डिगरी पूज्य

डिगरी पूज्य


राधा खनका


पिथौरागढ़ जिले के विकासखण्ड कनालीछीना में एक गाँव है। गाँव में महिला संगठन की सदस्या देवकी “डिगरी पूज्य" के नाम से प्रसिद्ध हैं। आठ भाई-बहनों में देवकी चौथे स्थान पर हैं। जब देवकी दीदी की उम्र आठ वर्ष की थी, उनकी माता को लकुवा मार गया। उन्होंने बारह वर्ष तक माँ की सेवा की अठारह वर्ष की उम्र में बड़े भाई की शादी कर दी। शादी के वक्त भाभी की उम्र बारह वर्ष की थी। माँ की मृत्यु के बाद पिताजी को काफी परेशानी उठानी पड़ी। पिताजी ने दूसरी शादी नहीं कीभाई-बहनों में से कोई ग्वाला जाते, कोई घास काटते । घर में गरीबी थी परंतु खाने के लिए खेतों से ही पर्याप्त मात्रा में मोटा अनाज उपलब्ध हो जाता था।


बड़े भाई ने बारहवीं कक्षा तक पढ़ा। विद्यालय गाँव के नजदीक था। छोटे भाई ने आठवीं कक्षा तक पढ़ा और एक भाई स्नातक बने । विद्यालय भेजने के अलावा भाइयों की पढ़ाई में देवकी ने पिताजी को बहुत सहयोग दिया। कम उम्र के बावजूद वे भाइयों को नियमित रूप से विद्यालय, भेजने, जानवर पालने, और खेती के सभी काम आदि बड़ी लगन से करती थी। उन्हें खुद भी पढ़ने की इच्छा थी। बचपन में स्कूल जाने के लिए पाठी (स्लेट) में खूब घोटा लगाती थी। पाठी को चिकना करती थी। बाँस की कलम और एक दवात में कमेट (खड़िया) बना कर रखती थी। बच्चों के स्कूल जाने के बाद वे ग्वाला जातीं देवकी ने छोटी उम्र में घर का पूरा कारोबार संभाला रहने के लिए छोटी-छोटी झोपड़ी थी। उसी में सब एक साथ रहते थे। वर्षा के मौसम में झोपड़ी के भीतर पानी आ जाता। तेरह वर्ष की उम्र में उनकी शादी कर दी गई। जब देवकी ससुराल पहुँची तो वहाँ पर एक कमरे का छोटा सा घर था। शादी के तीसरे दिन उनके पति दिल्ली चले गये। फिर वापस नहीं आये। बाद में मालूम हुआ कि उन्होंने एक अन्य स्त्री से शहर में शादी की थी। यह जानकारी शादी के बाद हुई।


जब देवकी को इस घटना के बारे में पता चला तो वह डर कर मायके वापस आ गयी। मायके में परिवार और गाँव की बिरादरी के सदस्य ससुराल जाने को कहते परंतु वह वापस नहीं जाती थी। परिवार-बिरादरी में सभी लोग यह मानते थे कि शादी के बाद लड़की को ससुराल में रहना ही शोभा देता हैजब वापस जाने के लिए दबाव बहुत बढ़ गया तो देवकी ने उन्हें सभी बातें बता दी। उसके बाद किसी ने ससुराल जाने को मजबूर नहीं किया। परंतु समाज से बचकर रहना बहुत कठिन है। देवकी दीदी की उम्र बढ़ी तो परिजन दूसरी शादी कर लेने को कहने लगेदेवकी ने सख्त मना कर दिया । वह कहती कि एक गृहस्थी खराब हो गयी। न जाने दूसरा घर कैसा होगा। कुछ समय बाद, एक परिचित व्यक्ति उससे जबरदस्ती शादी करने को कहने लगे। देवकी ने मना किया तो उसे तंग करने लगे। तब देवकी के भाइयों ने उसे बहुत फटकारा। देवकी गरीब जरूर थी परंतु चालाक थी। जब भी कहीं अकेले में उस व्यक्ति को देखती, तुरंत वहाँ से भाग खड़ी होती। गाली-गलौज भी कर लेती। माहवारी के दौरान नदी में नहाने के लिए जाना होता। देवकी वहाँ भी अकेली नहीं जाती थी। कुछ समय बाद उस व्यक्ति ने देवकी को परेशान करना छोड़ दिया।


मुवानी में एक प्रावईट स्कूल खुला। वहाँ पर देवकी से चौकीदारी का कार्य करने को कहा गया। विद्यालय में उपयोग के लिए पानी गधेरे से भरकर लाना पड़ता था। वहाँ कुछ लोग रोज ही इकट्ठा हो कर बैठते थे। डर की वजह से देवकी ने विद्यालय में काम करने से मना कर दिया। अब देवकी की उम्र साठ वर्ष है। वह कहती है, "आज की जैसी अक्ल पहले होती तो मैं डरती नहीं। मैं हमेशा पश्चाताप करती थी कि स्कूल नहीं गयी। यदि मैं पढ़ी-लिखी होती तो नौकरी कर लेती, ऐसा सोचती थी। परिचित मेरे लिए दो-दो, तीन-तीन बच्चों के पिताओं के रिश्ते लाते । लेकिन मैंने अपने मन में ठान ली कि कुछ भी हो दूसरी शादी नहीं करूँगी। मैं हमेशा भाई-भाभियों के साथ काम करती रहती थी । भाइयों के बच्चे पैदा हुए तो उनके पालन-पोषण में जुट गयी। उन्हें पढ़ाया-लिखाया। शादी की। घर में जो भी काम हो वे मुझ से ही पूछ कर करते थे। बच्चे मुझे माँ के रूप में ही देखते हैं।'' देवकी दीदी गाँव-समाज में सभी का मार्गदर्शन करती हैं। उन्हें विधवा पेंशन मिलती है। शादी के बाद उनके एक भाई की लड़की की मौत हो गयी। उसके दो बेटे थे। देवकी ने एक बेटे को अपने पास बुला लिया, उसे पढ़ाने की जिम्मेदारी स्वयं ले ली। जब से गाँव में महिला साक्षरता एवं शिक्षण केन्द्र खुला, वह रोज पढ़ने के लिए आने लगी। शुरूआत में कहती, "जीवन में कभी कलम हाथ में नहीं पकड़ी । अब लिख नहीं पाऊँगी।" केन्द्र संचालिका, लक्ष्मी चौहान, ने उन्हें प्रोत्साहित किया और कहा कि, "आप केन्द्र में आकर पढ़ना-लिखना नहीं सीखेंगी तो अपना नाम कैसे लिख पायेंगी?" दीदी कहती हैं कि उन्हें डर ही लगती थी कि कैसे लिखेंगी। जब लिखना शुरु किया तो रूकने का नाम नहीं लिया । अब उन्हें लिखना बहुत अच्छा लगता है। वे कहती हैं, "अब तो मैं लिखने बैठती हूँ तो कोई महिला बातचीत भी करे तो उसे डाँटती हूँ तब सभी महिलायें चुप होकर लिखने लग जाती हैं। अब मुझे अभ्यास पुस्तिका दो तक कुछ-कुछ लिखना-पढ़ना आ गया है। अब सोचती हूँ कि बचपन में थोड़ा भी पढ़ा होता तो इस समय जल्दी ही पढ़ना-लिखना सीख लेती।"


जब गाँव में महिला संगठन बना तो ग्रामवासियों ने उन्हें भी सदस्या बना दिया। दीदी कहती हैं कि किसी भी काम को करने से पहले सोच-समझ लेना चाहिए जो काम हाथ में ले लिया, उससे पीछे नहीं हटना चाहिए। दीदी हर माह महिला संगठन की बैठक में भाग लेती हैं। पड़ोस की महिलाओं को भी साथ बुला कर ले आती हैं। यदि कभी बैठक या केन्द्र में महिलायें कम आयें तो कहती हैं कि, "शर्म की बात हो गयी है।' वे सभी महिलाओं को समय पर आने को कहती हैं। संगठन की बैठक में भी "एक साथ आओ, एक साथ वापस जाओ," ऐसा नियम बनाने पर जोर देती हैं। संस्था के कार्यकर्ता उनसे अल्मोड़ा गोष्ठी में भाग लेने के लिए अनुरोध करते हैं तो कहती हैं कि "मुझे बहुत ज्यादा गाड़ी लगती है (गाड़ी में बैठने से तबियत खराब हो जाना) । दस किमी तक भी नहीं जा सकती हूँ। इससे ज्यादा सफर जीवन में नहीं किया है,अल्मोड़ा कैसे जाऊँ? मेरे भाग्य में ऐसा लिखा ही नहीं, अगर उल्टी नहीं होती तो चली जाती । अब मेरी उम्र भी हो चुकी है। नये-नये लोग बाहर जायेंगे तो ज्यादा सीखेंगे। हम लोग तो अब पीछे से सहारा देनेवाले है। जब मैं जवान थी, उस समय संगठन होता तो महिलाओं को भी जागरूक करती, स्वयं भी सीखकर काम करती। अभी भी खेती-बाड़ी का काम करती हूँ परंतु आदमियों से बोलने में घबराहट हो जाती है। फिर भी जैसा बन पड़े बोलती हूँ।" उत्साही देवकी दीदी ने महिला साक्षरता एवं शिक्षण केन्द्र में महिलाओं को मूल्यांकन की सूचना दी। सभी महिलायें कहने लगी कि "लिखेंगे कैसे?" तब देवकी दीदी ने महिलाओं से कहा कि “यदि खूब मन लगाकर सीखा होता तो डर नहीं लगतामुझे तो पहले डर लगती थी, अब नहीं लग रही है।" दीदी एक साल तक लगातार केन्द्र में आयीखूब मन लगाकर पढ़ा और सीखा मूल्यांकन के समय सबसे आगे रहा और सम्मान प्राप्त कियावे हर जगह पैदल ही चली जाती है। महिला सम्मेलनों, बैठकों तथा अन्य सामाजिक समारोहों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती हैं।