बिना विज्ञान के बढ रही है प्राकृतिक आपदायें - श्री बल्दिया

|| बिना विज्ञान के बढ रही है प्राकृतिक आपदायें - श्री बल्दिया ||




पिछले दिनों उत्तरभारत में आये भूकम्प के बारे में वरिष्ठ भू-वैज्ञानिक के॰ एस॰ बल्दिया ने दो-टूक कहा कि मध्य हिमालय में नव ढांचागत विकास के बारे में सरकारो को एक बार फिर से सोचना चाहिए। वे कई वर्षो से सरकार को ऐसी प्राकृतिक आपदा के बारे में सचेत कर रहे हैं कि देश का मध्य हिमालय अभी शैशव अवस्था में है। यहां पर बांध, भवन व सड़क जैसे नव निमार्ण को बिना वैज्ञानिक परीक्षण के नहीं होना चाहिए। उन्होने कहा कि सरकार में बैठे जनता के नुमाईन्दे भी अपनी प्रजा की मांग को भूलाकर ऐसी नीति का समर्थन कर देते हैं जो बाद में जन विरोधी हो जाती है।


अच्छा हो कि मध्य हिमालय के परिप्रक्ष्य में ''लोक ज्ञान और विज्ञान'' को विकास के बावत महत्व दिया जाना चाहिए। उत्तराखण्ड में भूकम्प का गढ बनता ही जा रहा है। माना प्राकृतिक आपदाओं ने यहां घर बना लिया हो। प्राकृतिक संसाधन होने के बावजूद भी लोग यहां प्यासे है? ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रकृति व संस्कृति लोगो से मोहभंग हो चली हो जैस सवालो का जबाव उन्होने बेबाकी से दिया है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश-


उत्तराखण्ड में भूकम्प के खतरे बढते ही जा रहे है।
दरअसल यह चिन्तनीय विषय है। अपितु उत्तराखण्ड में ही नहीं भूकम्प जब आयेगा तो वह कहीं पर भी अपना केन्द्र बना सकता है। पिछले 20 वर्षो का आंकड़ा उठा लिजिए, दुनिया में कितने बार भूकम्प आया है। सवाल इस बात का है कि जो क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टी से अतिसंवेदनशील हो, और वहां पर अनियोजित व अवैज्ञानिक तरीके से ढांचागत विकास किया जा रहा हो, वहां पर भूकम्प आने पर सर्वाधिक खतरे बढ जाते है। 08 फरवरी को उत्तर भारत के कई इलाके भूकंप से हिल गए थे। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 5.8 थी। भूकंप का केंद्र रुद्रप्रयाग जनपद के कुण्ड में था। 2015 में नेपाल में आए भूकंप ने करीब नौ हजार लोगों की जान ले ली। 21वीं सदी में भूकंपजनित हादसों में अब तक कुल सात लाख से भी ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। इनमें हैती में 2010 में आया वह भूकंप भी शामिल है जिसने करीब तीन लाख जिंदगियां लील ली थीं।


यानि उत्तराखण्ड में भूकम्प का खतरा बना हुआ है।
निश्चित तौर पर। वैसे भी मैं कई बार बता चुका हूं कि उत्तराखण्ड की अस्थाई राजधानी देहरादून, जोन 4-5 में आती है। वहां भी बहुमंजिली इमारते बेहिसाब से बन रही है। उत्तर भारत खासकर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब के इलाके में अभी और भी शक्तिशाली भूकंप आने की संभावना हर समय बनी हुई है। इसकी प्रमुख वजह है इस क्षेत्र में जमीन के नीचे मौजूद विशाल दरारों यानी टेक्टॉनिक प्लेट्स में लगातार तनाव की स्थिति बनी हुई है।


भूकम्प के पूर्वानुमान की कोई तकनीकी है
आधुनिक तकनीकी तो है परन्तु इससे पहले हमारे पास लोक विज्ञान भी है कि भूकम्प आने वाला है। भूकंप का सामना करने वाले समाजों में इस तरह की कई धारणाएं रही हैं कि कुत्ते, चूहे या मेंढ़क जैसे कई जानवरों को इसका पहले आभास हो जाता है। बताते हैं कि 2009 में इटली के ला अकीला नामक एक कस्बे में आए एक भयानक भूकंप से तीन दिन पहले एक तालाब के मेंढ़क अचानक उसे छोड़कर भाग गए थे। यह जगह भूकंप के केंद्र से 76 किमी दूर थी। यह भी कहा जाता है कि चीन के हाइचेंग शहर में 1975 में आए भूकंप से एक महीना पहले ही कई सांप देखे जाने लगे थे। वह सर्दियों का मौसम था जब सांप बिलों में ही रहना पसंद करते हैं। कुत्तों को भूकंप का पहले से पता चल जाता है और वे बेवजह भौंकने लगते हैं। लाल चींटियों को पहले से ही भूकंप का पता चल जाता है। ये चींटियां उन इलाकों में टीले बनाती हैं जहां धरती के नीचे मौजूद टेक्टोनिक प्लेटें आपस में जुड़ती हैं। भूकम्प के पूर्वानुमान वाली तकनीकी से कुछ ही सेंकेण्ड पहले भूकम्प का अनुमान लगाया जा सकता है। कुलमिलाकर इस तकनीकी से ज्यादा लोगो को अपने स्वार्थो को संयत करना होगा। प्रकृति के साथ जितनी छेड़-छाड़ करेंगे उतने उसके दुष्परिणाम भुगतेगे।


यानि धरती को थर्राने वाली यह प्रक्रिया प्राकृतिक ही है।
इस प्राकृतिक आपदा पर अनेको अध्ययन हो रहे हैं। भूकंप के समय दो तरह की तरंगें निकलती हैं। पहली तरंग करीब छह किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलती है। दूसरी तरंग औसतन चार किलोमीटर प्रति सेकेंड के वेग से। इस फर्क के चलते प्रत्येक 100 किलोमीटर पर इन तरंगों में आठ सेकेंड का अंतर हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भूकंप के केंद्र से 100 किलोमीटर की दूरी पर आठ सेकेंड पहले इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील जापान, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों मे इससे काफी मदद मिल रही है।


किस तरह का ढांचागत विकास हो।
माना जाय की आप 10 किलोग्राम वजन थाम सकते हैं। आपके ऊपर 100 किलोग्राम वजन को थोप दे ंतो आपकी स्थिति कैसी होगी। यह तो मात्र एक संकेत है। दरअसल जिस धरती से हम जल, वायु और अन्य प्राकृतिक संसाधन निशुल्क प्राप्त करते है उस धरती पर मौजूद गतिविधि का भी हमें ध्यान रखना होगा। क्योंकि सबसे समझदार प्राणी इन्सान ही है। जो प्रकृति का दोहन समझदारी से करता है, तो प्रकृति का संरक्षण भी तो हमे ही करना होगा। यह सामान्य सी बात है। अगर हम हिमालय के बारे में वैज्ञानिक राय की बात करें तो वैज्ञानिक पहले कह चुके हैं कि हिमालय पर लोगो को अन्यत्र छेड़-छाड़ करनी बन्द करनी पड़ेगी। क्योंकि धरती स्थिर नहीं है। आप देख रहे होगे कि हिमालय की ऊंचाई हर वर्ष बढती ही जा रही है। धरती के नीचे जो टेक्टॉनिक प्लेट्स हैं वे लगातार आपस में एक दूसरे के नीचे खिसक रही है। जिस कारण इस मध्य हिमालय की ऊंचाई मे मामूली सा इजाफा होता ही जा रहा है। इस दौरान जो धरती के अन्दर हल-चल होती है वे छोटे और बड़े भूकम्प का रूप लेती है। अब जो जगह अतिसंवेदनशील में आते हैं वहां नुकसान तो होगा ही और सर्वाधिक जानमाल का नुकसान तब और होगा जब वहां अप्राकृतिक रूप से लोग जल, जंगल, जमीन का दोहन कर रहे होगे। इस श्रेणी में हमारा उत्तराखण्ड भी आता है।


जहां 522 जलविद्युत परियोजनाऐं बनने जा रही हो और सभी सुरंग आधारित हो, पेड़ो की जगह कंक्रीट का जंगल पनप रहा हो, मिट्टी गारे की जगह सीमेंट और लोहे ने ले ली हो, जो पहाड़ कभी लोगो और उनके आवास की शोभा बढा रहे थे वे पहाड़ आज वृक्ष विहीन हो गये हों, नदी-नालो को पाटकर बहुमंजिले इमारते खड़ी की जा रही हो, इन परिस्थितियों को खड़ा करने के लिए एक बार भी हमारे नीति-नियन्ताओं ने वैज्ञानिक सलाह नहीं ली। अवैज्ञानिक और अनियोजित विकास ही विनाशकारी बनने जा रहा है। समय रहते हमे चेतना होगा कि इस शैशव अवस्था के हिमालय में ढांचागत विकास को वैज्ञानिक रूप देना होगा। साथ ही लोक विज्ञान को भी समझना पड़ेगा।


खड्ग सिंह वल्दिया एक नजर 
जन्म तिथि रू 20 मार्च 1937, जन्म स्थान - कलौ (म्योमार), पैतृक गाँव - घंटाकरण जिला-पिथौरागढ। 1965-66 में अमेरिका के जान हापकिन्स विश्वविद्यालय के 'पोस्ट डाॅक्टरल' अध्ययन और फुलब्राइट फैलो। 1969 तक लखनऊ वि.वि. में प्रवक्ता। राजस्थान वि.वि., जयपुर में रीडर। 1973-76 तक वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियॉलॉजी में वरिष्ट वैज्ञानिक अधिकारी। 1976 से 1995 तक कुमाऊँ विश्वविद्यालय में विभिन्न पदों पर रहे। 1981 में कुमाऊँ वि.वि के कुलपति तथा 1984 और 1992 में कार्यवाहक कुलपति रहे। 1995 से जवाहरलाल नेहरू सेन्टर फार एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च केन्द्र बंगलौर में प्रोफेसर हैं।