बडे बांधों का हश्र: हानि और लागत अपेक्षा से कई गुना अधिक

|| बडे बांधों का हश्र: हानि और लागत अपेक्षा से कई गुना अधिक||


उत्तराखण्ड और केरल की त्रासदी में बडे बांधों के अ-नियमन का हिस्सा माना जा रहा है। एक बार फिर से देशभर में बांधो को लेकर सवाल खड़े हो गये है। चर्चा इस बात को लेकर के है कि जब बड़े बांधो के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं तो हमारी सरकारे क्यों कुम्भकर्णी नींद में सो रखी है। खैर जो भी हो इतना तो सपष्ट हो चुका है कि मुनाफे में सपेदपोश नेता लिपट चुके है। जिसका सीधा सा जबाव स्वामी सानन्द की मौत को कहा जायेगा।  


ज्ञात हो कि बांधों पर बहस का कार्यक्रम जारी है। पिछले दिनों बांधो को लेकर इन्दौर में हुई बहस तो उतराखण्ड में भी स्वामी सानन्द की मौत के बाद सभी पर्यावरण कार्यकर्ता देहरादून में जमा हुए। सवाल एक ही था कि लाभ कितना और किसका, हानि कितनी और किसकी? इस सवाल का जबाव योजनाकार नहीं दे पा रहे हैं। बहस में शरीक हुए विमल भाई ने गंगा-भागीरथी पर बनाये बांधों को हिमालयीन क्षेत्र में 2013 में आयी अभूत आपदा के लिए दोषी ठहराया और केरल के पर्यावरणविद जीओ जोस ने वहां की बाढ की विपदा भी मात्र बडे बारिश से नही ंतो बांधों के पानी रोकने, सांठा करने, छोडने की व्यवस्था का पूर्ण अभाव से निर्मित बतायी। उन्होने मांग की कि केरल के बाढ की निष्पक्ष उच्च स्तरीय जांच होना चाहिये।


बांध और विकास की अवधारणा पर वरिष्ठ पत्रकार चिन्मय मिश्र का कहना है कि एक ओर धर्म या जाति के सवाल, अस्मिता और आरक्षण पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है लेकिन दूसरी ओर नदी, जंगल और उपजाऊ खेती भी नष्ट हो रही है। इस हालात पर अगर चिंतित नहीं होगा तो आने वाली पीढीयों का भविष्य खत्म हो जाएगा। पर्यावरणविद् व सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर का कहना है कि बांधों के सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक असर को भी न आंकते, न नापते हुए, न जांचते हुए कैसे अ-जनतांत्रिक, अवैज्ञानिक तरीके से आगे धकेला जाता है यह विविध उदाहरणों से उजागर हो रहा है। उन्होने बताया कि नर्मदा पर बने सरदार सरोवर बांध का सिंचाई क्षेत्र, बांध पूरा होने पर भी एक तिहाई भी खरा नहीं उतरा है और बिजली घर पिछले साल से आज तक बंद पडा है। यह कहकर बताया कि कच्छ के नाम पर बने बांध की 21000 कि.मी. लम्बाई की छोटी नहरों का निर्माण नहीं हुआ है, विशेषतः कच्छ में तो अधूरा ही छोड दिया गया है। इधर देवराम कनेरा, कैलाश अवास्या, दिनेश भिलाला ने सरदार सरोवर, जोबट बांध के विस्थापितों की कीमत पर किस तरह उन्हें फसाया गया है वह जगजाहीर है। जबकि होना ऐसा चाहिए था कि लाभों का हिसाब आम लोगांे के सामने रखना जरूरी था। सो नही हो पा रहा है। राजकुमार सिंन्हा बर्गी बांध विस्थापितो के सवाल परबता रहे हैं कि 28 साल बाद भी बर्गी बांध के घोषित लाभ पूरे नहीं हुए है। आज भी मात्रा 70000 हेक्टर में से पूरे प्रस्तावित 43700 हेक्टर सिंचित का विकास ही हो पाया है वह भी आधा अधूरा। मतलब मात्र 16 प्रतिशत कनोल नेटर्वक बनाए गये है। 90 एमडब्यू बिजली बनाने की बात थी वह भी पूरी नहीं हुई। आज बर्गी पूरी तरह से सरदार सरोवर का फीडर बांध बनकर रह गया है। आज उसका पूरा पानी सिंचाई नहीं बल्कि पावर प्लाॅट और अन्य, औद्योगिक परियोजना को दिया जा रहा है।


मंथन अध्ययन केन्द्र के रेहमत भाई अपनी शोध रिपोर्ट अनुसार बताते हैं कि मध्यप्रदेश में सिंचाई के नाम पर झूठ फरेब और भ्रष्टाचार का जाल विद्युत है। सरकारी आंकडे जहां 48-50 प्रतिशत सिंचित योजना की सफलता बनाते है वही जमीन पर हकीकत बिल्कुल उल्टी दिखती है। एमपी के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चैहान ने 2012 में 20 लाख तालाब बनाने का दावा किया था, 20 तालाब प्रत्येक गांव में, पर हकीकत की जमीन आज भी खाली है। छोटी परियोजनाओं में तो फर्जीवाडा और ही बडा है। सिंचाई और जल प्रबंधन के नाम पर सरकार किसानों पर खुशहाली का अहसान थोपती है। बाढ नियंत्रण कर कर्ज का बोझ बढा रही है। लिंक और लिफ्ट परियोजनाएं, तकनीक के नाम पर किसानों और खेती पर निवेश का बोझ ही बढाया जा रहा है।


जलप्रंबधन में बांधो की भूमिका पर वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक राकेश दीवान कहते हैं कि पारंपरागत तरिके से सिंचाई, बिजली और अन्य जरूरते पूरी हो सकती है। दरअसल यह विकल्प नहीं बल्कि मूल है। विकल्प तो सकार ने विकास के नाम पर विध्वंस के प्रतीक बन हमारे सामने खडे किये हुए है। बांध चाहे वह हीराकुंड मारवडा या नर्मदा पर बने हुए हो सभी एक मात्र जीडीपी बढाने के झूठे सरकारी तन्त्र है। कभी भी चोरी डकेती, झूठ, फोरब का विकल्प समाज नहीं दे सकता। विकास के नाम पर बनी यह परियोजनाएं समाज के साथ धोखा ही है। अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के विनीत तिवारी बताते हैं कि इंदिरा सागर बांध ने 140000 हेक्टर्स जमीन को डूबो दिया और दलदली करके 110000 हेक्टर्स जमीन को सिचाई में तब्दिल करके बताया गया। देखा जाय तो बांध बनाने के लिए कितना झूठ बताया गया।


ताज्जुब हो कि जहां जहां बांध बन रहे हैं वहां वहा लोग अपने मांगो को लेकर आन्दोलन के की शक्ल में खड़े दिखाई देते है। मगर सरकारी तन्त्र और बांध निर्माण करने वाली कम्पनीयां मिलकर कभी उन ग्रामीणो के आन्दोलन का कारण जााने के लिए तैयार नहीं होता है। होता यह कि इस संवादहीनता के कारण बांध निर्माण क्षेत्र में एक डरावना माहौल तैयार हो जाता है, तनाव लगातार बढता रहता है और इस बीच बांध बनकर तैयार हो जाता है मगर लोगो की समस्या उसी बांध में दफनाई जाती है। आज भी भाखड़ा नागल बांध के विस्थापित, टिहरी बांध के विस्थापित, नर्मदा बांध के विस्थापित सड़को पर भीख मांगने के लिए बाध्य हो रहे हैं। यही नहीं लाखो परिवार ऐसे है जो इन बड़े बांधो के कारण बेघरबार हुए है। कारण जो भी हो मगर इतना स्पष्ट हुआ है कि बांध पीड़ितो की आवाज को कभी सुना नहीं गया है।


कुलमिलाकर जानकारो का कहना है कि बांध बनाने के लिए वैज्ञानिको की सलाह लेनी आवश्यक है, मगर जहां बांध बनने जा रहा है वहां के लोगो के साथ रायसुमारी, मत-सम्मत जैसे सलाह-मसबिरा करना योजनाकारो को अनिवार्य कर देना चाहिए। अब यह माना जा रहा है कि बांध विस्थापित या प्रभावित या बांध पीड़ितो की योजनाकार और सरकारे नहीं सुनती है। जो इस तकनीक युग में बड़ा सवाल खड़ा करके उभर रहा है। इसके समाधान की ओर सरकारो और नीति-नियन्ताओं को लौटना होगा।