एक संस्कृति व सभ्यता रूपीन-सुपीन घाटी

||एक संस्कृति व सभ्यता रूपीन-सुपीन घाटी||


वैसे तो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड प्राकृतिक सुन्दरता का भण्डार है। पर जब उत्तरकाशी की बात आती है यहां मानों प्रकृति ने सर्वाधिक नेमते बख्सी हो। उत्तरकाशी मुख्यालय में विख्यात काशी विश्वनाथ का मंदिर है तो वही बांयी ओर गंगा-भागीरथी बहती हुई हिन्दू संस्कृति की ध्वजवाहक बनी हुई है। यही नहीं इसी जनपद में यमुना का भी उद्गम स्थल है। यमुना कालीन्दी पर्वत की उत्तरी ढलान से नदी का रूप लेकर 1029 किमी बहती हुई इलाहबाद स्थित गंगा में संगम बनाती है। जबकि इसी कालीन्दी पर्वत की दक्षिणी ढलान से दो जल धारायें विभक्त होकर कमशः रूपीन व सुपीन नाम से बहती हुई, तिब्बत को छूती हुई, हिमांचल के किनौर होते हुए, फिर उत्तराखण्ड की सरहद में आकर नैटवाड़ में फिर से संगम बनाती है। बस यहीं से टौंस नदी उत्पन्न होकर कालसी में फिर से यमुना में संगम बनाती है।


मध्य हिमालय यानि उत्तराखण्ड। यहां हम बात कर रहे हैं उत्तरकाशी के फतेपर्वत क्षेत्र की। यहीं कल-कल सी संगीतमय धुन के साथ बहती है रूपीन और सुपीन नदी। जैसा यहां का भूगोल वैसा यहां वातावरण। या यूं कहे कि यहां पर पंहुचने से लगता है कि मानो इसी के आस-पास कहीं स्र्वग होगा। जी हां वैसे भी बताते है कि सुपीन नदी से लगा हुआ हरकीदून क्षेत्र से ही पाण्डव स्र्वग गये थे। यहीं से विश्व विख्यात ट्रैक स्र्वगारोहणी का भी रास्ता है।


तात्पर्य यह है कि कालीन्दी पर्वत यानि कालीन्दी गलेशियर से निकलने वाली यमुना, रूपीन व सुपीन नाम की इन तीन जल धाराओं ने अपने में विभिन्न संस्कृतियों को समेटा हुआ है। रूपीन तिब्बत के बौद्ध संस्कृति को छूती हुई और हिमांचल के किनौर क्षेत्र की जनजातियो से मुखातिब होकर उत्तराखण्ड में अपनी उर्वरक जल संसाधन से वातावरण को खुशनुमा बना देती है। हालांकि उत्तराखण्ड में रूपीन और सुपीन नदी के बारे में कई प्रकार की दन्त कथायें मौजूद है। बताया जाता है कि इन्हे शिव ने श्राप दिया था कि वे जहां तक बहेगी वहां तक उनका पानी उपयोग में नहीं लाया जायेगा। यह शोध का विषय हो सकता है। मगर रूपीन व सुपीन नदी के आबाद क्षेत्र में जो बसासत है उनकी संस्कृति की अपने आप में अनोखी पहचान है।


यहां के लोगों ने अपने रहन सहन, गीत, नृत्य, साज-सजा व खान-पान को आज भी धरोहर के रूप में संजोय रखा है। यहां प्रत्येक गांव में ग्राम देवी और ग्राम देवता का मंदिर है। ये मंदिर बौद्ध मठ शैली से निर्मित है। रूपीन-सुपीन की घाटी अर्थात फतेपर्वत, पंचगाईं, सिगतूर, बड़ासू पट्टीयो के नाम से भी जानी जाती है। इस क्षेत्र में भिटासैणी देवी, सिलकुड़िया देवता, सोमेश्वर देवता व महासू देवता लोगो के आराध्य देवता है।


दोणी गांव में मौजूद भिटासैणी देवी, सिलकुड़िया देवता व सोमेश्वर देवता के मंदिर भी 500 वर्ष पूर्व का इतिहास बताता है। यहां का इतिहास कोई लिखित नहीं है, बल्कि गांव-गांव में गाये जाने वाले गीत यहां की परम्परा और इतिहास को दर्शाते है। गीत भी एक खास प्रकार की जाति के लोग गाते है। जिन्हे स्थानीय स्तर पर बमोटा कहते है। इस क्षेत्र में बमोटा, झुमरिया, हुड़क्या, बाजगी जाति के लोगो का पेशा ही गाना बजाना है। जिनके गीतो में कथा, दन्तकथाऐं विद्यमान है। ये जातियां विशेषकर देवी व देवताओं के गीत व नृत्य गाते हैं। इनके गीतो में महासू सहित यहां के लोक देवताओं के गीत प्रमुख है। इनके गीतो में स्थानीय बीर-भड़ो व राजाओं की गाथाऐं भी सुनी जाती है। जैसे 400 वर्ष पूर्व ''सलारी-मलारी'' की प्रेमगाथा। आज भी दोणी गांव में सलारी-मलारी का यह विशाल नक्कासीदार लकड़ीनुमा भवन मौजूद है, जो इनके गीतो का साक्षात प्रमाण है।


दिलचस्प यही है कि इस क्षेत्र में लकड़ी के नक्कासीदार भवन अतिआकर्षण का केन्द्र हैं। जिन्हे फिरोल भवन या वुडस्टोन के भवन भी कह सकते है की एक खास पहचान है। ये फिरोल भवन तीन से पांच मंजिला है, विशाल है, सैकड़ो वर्षो का इतिहास समेटे हैं और साथ-साथ भूकम्परोधी भी है। भूकम्परोधी इस मायने में कि 1803 का विशालकाय भूकम्प इन भवनो का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया। जबकि यह क्षेत्र भूकम्पीय दृष्टी से जोन 4 व 5 में आता है। इन भवनो की खास बात यह है कि प्रत्येक भवन के साथ विशुद्ध रूप से लकड़ी का ही एक छोटा सा भवन बनाया जाता है, जिसे स्थानीय लोग कोठार कहते हैं यानि अन्न-धन्न का भण्डार। यह इस बात का घोतक है कि यह क्षेत्र कभी अन्न-धन्न से सम्पन्न रहा होगा। इन फिरोल भवनो के शिल्पी भी इसी क्षेत्र के निवासी है। इन शिल्पीयों का यही मुख्य व्यवसाय है। ये शिल्पी इन फिरोल भवनो को बनाने के लिए घुमन्तु रूप में प्रवास करते हैं। जब से सीमेंन्ट का प्रचलन गांव तक पंहुचा है तब से इनके इस परम्परागत कार्य में गिरावट आई है। 


यहां के रहन-सहन की परम्परा में परस्परता है। लोग सामूहिक रूप से अपने कामो का निष्पादन करते हैं। वह चाहे खेती किसानी का काम हो या भवन निर्माण के काम हो। इस समृद्ध परम्परा की वजह से ही इस क्षेत्र में लोग स्थानीय उत्पादो को ही महत्व देते हैं। यहां कुट्टू जिसे स्थानीय भाषा में फाफरा कहते हैं लोगो का प्रिय भोजन है। इसे लोग सतू के रूप में परोसते हैं तो हलवा व रोटी के रूप में भी परोसते है। यही नहीं जच्चा-बच्चा को फाफरे से बने व्यंजन ही परोसे जाते है। यहां के लोगो का भेड़-बकरी पालन ही प्रमुख पेशा है। इनके अधिकांश वस्त्र भेड़ की ऊन से बने है। लोग ऊन से ही खुद ताना-बाना बुनकर अंगवस्त्र बनाते है। अब तो गांव-गांव सड़के पंहुच गई है। इसलिए कुछ कारखानो से बने कपड़े गांव में दिखाई देने लगे है। घी, दूध, मक्खन, छांस इस क्षेत्र में लोगो के भोजन का मुख्य हिस्सा है। छांस व मक्खन निकालने की परम्परागत विद्या है।


प्राकृतिक सौन्दर्य भी ऐसा कि रूपीन व सुपीन नदी आगन्तुको को यू बार-बार अपनी ओर खींचती है। रूपीन का पानी आसमानी नीला तो सुपीन का पानी मठमैला है। नैटवाड़ स्थित में जब ये दोनो बहने संगम बनाती है तो लगभग 200 मीटर तक ये दो रंग परस्पर बहते हुए दिखाई देती हैं। यहीं से टौंस नदी का रूप  बन जाता है। नैटवाड़ में इस संगम पर लोक देवता पोखू महाराज का मंदिर है। जो की इस क्षेत्र का ही नहीं अपितु हिमांचल के डोडरा-क्वार से लेकर सम्पूर्ण यमुना, टौंस, रूपीन व सुपीन घाटी के लोगो का न्याय का देवता है। इस मंदिर में बारहमास दुखी व सुखी लोगो का तांता लगा रहता है। जो सुलहनामा कहीं नहीं होगा वह पोखू महाराजा के मंदिर नैटवाड़ में होगा। ऐसी ही यहां पर घोर मान्यता है।


कालीन्दी पर्वत से लेकर यमुना-टौंस के संगम तक लोगो के आराध्य देवता महासू है। यहीं नैटवाड़ से कोई 30 किमी आगे टौस नदी के साथ-साथ हनोल स्थित में महासू देवता की थात है। यहां देश-विदेश के लोग महासू के दर्शनार्थ वर्षभर आते हैं। स्थानीय लोग हनोल महासू मंदिर को पांचवे धाम के रूप में मानते है। नैटवाड़ से रूपीन व सुपीन नदी टौंस नदी के रूप में संगम बनाती हुई आगे मोरी, मोरा, ठडियार, खूनीगाड़ होते हुए महासू मंदिर हनोल को स्र्पश करती है। अब टौंस नदी गहरी व संकरी घाटियो में अपने बहाव के साथ विभिन्न छोटी बड़ी नदी नालो से संगम बनाती हुई लगभग 150 किमी के अन्तराल में कालसी स्थित यमुना नदी से संगम बनाती है।


विशेष -
- 1860 के बाद सलारी-मलारी के इस विशाल भवन में कोई नहीं रहता।
- रूपीन-सुपीन घाटी में पुरूष भी कान के कुण्डल पहनते है।
- कमर पर बंधी हुई वेल्ट जिसे यहां के लोग गातर कहते हैं से लगता है कि यहां के निवासी शुद्ध रूप से पशुपालक व किसान हैं।
- स्थानीय लोग कहते हैं कि जब आवागमन के साधन नहीं थे तो उन दिनों रूपीन-सुपीन घाटी के लोग नमक तिब्बत से लाते थे।
- दोणी गांव में स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है सिलकुड़िया देवता का मंदिर जो 1885 में बनाया गया था।


कैसे पंहुचे - दो रास्ते हैं
देहरादून तक बस रेल, हवाई सेवायें है। इसके बाद लगभग 200 किमी के सफर में बस या टैक्सी से मसूरी होते हुए कैम्पटी फाल, जमुनापुल, नैनबाग, डामटा, नौगांव, पुरोला, जरमोलाधार, गड़ूगाड़, मोरी पंहुचा जाता है। यहां से 10 किमी आगे नैटवाड़ है जिसे फतेपर्वत का द्वार कह सकते हैं। यही पर रूपीन-सुपीन नदी संगम बनाती है और आगे टौंस नदी के नाम से बहती है। मोरी के बाद बसो का संचालन एकदम सीमित है। इसके बाद स्थानीय टैक्सियां ही यातायात को सुगम बनाती है।


दूसरा रास्ता-
देहरादून तक बस रेल, हवाई सेवायें है। इसके बाद लगभग 250 किमी के सफर में बस या टैक्सी द्वारा देहरादून से बाया विकासनगर, कालसी, सहिया, चकराता, मिनस, क्वानू होते हुए त्यूणी हनोल, खूनीगाड़, से मोरी तक पंहुचा जाता है। इसके आगे 10 किमी के फासले पर नैटवाड़ है।