नंदाकिनी) का संगम अलकनन्दा के दक्षिण दिशा में बहने पर होता है।


इस प्रकार शिव की जटा अर्थात् अलक से प्रवाहित नदी अलकनन्दा को भागीरथी के साथ-साथ प्राचीन काल से ही गंगा की प्रमुख धारा माना गया है। इसी कारण कालिदास ने अलकापुरी को गंगा की गोद में माना है। प्राचीन ग्रंथ बुद्धचरित में अलकावती नगरी और वहां के निवासियों का उल्लेख आया है।


दो प्रारम्भिक जलधाराओं से बनी अलकनन्दा अथवा विष्णु गंगा में तीन और जल धाराओं का आगे चलकर संगम होता है। इनमें एक धारा सत्यपथी दक्षिणी ढलान से आकर मिलती है, तो दूसरी पावनधारा पश्चिमी ढलान से और तीसरी सुपौऊ उत्तर पश्चिम हिमनद से आती है। वसुधारा माणा के ऊपरी भाग में अलकनन्दा से मिलती है। इसके बाद इसमें माणा गांव में सरस्वती नदी मिलती है।


बदरीनाथ मन्दिर से आगे कुछ दूरी पर अलकनन्दा में ऋषि गंगा मिलती है जिसके बायें तट पर प्रसिद्ध शेषनेत्र तथा पादुका तीर्थ हैदेवदेखनी (देव दर्शनी) स्थान के पास अलकनन्दा में मिलने वाली जल धारा कंचन गंगा कहलाती है। इसके बाद अलकनन्दा हनुमान चट्टी में क्षीर गंगा, घृत गंगा के जल को समेटकर आगे की ओर प्रवाहित होती है। क्षीर गंगा का उद्गम नीलकंठ पर पसरे हिमनद से हुआ हैपाण्डुकेश्वर के पास अलकनन्दा में फूलों की घाटी से बहकर आने वाली पुष्पावती (हेम गंगा) नदी मिलती है।


अलकनन्दा जलधारा के उत्तर-पूर्व दिशा में लगभग 66 मीटर ऊँचा एक प्रपात है जिसे वसुधारा कहते हैं। वस्तुतः यह दो धाराओं वाला जलप्रपात है जो इतनी सीधी खड़ी चट्टानों से गिरता है कि उसका प्रवाह वर्षा बंदों या फुहारों के समान दिखाई देता हैएकटक गिरते जलप्रवाह को निहारने पर तो लगता है कि एक क्षण के लिए यह जलप्रवाह रुक गया है या हिमशीतलता से जड़वत हा गया हैपहले यह विश्वास था कि यदि किसी को यह प्रपात थमा सा, जमा सा, प्रवाहहीन दिखाई दे तो अनिष्ट की आशंका हो जाती थी। कहते हैं कि गढ़वाल श्रीनगर राजवंश के राजा प्रद्युम्नशाह को 1803 ई० में वसुधारा तीर्थ में ऐसा दृश्य दिखाई देने पर मंत्री, सेनापति सहित सबका मुख पीला पड़ गया था। तदुपरान्त 2-3 माह बाद गोरखा आक्रमण से मोर्चा लेते समय राजा खुड़बुड़ा (देहरादून) में युद्ध में मारे गये और गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर पर गोरखों का अधिकार हो गया था।


केदारखण्ड पुराण (अंक 5-62) में वर्णन है कि वसुधारा जल के छींटे पापियों पर पड़ जायें तो उन्हें चतुर्वर्ण की प्राप्ति होती हैशायद इसीलिए यात्री अपने पाप मुक्ति के लिए यहां पर आकर भीगते हैं और सुफल कामना करते हैं।


पर्यटक, भूगोलविद् तथा धार्मिक आस्था वाले व्यक्ति सरस्वती नदी पर स्थित भीमपुल के बारे में अपनी-अपनी दृष्टि से व्याख्या करते हैं। स्थानीय लोग इसके निकट की भूमि पर अंत्येष्टि अवशेषों को सतोपंथ झील में डालने से पहले रखते हैंलोगों में मान्यता है कि इस पुल को पांडु पुत्र भीम ने बनाया था। भीम का अर्थ विशालकाय भी होता है। 1808 ई० में कै० रीपर ने 'सर्वे ऑफ द गंगेज' के एक लेख में लिखा है कि '4 मीटर चौड़ाई और 2 मीटर मोटाई वाली यह चट्टान इस कदर वेगवती सरस्वती के तटों के ऊपर पुल समान फैली है मानों इसे किसी ने वहां पर उठाकर रख दिया हो।'


बदरीनाथ घाटी के अद्भुत नैसर्गिक सौन्दर्य और उसमें स्थित तप्तकुण्ड ने इस क्षेत्र को तीर्थ स्थान बनाने में अपूर्व योगदान दिया हैअलकनन्दा यहां पर कई भँवर बनाती है जिन्हें आस्था से लोग पंचकुण्ड, नारदकुण्ड एवं सूर्यकुण्ड जैसे नाम देते हैं। अलकनन्दा के दायें तट पर बदरीनाथ जी का मंदिर और कई शिलायें हैं। जिन्हें गरुड़ शिला, नारद शिला, वाराह शिला, नृसिंह शिला, मार्कण्डेय शिला आदि नाम दिए गए हैं।


बदरीनाथ तीर्थ में माणा गिरिद्वार का भी महत्व है। तिब्बत को खुलने वाले दर्रे का मूल नाम दुनग्रीला था, जहां से तिब्बत के थोलिंगमठ के प्राचीन आदिबदरी मंदिर के लिए यात्रीगण जाते थेबदरीनाथ के कपाट खुलने पर थोलिंगमठ से भेंट पूजा का आदान-प्रदान होता था। माणा की कुमारिकायें बदरीनाथ के लिए शीत ऋतु हेतु "बिनाकामल/घृत कम्बल'' बुनती हैं। माणावासी आज भी प्राचीन तिब्बती परम्परा में बदरीनाथ को नामलू नाम देते हैं तथा प्रसाद की प्राप्ति में हकदारी रखते हुए मातामूर्ति महोत्सव में विशेष सहभागिता करते हैं। उल्लेखनीय है कि माणा को तिब्बतवासी 'डंग' और माणा वासियों को "डुंग्री रोंगपा'' कहते थे।


अनेक जलधाराओं के सम्मिलित जल से युक्त होकर जब अलकनन्दा विष्णुप्रयाग में पहुंचती है तो वहां इसमें इससे भी प्रचुर जल और वेग वाली नदी धौली गंगा मिलती है। परन्तु यह अलकनन्दा नाम से ही आगे बढ़ती है। विष्णुप्रयाग तक अलकनन्दा का प्रवाह मार्ग 48 किमी० है।


 


स्रोत - उतराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री व मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा रचित 'विश्व धरोहर गंगा'