गंगा पर विभिन्न मत-मतान्त

गंगा पर विभिन्न मत-मतान्त


विचार प्रवाह भारतीय जनमानस में गंगा जल अमृत स्वरूप ग्रहण किया जाता है। इसके आचमन से ही व्यक्ति अपने को धन्य मानता है।


स्थावराणां हिमालयः


गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, स्थिर रहने वालों में मैं हिमालय हूं। - गीता 10-25


स्रोतसामस्मि जाह्नवी


सरिताओं में मैं गंगा हूं। - गीता-10-31


यस्यामापः परिचराः समानीरहोरात्रो अप्रमादं क्षरन्ति।


स नो भूमिभूरिधारा पयोदुहा मथो उक्षतु वर्चसा। - वैदिक सूक्त


सब ओर जहां गतिशील सलिल निशि वासर, तजकर प्रमाद बहता समगति से सत्वर।


वसुधा वह बहुविध धाराओं से भूषित, दे हमें दुग्धरस करे ओज से सिंचित।


सं मा सिंचन्तु नद्यः सं मा सिंचन्तु सिन्धवः,


समुद्रः समस्मान् सिंचतु प्रजया च धनेन च। - अथर्ववेद


नदी सिन्धु और समुद्र मुझे प्रजा और धन से संपन्न करें।


गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती,


नर्मदे सिन्धुकावेरी जलेऽस्मिन् सन्निधि कुरु।


पुष्कराद्यानि तीर्थानि गंगाद्याः सरितस्तथा,


आयान्तु मम रक्षार्थ दुरितक्षयकारकाः


मातः शैलसुतासपत्नि वसुधाशृंगारहारावलि,


स्वर्गारोहणवैजयन्ति भवती भागीरथि प्रार्थये।


त्वत्तीरे वसतस्त्वदम्बु पिवतस्त्वद्वीचिषु प्रेक्षत


स्त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः। - _ महर्षि वाल्मीकि


पृथ्वी की शृंगारमाला, शिव जी की सपत्नी और स्वर्गारोहण की वैजयन्ती पताका स्वरूपिणी हे माता भागीरथी मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि, तुम्हारे तट पर निवास करते हुए, तुम्हारा जलपान करते हुए, तुम्हारी तरंगभंगी में तरंगायमान होते हुए तुम्हारा नाम स्मरण करते हुए, तुम्हीं में दृष्टि लगाए मेरा शरीरपात हो।


गंगा वारि मनोहारि मुरारिचरणच्युतम्,


त्रिपुरारि शिरश्चारि पापहारि पुनातु माम्। - महर्षि वाल्मीकि


श्री मुरारि के चरणों से उत्पन्न, शंकर के सिर पर विराजमान, सम्पूर्ण पापों को हरने वाला, वह गंगा जल मुझे पवित्र करे।


देवि सुरेश्वरि भगवति गगे, त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे।


शंकरमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्ता तव पद कमले। - आदि शंकराचार्य


आदि शंकराचार्य हे देवी गंगे, तुम देवों की आराध्या हो, त्रिभुवन को तारने वाली हो, विमल तरंगों वाली शंकर के मस्तक पर विचरण करने वाली हो, हे मां, तुम्हारे चरणों में मेरी मति लगी रहे।


तव जलममलं येन निपीतं, परमपदं खलु तेन गृहीतम्,


गृहीतम्, मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः। - आदि शंकराचार्य


हे देवि गंगे तुम्हारा जल जिसने पी लिया उसने अवश्य परमपद पा लिया। हे माते, जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज भी देखने में समर्थ नहीं हो सकता।


अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये,


तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः


हे दुखियों की वन्दनीया देवि गंगे अलकापुरी को आनन्द देने वाली और परमानन्दमयी हो। मुझ पर कृपा करो, जो तुम्हारे तट पर वास करता है वह मानो बैकुण्ठ में ही रहता है।


भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽहम्,


विगतविषयतृष्णः कृष्णमाराधयामि


सकलकलुषभंगे स्वर्गसोपानगंगे,


तरलतरतरंगे देवि गंगे प्रसीद। - आदि शंकराचार्य


हे देवि गंगे, तुम्हारे तीर पर तुम्हारा जलपान करता हुआ तृष्णा से रहित मैं श्रीकृष्ण की आराधना करूं, सकल पापनाशिनी स्वर्ग-- सोपानरूपिणि! तरल तरंगों वाली देवि गंगे, मुझ पर प्रसन्न हो।


पूर्ण: कुम्भोधिकाल आहितः, तवं वै पश्यामो बहुधा न सन्तः


स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्य कालं, तमाहुः परमे व्योमन्


अर्थात् हे प्राणियो, संतो! पूर्ण कुंभ आ गया है, इसे देखो, हम इसे आदिकाल से देखते आए हैं। कुंभ उस काल विशेष को कहते हैं जो विराट् आकाश में विशेष ग्रह राशि के संयोग से घटित होता हुआ समूचे ब्रह्माण्ड को प्रभावित करता है।


इस अवसर पर करने योग्य प्रमुख सत्कर्म गंगा स्नान है।


यो स्मिन्क्षेत्रे नरः स्नायात्कुम्भगेज्ये जगेरवौ,


सतु स्यात्वाक्पतिः साक्षात्प्रभाकर इवापरः (66 . 44)


गंगा या हरिद्वार महाभारतकालीन तीर्थ हैं


मातः शैलसुतासपत्नि वसुधाशृगांरहारावलि,


स्वर्गारोहण वैजयन्ति भवतीं भागीरथि प्रार्थये।


त्वत्तीरे वसतस्त्वदम्बु पिवतस्त्वद्वीचिषु प्रेसत


स्त्वन्नाम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः स्यान्मे शरीरव्ययः। (गंगाष्टकम् ।)


पृथ्वी की शृंगारमाला, पार्वती जी की सखी और स्वर्गारोहण के लिए वैजयन्ती पताका रूपिणी हे माँ भागीरथी, मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि आपके पवित्र, शीतल तथा सुखदायी तट पर निवास करते हुए और आपकी ओर टकटकी बाँधे हुए आपकी कृपा दृष्टि पाने के लिए मैं आपको देखता रहूँ और मेरा मोक्ष हो जाए।


भगवति तव तीरे नीरमात्रशनोऽहं


विगत विषयतृष्णाः कृष्णमाराधयामि


सकल कलुष भंगे स्वर्ग सोपान संगे


तरलतरतरंगे देवि गंगे प्रसीद। (गंगाष्टकम्) - भगवत्पाद श्री शंकराचार्य


देव देवि, आपके तट पर केवल आपका जलपान करता हुआ, विषयतृष्णा से रहित, मैं श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करूँ। हे सकल पाप विनाशिनी, स्वर्ग सोपान स्वरूपिणी, तरल तरंगिणी देवि गंगा मुझ पर प्रसन्न होइए।


ब्रह्माण्डं खंडयन्ती हरशिरसिजटावल्लिमुल्लासयन्ती,


स्वर्गलोकादापतन्ती कनकगिरिगुहागण्ड शैलात्स्खलन्ती


क्षोणीपृष्ठे लुठन्ती दुरितचयचमूर्निर्भरं भर्त्सयन्ती,


पाथोधिं पूरयन्ती सुरनगरसरित्पावनी नः पुनातु(गंगाष्टकम् 3)


ब्रह्माण्ड को फोड़कर निकलने वाली, महादेवजी की जटा रूपी लता को लहलहाने वाली, स्वर्ग लोक से आती हुई, सुमेरु की गुफा से उछलकूद करती हुई, शैल शिखरों पर झरती हुई, पृथ्वी पर लोटती हुई, पाप समूह रूपी सेना को डपटती हुई, समुद्र को जल दान करती हुई, देवपुरी को अमरता प्रदान करती हुई, सुरसरिता भगवती गंगा हमें पवित्र करे।


तत्पादशौचं जनकल्मषापह,


स धर्म विन्मूज़यदधात् सुमंगलम्।


यदेवदेवो गिरिशश्चन्द्रमौलिः


दधार मूर्ना परया च भद्रया। 8/18/28 - महर्षि वेद व्यास प्रणीत श्रीमद्भागवतपुराण


भगवान् विष्णु के चरण कमलों का धोवन गंगा जल है, इससे प्राणियों के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान् शंकर ने अत्यन्त भक्ति-भाव से उसे आदर देने के लिए अपनी तपः पूत पिंगल जटाओं में धारण किया। आज वही चरणामृत दैत्यराज परम धर्मात्मा महाराज बलि ने बड़े प्रेम और आदर से अपने मस्तक पर रखा।


धातुः कमण्डलुजलं तदुरुक्रमस्य,


पादावनेजनपवित्रा तथा नरेन्द्र


स्व(न्य भून्नभसि सा पतती निमा


लोकत्रयं भगवतो विशदेव कीर्तिः। 8/21/4 


ब्रह्मा के कमण्डल का वही जल विश्वरूप भगवान् के पाँव पखारने से पवित्र होने के कारण उन गंगा जी के रूप में परिणित हो गया, जो आकाश मार्ग से पृथ्वी पर गिरकर तीनों लोकों को पवित्र करती हैं। नि:संदेह गंगा जी भगवान नारायण की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति हैं।


कोटिजन्मार्जितं पापं भारते यत्नतं नृभिः,


गंगाया वातस्पर्शन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम्। 9/11/23 गंगा


। गंगा गंगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि,


सालों पर कारवां व तायामिन्दसानिया


जलयमा कलौ या च नान्यत्र पृथ्वीतले


स्वा च नित्य क्षीसभा ता गंगा प्रणमाम्यहम्।1236 - देवीभागवत महापुराण


अनेक जन्मों के किए गए पाप गंगा जल छूकर आने वाली पवित्र वायु के स्पर्श मात्र से नष्ट हो जाते हैं. ऐसा वेदमतावलम्बियों में सुना गया हैजो सौ योजन दर से भी गंगाऽऽ गंगाऽऽ पुकार उठता है, वह गंगाजी के केवल नामोच्चारण से ही समस्त पापों से मुक्त होकर बैकुंठलोक प्राप्त कर लेता है।


सतयुग में गंगाजल दूधिया रंग का, त्रेता युग में चन्द्रिका के समान, द्वापर में चन्दन की आभा वाला तथा कलियुग में जल की स्वाभाविक कांति वाला हैकिन्तु स्वर्ग में वह सदैव दुग्ध धवल ही रहता हैविविध वर्णाभा वाले जल से युक्त श्री त्रिपथगा गंगा को मैं प्रणाम करता हूँ।