गंगाजल नही साहब, गंगा परियोजनाजल कहिए

हाल-ए-नमामी गगें: 
||गंगाजल नही साहब, गंगा परियोजनाजल कहिए||


वैज्ञानिक शोधों के अनुसार और आम व्यवहार में गंगाजल की गुणवता है कि उस पानी में वैक्टिरिया का सवाल ही नहीं बनता। वर्षो तक लोगो ने गंगाजल को अपने घरो के बर्तनो में संभालकर रखा, पर गंगा का पानी पूर्व की ही भांति शुद्ध पाया गया। वर्तमान में गंगाजल की गुणवता उपभोक्तावादी प्रवृति ने खतरे में डाल दी है। गंगा के उद्गम स्थल पर ही प्लास्टिक आदि का कूड़-कचरा भारी मात्रा में दिखाई देता है। पहले पहल लोग जब गौमुख जाते थे तो वहां तेज आवाज में नहीं बोलना था, अपने पास जो भी कूड़ा-कचरा एकत्रित हो, पवित्रता बनी रहे, अपने पास वापस लाकर किसी अन्यत्र जगह पर इसका निपटारा करते थे। सो अब इसलिए नही हो पा पहा है कि लोगो की निर्भरता बजट पर चली गई है। 


उल्लेखनीय हो कि गंगा की अविरलता और पवित्रता के लिए स्वामी सानन्द ने अपने प्राण तक त्याग दिये। नदी बचाओ अभियान जैसे और भी कई आन्दोलन गंगा की स्वच्छन्दता के लिए गंगा के आबाद क्षेत्र में हो रहे है। मगर सरकार हैं कि इन आन्दोलनो और अभियानो की बात को नजरअन्दाज ही कर रही है। इतना जरूर हो रहा है कि जो भी प्रधानमंत्री इस देश की कमान संभालता है उसकी चिन्ता गंगा की स्वच्छता हो जाती है। फलस्वरूप इसके करोड़ो के बजट भी गंगा स्वच्छता के नाम पर स्वीकृत भी हो जाते है। सरकारी गंगा स्वच्छता कार्यक्रम या परियोजना के तहत तत्काल प्रधानमंत्री राजीवगांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक ना तो गंगा अविरल बह रही है और ना ही निर्मल हो पाई है। हां करोड़ो के बजट के हिसाब-किताब से कईयों फाईलो के पन्ने जरूर भरे गयें है। जो समाज में चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। जबकि प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट के मंत्री नितिन गडकरी बार-बार यह तय कर रहे हैं कि गंगा 30 दिसम्बर 2018 तक स्वच्छ व निर्मल दिखने लगेगी। 


जगजाहीर है कि जीवनदायिनी गंगा देश के एक चैथाई से अधिक क्षेत्रफल को सुख-समृद्धि से हरा-भरा कर बहती हैं। देश की लगभग आधी आबादी पानी के लिए गंगा पर निर्भर है। अर्थात गंगा का सवाल आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी खड़ा हो रहा है। गंगा को निर्मल बनाने के लिए मोदी सरकार ने पहली बार अलग से मंत्रालय बनाया। बजट भी दिया। ताज्जुब हो कि गंगा की धारा जिन पांच राज्यों से होकर गुजरती है उनमें से चार राज्यों ने इस मद में आवंटित बजट राशि का पूरा हिस्सा भी नहीं लिया है। केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती के अनुसार गंगा स्वच्छता के लिए दिये गये बीस हजार करोड़ के बजट में जिन राज्यों ने जो बजट लिया है उसे वे खर्च नहीं कर पाये है। हालांकि वे यह भी मानती हैं कि आवंटित राशि खर्च ना कर पाने की वजह लापरवाही नहीं बल्कि तकनीकी समस्याऐं हो सकती है। उनके मुताबिक 2018 तक गंगा सफाई के पहले चरण का काम पूरा हो जाएगा। 2018 से दूसरे चरण का काम शुरू होना है, यह काम 2020 तक पूरा होगा। इधर जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार बताया जा रहा है कि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल ने अपने लिए मंजूर धनराशि का पूरा इस्तेमाल नहीं किया है।


इधर संसद में हाल ही में पेश जल संसाधन संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट में राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना के तहत एक जवाब में बताया गया कि वर्ष 2017-18 के दौरान नमामि गंगे के तहत वास्तविक व्यय 1423 करोड़ रूपये रहा। वर्ष 2017-18 के दौरान कार्यकारी एजेंसियों सहित राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन द्वारा 1625 करोड़ रूपये व्यय किए गए। इसके तहत मंजूर 104 स्वीकृत जलमल आधारभूत परियोजनाओं में से अब तक 26 परियोजनाएं पूरी कर ली गई हैं। इसके तहत 24 परियोजनाओं को दिसंबर 2018 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है। छह परियोजनाओं को मार्च 2019 तथा 20 परियोजनाओं को दिसंबर 2019 तक पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। संसदीय समिति ने गंगा नदी की सफाई से जुड़े 'नमामि गंगे'' कार्यक्रम के महत्व को रेखांकित करते हुए जोर दिया है कि अब इस महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत परियोजनाओं को पूरा करने की तिथि को दिसंबर 2021 तक बढ़ाया गया है।


बताया जा रहा है कि गंगा नदी के जल परीक्षण के लिए इंजीनियरिंग के छात्रों को भी जोड़ने का फैसला किया गया है जिसके तहत कम से कम दो-ढाई सौ इंजीनियरिंग छात्रों को गंगा नदी के जल परीक्षण कार्य हेतु जोड़ा जा रहा है। इंजीनियरिंग के छात्रों को जोड़ा जाना एक अच्छी पहल कही जा सकती है किंतु 2,500 किलोमीटर से अधिक लंबी दूरी तक बहने वाली गंगा के लिए क्या दो-ढाई सौ छात्रों का संख्या बल पर्याप्त है? पिछले 32 वर्षो से गंगा सफाई के नाम पर हुई हिलाहवाली के कारण यह प्रकरण एक जनहित याचिका के जरिए सर्वोच्च न्यायालय से होता हुआ जब एनजीटी पहुंचा। कह सकते हैं कि यहीं से हर-हर गंगे, नमामि गंगे और गंगा कानून की प्रासंगिकता का सवाल आरम्भ होता है। एनजीटी ने उत्तराखंड सरकार को भी निर्देशित करते हुए कहा है कि वह गंगा और उसकी छोटी सहायक नदियों के तटीय क्षेत्र में होने वाले धार्मिक कार्यक्रम प्रतिबंधित करे। इन धार्मिक कार्यक्रमों के लिए कोई सुविधाजनक नियमावली बनाई जा सकती है।


हाल-ए-मौजू है कि गंगा को अपने उद्गम स्थल गंगोत्री से निकलने के बाद स्वच्छ रखने की सबसे पहली चुनौती पवित्र धर्मनगरी हरिद्वार से ही मिलती है। तमाम दावों और आदेशों के बावजूद गंगा यहां सर्वाधिक मैली है। हरिद्वार में 120 एमएलडी प्रतिदिन सीवर निकलता है जिसमें से 60 एमएलडी अर्थात लगभग आधा सीवर बिना शोधन सीधे गंगा में गिरा दिया जाता है। यहां स्थापित सीवर शोधन यंत्र की क्षमता सिर्फ 65 एमएलडी है। नदी किनारों पर कूड़े-कचरे के ढेर लगे हैं। यहां तक कि हर की पैड़ी सहित तमाम गंगा घाटों से बहकर गंदगी सीधे-सीधे गंगा में जा मिलती है।यह भी स्पष्ट है कि 26 फीसदी से अधिक कृषि भूमि गंगा घाटी में आती है जबकि 5 लाख हैक्टेयर कृषि भूमि सिंचाई के लिए निचली गंगा नहर पर आश्रित है।


कुलमिलाकार गंगा की पवित्रता, गंगा की अविरलता, गंगा की शुद्धता के लिए सरकार को चाहिए कि वे गंगा के नाम पर किसी भी विकासीय योजनाओं को अमलीजामा पहनाने से पहले गंगा, के आबाद क्षेत्र की आमजन की भावनानुसार बनानी होगी, पर्यावरण के सवालो का ख्याल भी रखना होगा आदि। पिछले 32 वर्षो से गंगा के संरक्षण पर हो रहे आन्दोलनो, अभियानो और विकासीय कार्यो से अब यह निष्कर्ष बता रहा है कि गंगा के प्रमुख भावनात्मक पक्ष जैसे धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलुओं पर फिर से मंथन करने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। वर्ना यह गंगाजल नही परियोजनाजल कहलाएगा।