भेदभाव
गरिमा बिष्ट
मैं जिला अल्मोड़ा के चिल गाँव में कक्षा नौ में पढ़ती हूँ। किशोरी संगठन की सदस्य हूँसमाज में व्याप्त भेदभाव के संबंध में लिखना चाहती हूँ। भेदभाव का अर्थ है, आपस में ऊँच-नीच का व्यवहार करना । जैसे, लड़का-लड़की और जाति की भिन्नता के आधार पर अनेक प्रकार के भेदभाव किये जाते हैं। हमारे समाज में लोग लड़का-लड़की को एक समान नहीं मानते । उन्हें लगता है कि लड़की पराया धन है और लड़का अपना है। बचपन से ही लड़की को लड़के से कम हिस्सा दिया जाता है। चाहे वह भोजन के रूप में हो या पहनावा अथवा पढ़ाई के लिए मिलने वाले मौके। गरीब से गरीब परिवार भी लड़का होना जरूरी समझते हैं। यह नहीं समझते कि जितने अधिक बच्चे होंगे, उनके लालन-पालन में उतनी ही अधिक कठिनाइयाँ आयेंगी।
ज्यों-ज्यों बच्चे बड़े होते हैं उनके बीच में भेदभाव भी बढ़ता जाता है। अभिभावक बेटे को महंगे विद्यालय में भेजते हैं और लड़कियों को सरकारी विद्यालय में पढ़ाते हैं। कुछ परिवार लड़कियों की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। उन्हें लगता है कि लड़कियाँ पढ़कर क्या करेंगी? उनकी शादी ही होनी है और उसके बाद वे पराये घर चली जायेंगी। स्कूल में पढ़ने के बजाय उन्हें घर के काम-काज सीख लेने चाहिए। इससे उन्हें ससुराल के काम-काज निपटाने में कठिनाइयाँ नहीं होंगी मैं यह सोच बदलना चाहती हूँ। समाज में हर एक को भेदभाव की सोच मन से निकाल देनी चाहिएअगर लड़के पायलट, चिकित्सक, पुलिस और अध्यापक बन सकते हैं तो लड़कियाँ भी उनसे कम नहीं है। लड़का-लड़की में भेद करना फिजूल है।
इसके अलावा, जातिगत भेदभाव से छुआछूत की भावना बढ़ती है। अक्सर गाँवों में लोग जाति विशेष के साथ भोजन-पानी लेने-देने पर रोक लगाये रखते हैंअगर कोई दलित किसी पंडित के नजदीक या पूजा-स्थल में गलती से भी चला जाये तो हड़कंप मच जाता है। इस व्यवहार को मिटाने की जरूरत है। संसार में सभी मनुष्य एक समान होते हैं। मेरी कक्षा में अनेक दलित लड़कियाँ पढ़ती हैंहम सहेलियाँ आपस में कभी भेदभाव नहीं करतींसभी को एक समान मानती हैं। विद्यालय में सभी एक साथ पढ़ते हैं, साथ बैठते और खाते हैं भेदभाव को जड़ से मिटाना जरूरी है। भेदभाव की वजह से स्त्रियों की उन्नति में बाधाएं आती हैं। महिला आंदोलन की गति धीमी पड़ जाती है।