||धरती पर हरियाली, स्रोत में पानी यही है पर्यावरण की कहानी||
उतराखण्ड के लोग, विशेषकर महिलाऐं सदैव खेती किसानी के लिए ही नहीं अपितु वे प्राकृतिक संसाधनो के संरक्षण के लिए भी जानी जाती है। यहां कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो आज की पीढी के लिए आदर्श है। पौड़ी की डांगी गांव निवासी महिलाओं ने सूखते जल स्रोतो को जीवन दिया, तो वहीं कुछ युवाओं ने बंजर धरती पर सोना ऊगा डाला। राज्य का पौड़ी जिला ऐसा है जहां गांव के गांव खाली हो चुके है। मगर ऐसे में इस जनपद की महिलाओं ने पलायन को धत्ता बता कर गांव में ही आजीविका के साधन ढूंढ निकाले हैं।
रंग लाया सामूहिक प्रयास
बता दें कि जिला मुख्यालय पौड़ी से मात्र 27 किमी की दूरी पर स्थित है विकासखंड कल्जीखाल का डांगी गांव। यहां की महिलाओ ने गर्मी से सूखते जल स्रोत को बचाकर नया जीवन दिया है। कल्जीखाल का यह घंडियाल कस्बा अमूमन पेयजल की किल्लत से जूझता रहा है। यहीं से लगभग तीन किमी की पैदल दूरी पर डांगी गांव पड़ता है। बताया गया कि पहले गांव में एक दर्जन से अधिक प्राकृतिक जल स्रोत थे। लेकिन ठीक ढंग से संरक्षण न होने की वजह से ज्यादातर सूखते चले गए। वर्तमान में गांव की महिलाओं ने बचे हुए स्रोतों के संरक्षण के लिए उनकी साफ-सफाई से लेकर उनके जलागम स्तर पर वृक्षारोपण किया। डांगी गांव में भले ही अब तक सड़क न पहुंची हो, लेकिन गांव की महिलाओं व युवाओं की सूझ ने इन प्राकृतिक जल स्रोतों को संजीवनी देने का कार्य किया है। स्रोतों के नजदीक साफ-सफाई के साथ ही स्रोत पर मिट्टी का लेप भी लगाया जाता है। ताकि वहां नमी बनी रहे। महिलाओं की यह मुहिम रंग लाई और अन्य गांवों के लोग भी इस कार्य से प्रेरणा ले रहे हैं।
ग्राम प्रधान सरस्वती देवी, महिला मंगल दल अध्यक्षा संगीता देवी, कांता देवी, अनुसूया देवी, दमयंती देवी, पुष्पा देवी व पवित्री देवी बताती हैं कि जब से महिलाओं ने गांव के प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए कार्य करना शुरू किया, तब से गांव में पानी की समस्या ही समाप्त हो गई है। ग्रामीण जगमोहन डांगी बताते हैं कि प्राकृतिक जल स्रोत संरक्षित रहे, इसके लिए सभी ग्रामीण मिलकर वर्ष में एक बार उसकी पूजा भी करते हैं। समय समय पर इन जल स्रोतो की मरम्मत व सफाई भी की जाती है। जबकि अन्य गांवों में गर्मी की दस्तक के साथ ही कई प्राकृतिक जल स्रोतों की धार भी कुम्हलाने लगती है। ऐसे में डांगी गांव की महिलाओं का अपने प्राकृतिक जल स्रोत को बचाये रखना एक मिसाल ही कहा जा सकता है। गर्मी से स्रोत सूख न जाए, इसके लिए ग्रामीण न केवल इसके आसपास स्वच्छता बनाये हुए हैं, बल्कि स्रोत पर मिट्टी का लेप भी लगाये रखते हैं। यही वजह है कि यह स्रोत आज ग्रामीणों की पेयजल आपूर्ति का बेहतर जरिया बना हुआ है।
एक शिक्षक का प्रकृति प्रेम
बागेश्वर जनपद के अन्तर्गत राजकीय जूनियर हाईस्कूल जखेड़ा के प्रधानाध्यापक रामलाल को प्रकृति से अगाध प्रेम है। इसलिए उनके खाते में हजारों पौधे को लगाने का खिताब जाता है। वे बताते हैं कि उन्हें पौधे लगाने का जूनून बचपन से ही था। कौसानी की खूबसूरत वादियों ने ही उन्हें प्रकृति प्रेमी बना दिया। उन्होंने अपने शिक्षकों की प्रेरणा से ही विद्यार्थी जीवन में कई पौधे स्कूल के आसपास और गांव में लगाए हैं। 1987 में शिक्षा विभाग में प्रथम नियुक्ति के बाद से ही स्कूल के बच्चों के साथ प्रत्येक सप्ताह पौधरोपण का कार्य करते आ रहे हैं। श्री लाल बताते हैं कि राष्ट्रीय पर्व और किसी भी कार्यक्रम में वे अवश्य पौधरोपण करते हैं।
जखेड़ा स्कूल के पास काफी भूमि थी। वन विभाग के अधिकारियों और ग्राम प्रधान ने उन्हें हजारों पौधे उपलब्ध कराए। उन्होंने विद्यालय के आसपास कई छायादार और फलदार तथा औषधीय पौधे लगाये हैं। आज बच्चे और ग्रामीण उनके लगाए पेड़ों से आंवला, संतरा, नीबू, केले, माल्टा आदि फल खा रहे हैं। उनका कहना है कि यदि धरती को बढ़ते तापमान और ग्लोबल वार्मिंग से बचाना है तो अधिक से अधिक पौधरोपण करना होगा और पेड़ बनने तक उनका संरक्षण भी करना होगा।
उनकी इस उपलब्धि पर जिला पंचायत के उपाध्यक्ष देवेंद्र परिहार, लाहुरघाटी विकास मंच के अध्यक्ष और जखेड़ा के प्रधान ईश्वर सिंह परिहार, सचिव डी के जोशी, लमचुला के प्रधान मदन सिंह बिष्ट, जिला पंचायत सदस्य जितेंद्र मेहता, बीआरसी समन्वयक उमेश जोशी ने मिलकर संयुक्त रूप से शिक्षक रामलाल को तरुश्री सम्मान से सम्मानित भी किया।
चमोली में पेड़ वाले गुरुजी
चमोली जिले के पोखरी ब्लॉक स्थित राजकीय इंटर कॉलेज गोदली में नागरिक शास्त्र के प्रवक्ता नौनिहालों को ''जीवन और समाजिक तानेबाने'' में पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ा रहे हैं। प्रवक्ता धन सिंह घरिया की इस अनूठी पहल का ही नतीजा है कि आज विद्यालय परिसर में 25 से अधिक प्रजाति के पेड़ों का खूबसूरत मिश्रित वन तैयार हो गया है। श्री घरिया का अवकाश का समय भी इन पेड़ों की देखरेख में ही बीतता है।
ज्ञात हो कि घरिया के प्रयास यहीं तक सीमित नहीं हैं। उन्होंने छह किमी लंबे मसोली-कलसीर पैदल मार्ग के किनारे भी थुनेर, अंगू, पांगर, देवदार, सुराई, टेमरू आदि प्रजातियों के पेड़ का रोपण किया है। ताकि भूस्खलन पर अंकुश लग सके। पेड़-पौधों में विशेष रुचि रखने के कारण क्षेत्र में लोग श्री घरिया को पेड़ वाले गुरुजी के नाम से जानते हैं। यही नहीं वे जंगल में आग लगी देखते हैं तो तुरंत उसे बुझाने दौड़ पड़ते हैं। राइंका गोदली में श्री घरिया की नियुक्ति वर्ष 2007 में हुई थी। तब से वे निरंतर इस अभियान में जुटे हैं।
गर्मियों की छुट्टियों के दौरान वह बदरीनाथ धाम पहुंचकर वहां बिखरे पॉलीथिन कचरे की सफाई करते हैं। वर्ष 2014 में श्री नंदा देवी राजजात की समाप्ति के बाद उन्होंने वेदनी बुग्याल पहुंचकर स्वच्छता अभियान चलाया। इस दौरान उन्होंने स्वयं के खर्चे पर 15 क्विंटल कचरा एकत्रित किया। बकौल घारिया बताते हैं कि पेड़ लगाने की प्रेरणा उन्हें चिपको नेत्री रैणी गांव निवासी गौरा देवी से मिली। तब से पेड़-पौधे उनके जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। बीते एक दशक के दौरान उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में 30 हजार से अधिक पेड़ लगायें हैं। उनका यह सिलसिला आज भी निरन्तर बना हुआ है।
मैकेनिकल इंजीनियर ने किया रिवर्स माईग्रेशन, रोपे पौधे
ऐशो-आराम छोड़ वीरान गांव को आबाद करने का जिम्मा एक मैकेनिकल इंजीनियर ने उठाया है। पिथौरागढ़ निवासी यह इंजीनियर लोगों के बीच उम्मीद बनकर उभरे हैं। वह पलायन से कराह रहे गांव में लोगों को और बंजर खेतों में हरियाली लौटाने वाला नाम बन चुके हैं।
पहाड़ पलायन का दर्द झेल रहा है। गांव-कस्बों के युवा छोटे-मोटे रोजगार बावत महानगरों का रुख कर रहे हैं। ऐसे हालात में मुंबई में कार्यरत मैकेनिकल इंजीनियर जयप्रकाश जोशी ने लोगों के बीच मिशाल कायम की है। आज वह पलायन से कराह रहे गांव में लोगों को और बंजर खेतों में हरियाली लौटाने वाला एक जाना-पहचाना नाम बन चुके हैं। उनके प्रयासो से गांव में ही खेती एवं दुग्धोत्पादन जैसे स्वरोजगार के साधन लोगो को उपलब्ध हो रहे है।
पिथौरागढ के कनालीछीना ब्लाक के मलान गांव निवासी जयप्रकाश ने मुंबई में ऑयल उत्पादन के क्षेत्र में नौकरी करने के बाद आज खुद का कारोबार खड़ा कर लिया है। ढाई साल पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने प्रवासी व्यवसायियों से अपने मूल की भी सुध लेने की अपील की थी। जयप्रकाश पर इसका असर हुआ और उनके मन में अपने वीरान हो चुके गांव को फिर बसाने का जज्बा जोर मारने लगा। इसके बाद मुंबई में व्यवसाय छोड़कर वे परिवार सहित सीमांत में स्थित अपने गांव मलान लौट आए। दो साल से वे हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं। नतीजन जिन खेतों में वनस्पति के नाम पर सिर्फ खरपतवार व घास दिखती थी, वहां बासमती लहलहाने लगी है। इसके साथ ही जयप्रकाश ने जैविक खेती और जैविक दूध की अवधारणा को लेकर दुग्ध उत्पादन का कार्य भी शुरू किया किया।
असर यह हुआ कि जिस गांव में कभी एक-दो दुधारू जानवर होते थे, आज वहां से प्रतिदिन 70 से सौ लीटर दूध बिक्री के लिये पिथौरागढ़ और डीडीहाट बाजार पहुंच रहा है। क्षेत्र के 15 युवा तो सीधे दुग्ध व्यवसाय से ही जुड़ गये हैं। जबकि दर्जनों ग्रामीणों को परोक्ष रूप से रोजगार मिला रहा है। गांव में आज आम, कटहल, लीची, अमरूद, माल्टा, संतरा, नींबू के बाग तैयार हो चुके हैं। मलान गांव में निवास करने वाले 25 परिवार भी इसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं। ईंजीनियर जयप्रकाश यहीं नहीं रुके। वह गोबर गैस प्लांट से लेकर जैविक खाद के लिए भी काम कर रहे हैं। यही वजह है कि उनसे जानकारी व प्रेरणा लेकर गांव के युवा खेती और दुग्ध उत्पादन से आर्थिकी संवार रहे हैं।