गुणवता और शिक्षण-प्रशिक्षण के अभाव में बैकफुट पर क्षेत्रीय सिनेमा
उत्तराखण्ड का अछूता सौंदर्य हिंदी व क्षेत्रीय सिनेमा के लिए अव्यवस्थाओं के कारण महफूज ना हो परन्तु राज्य अपनी प्राकृतिक खूबसूरती और नैसिर्गिक सौंदर्य के लिए तो जाना ही जाता है। यह प्राकृतिक फिल्मसिटी है। जिसे थोड़ा सा व्यवस्थित करके परफेक्ट बनाया जा सकता है। हरे भरे पहाड़, कल.कल कर बहती नदियांए हरियाली की कालीन ओढ़े बुग्याल हजारों मील में फैला हिमालय और यहां का मदमस्त कर देने वाला मौसम हर लिहाज से एक उन्नत फिल्म उद्योग के लिए बेहतरीन व पसंदीदा हो सकता है। राज्य में न सिर्फ स्थानीय व क्षेत्रीय पहचान रखने वाले कलाकार है बल्कि यहां की प्रतिभाएं राष्ट्रीय स्तर पर भी सिक्का जमा रही हैं।
विडम्बना यही है कि राज्य में फिल्म व सिनेमा उद्योग बनना तो दूर अपने षैशव काल के लडखड़ने से भी नहीं उबर पा रहा है। चाहे वह क्षेत्रीय सिनेमा के प्रोत्साहन की बात हो या फिर हिन्दी फिल्मकारों को यहां षूटिंग के लिए आकर्षित करने का सवाल।सरकारें अब तक इस कार्य में फिसड्डी ही रही है। यह फिल्म उद्योग राज्य को आबकारी यानी षराब के राजस्व से 10 गुना ज्यादा राजस्व ही नहीं देता वरन बेहतर रोजगार का स्रोत भी बन सकता था। दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इस रोजगार और राजस्व दिलाने वाले संभावनाशील क्षेत्र को प्राथमिकता में लेना तो दूर राज्य की सरकारें आज तक अपनी कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति व फिल्म नीति तक नहीं बना पायी।
गौरतलब यह है कि राज्य में कई हिन्दी फिल्मों की श््ाूटिंग हुई है फिर भी हिंदी फिल्मों के नजरिए से देखा जाए तो भी अभी तक उत्तराखंड के सौंदर्यलोक का बड़ा हिस्सा फिल्मकारों की नजरों से ओझल ही रहा है। उत्तराखण्ड में मसूरी और नैनीताल के अलावा अनगिनत ऐसी फिल्म लोकेशन हैं जो न केवल अछूती हैं बल्कि सुंदरता के मामले में वे प्रकृति के स्वर्ग से कम नहीं हैं। चैकोड़ी, शीतलाखेत से लेकर चोपता और हर्षिल और हरकीदून तक पूरे उत्तराखण्ड में दर्जनों ऐसे खूबसूरत स्थल हैं जो जब कभी भी फिल्मों के पर्दे पर उतरेंगे तो दश्र््ांकों को मुग्ध कर देंगे। यहां कौसानी जैसा हिल स्टेशन है तो फूलों की घाटी में प्रकृति अपना बहुरंगी गलीचा बिछाए हुए है। मीलों लंबे बुग्याल के पठार इसे स्वार्गिक सौंदर्य से सजाते हैं तो सोमेश्वर से लेकर यमुना और भागीरथी की घाटियों का हरा विस्तारए बिनसर, दूधातोली, चकराता, जौनसार से लेकर कार्बेट और राजाजी पार्कों का वन्य सौंदर्य एक अद्भुद संसार रचता है।
दरअसल उत्तराखण्ड में प्रकृति का जो मोहक संसार है उसे हिंदी फिल्मों के पर्दे पर उतारे जाने का इंतजार आज भी है। कश्मीर से लेकर हिमाचल तक और विदेश में स्विट्जरलैंड की अधिकांश पहाड़ी लोकेशन को फिल्मों में दर्शाया जा चुका है। इनके मुकाबले उत्तराखण्ड का अछूता सौंदर्य हिंदी व क्षेत्रीय सिनेमा को ताजगी से भर सकता है। शायद ही कोई ऐसा मुम्बइया फिल्मकार हो जो इन वादियों के मोह पाश में बंध कर यहां शूटिंग के लिए खिंचा न चला आया हो। ग्रेट शो.मैन राजकपूरए बीआर चोपड़ाए शक्ति सामंतए तिगमांशु धूलिया से लेकर राकेश रोशन तक सभी यहां शूटिंग के लिए यहां पहुंचे। सरकारें चाहतीं तो इस कुदरती खजाने के दम पर यहां एक भरा.पूरा फिल्मउद्योग विकसित कर सकती थीं। सरकार और उसे चलाने वाले मुखियाओं की अदूरदर्शिता और गैरजिम्मेदार रवैये ने राज्य में फिल्म व सिनेमा के विकास के लिए जो बाधाएं खड़ी की लालफीताशाही की बीमारी से ग्रस्त नैकरशाही ने हमेश्द्मा ही उसे और ऊंचा किया। फिल्म विधा के जानकार बताते हैं कि विदेशों में शूटिंग पूरी कर ना उत्तराखण्ड में षूटिंग करने से सुगम भी है और सस्ता भी है यताजमहल पर फिल्म की शूटिंग का शुल्क दस हजार रुपए प्रतिदिन है लेकिन एफआरआई देहरादून में यह 70.000 प्रतिदिन। यहां आधारभूत सुविधाओं को अकाल है।
फिल्म की पूरी यूनिट और उसके तामझाम को दूरस्थ स्थानों पर ले जाने के लिए हवाई तो छोड़िए सड़क संम्पर्क तक नहीं है। कोई फिल्म निर्देशक अपने खर्च और जोखिम पर अगर आ ही जाए तो रुकने के लिए स्तरीय होटल इत्यादि की कोई व्यवस्था नहीं। महंगी कीमतों पर काम करने वाले नाज.नखरों में जीने वाले कलाकर इसी लिए इन लोकेशन को रिजेक्ट कर देते हैं। इससे भी बड़ी समस्या है कि कोई फिल्मकार किसी तरह से इस सब को मैनेज कर भी ले तो उसे आसानी से शूटिंग करने की अनुमति लेने में ही पसीने छूट जाते हैं। पहाड़ों पर शूटिंग करनी है तो पर्यटन विभाग से अनुमति लोए नदी में जंगल में शूटिंग करनी है तो वन विभाग से और गेस्ट हाउस में रुकना हो तो पीडब्ल्यूडी से अनुमति लो। एफआरआईए आरआइएमसी या आईएमए जैसे केन्द्रीय संस्थानों में शूटिंग करनी हो तो केन्द्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के चक्कर काटो। अगर फिल्मकारों को सिंगल विंडो पर ज्यादा मगजमारी के बिना शूटिंग की क्लियरेंश मिल जाए तो वे दोबारा क्यों नहीं आएंगे।
जैसा कि लंदन से प्रकाशित एक पुस्तक शूटिंग इन लंदन में बताया गया है कि किसी भी देश के फिल्मकार को लंदन में शूटिंग पूरी करने में वे आपकी कैसे मदद करते हैं। फिल्मकार मुजफ्फर अली बताते हैं कि यूरोप में शूटिंग यूनिट को एअरपोर्ट से ही रिसीव करने के लिए एक सक्षम अधिकारी आ जाता है। जिसकी जिम्मेदारी तय है कि वह आपकी हर तरह की सुविधाओं का ध्यान रखे। हर किस्म की परमिशन दिलाना अब उसका काम है। आप बस शूटिंग की चिन्ता कीजिए। इससे एक तो उन्हें राजस्व मिलता है और दूसरे उनके देश के पर्यटन का मुफ्त में प्रचार होता है। आज आपके पास अच्छी षूटिंग लोकेषन होने से कुछ खास नहीं होता। जब तक कि आप उन्हें सुलभ नहीं बनाते और उनकी व्यवस्थित मार्केटिंग नहीं करते। राज्य से कई एनएसडी स्नातक निकले हैं। हैदराबाद की रामो जी राव फिल्मसिटी की तर्ज पर यदि सरकार यहां भी कोई फिल्मसिटी विकसित करती तो निश्चित तौर पर यहां फिल्मकार ज्यादा संख्या में आते।
इसके अलावा पुणे फिल्म संस्थान व नोएडा और एनएसडी की मदद से सरकार को कोई फिल्म संस्थान यहां भी खोलना चाहिए था। अगर घर पर ही इस विधा की तकनीकी विशिष्टता सिखने को मिलती तो जूनियर आर्टिस्ट से लेकर अति कुशल तकनीशियन तक यहां पैदा होते। इससे स्थानीय लोगों को सीधे रोजगार मिलता और बाहर के निर्देशक को आसानी से कलाकार। फिल्मउद्योग के विकसित होने के साथ ही सीधे पर्यटन और होटल व्यवसाय को फलने.फूलने का मौका मिलता और स्थानीय युवाओं को रोजगार भी।
राज्य में सिनेमा के विकास के प्रति सरकार की उपेक्षा ने व्यक्तिगत प्रयासों की स्प्रिट को भी किल किया। बाहर से आने वाले फिल्मकारों को यदि छोड़ भी दें तो क्षेत्रीय सिनेमा तो जैसे खुद को अभी पहचान भी नहीं पा रहा हो। उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय सिनेमा की ऐसी स्थिति क्यों हैघ् जबकि गोआ, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट, असम या दक्षिण का सिनेमा राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी सशक्त हस्ताक्षर है। इन सवालों का जवाब देते हुए राज्य के प्रख्यात रंगकर्मी व फिल्मकार श्रीश डोभाल कहते हैं।
यूं तो जनपक्षधर सरकारी मशीनरी से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह जिस तरह से आर्थिक व कूटनीतिक व्यवस्था बनाती है उसी तरह से कला और सृजन को सुनिश्चित करने वाला कोई सिस्टम विकसित करे। यानी यह सरकार की जिम्मेदारी थी कि यहां की पारंपरिक लोक कलाओं और आधुनिक ललित कलाओं दोनों के फलने.फूलने के लिए माहौल बनाती। लेकिन यह राज्य का दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद यानी काफी हद तक एक व स्वायत्त सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाला राज्य बन जाने के बाद भी इस दिशा में सरकार कुछ नहीं कर रही। यहां दूसरे राज्यों की तरह का सिनेमा विकसित नहीं होने के पीछे की एक बड़ी वजह तो यह है। सरकार के संस्थानों द्वारा किए जाने वाले प्रयासों के अलावा समाज खुद अपनी कला को संरक्षित करता है।
दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से यहां अपना कोई लोक नाट्य नहीं रहा। धार्मिक अनुष्ठानों में ही नाट्य तत्व मिलते हैं। जैसे रामलीलाए जीतू बग्ड्वाली, पाण्ड्वाणीयमहाभारतद्ध, चक्रव्यूह, राजूला मालूशाही, साधू राम खेत्रपाल, माधव सिंह भण्डारी की गाथा इत्यादि। अपना लोक नाटक न होने के चलते हमारे रंगमंच या थिएटर का भी विकास नहीं हो पाया। अर्थात क्षेत्रीय सिनेमा के विकास मे थिएटर का जबदस्त योगदान रहा है। उत्तराखण्ड में सिनेमा विकास की सतत गति इसीलिए रूक सी गई। फिर भी यहां व्यक्तिगत तौर पर कई संस्थाओं ने शानदार काम किया है। हालांकि यह नैनीतालए अल्मोड़ा और देहरादून शहरों तक ही सीमित रह गया। अकेले नैनीताल से राजूशाह और सुदर्शन जुयाल जैसी हस्तियां निकली हैं जो कि फिल्म एण्ड टेलीविजन इंस्टूयूट ऑफ इंडिया पुणे से निकले थे।
नैनीताल की युगांतर संस्था से ही कम से कम 20 लोग राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय यानी एनएसडी के स्नातक हैं। लेकिन वे आज हैं कहंा? वे राज्य में रंगमंच के उत्थान के लिए काम क्यों नहीं कर रहे? क्यों वे माया नगरी की चकाचैध में गुम हैं? वरिश्ठ रंगकर्मी श्री डोभाल का कहना है कि जिस तरह से श्रीनगर मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए डिग्री के बाद पहाड़ पर अनिवार्य सेवा की शर्त है ऐसी ही शर्त उन एनएसडी पासआउट स्नातकों पर भी होनी चाहिए। राज्य के निति नियंताओं को संस्कृति, साहित्य, रंगमंच और फिल्म की कोई समझ है ही नहीं। वरना पारंपरिक जड़ें नहीं होने के बाद भी इसे सीखा जा सकता था। उनका आरोप है कि तथाकथित वुद्धिजीवी जो कि खुद को राज्य की बौद्धिक संपदा का ठेकेदार मानते हैंए उनकी छोटी सोच ने भी बहुत रोड़े अटकाए हैं।
शैलेश मटियानी जैसा साहित्यकार जिस दौर में होटलों में बर्तन मांझ रहा था और हद दर्जे की तंगहाली में भी अपनी साहित्य यात्रा जारी रखे था। उस वक्त ये बुद्धिजीवी सपरिवार विश्वविद्यालयों में पढ़ाने का समम्मान पा रहे थे। कई थे जो सक्षम थे लेकिन उन्होंने मटियानी को उसकी तंगी में मर जाने दिया। यह एक उदाहरण है। वुद्धिजीवियों के सामुहिक बोध की दरिद्रता का। बहरहाल इस समय राज्य के बदहाल सिनेमा के खंडहर पर वीडियो अलबम की खरपतवार उग आई है। इसने गुणवत्ता व सांस्कृतिक मूल्यों का जबर्दस्त ह्रास किया। यह बात दीगर है कि लगभग दो करोड़ सालाना आकार की यह सीडी इंडस्ट्री प्रत्यक्ष तौर पर दस हजार कलाकारों और कुल मिला कर लगभग 25 हजार लोगों की रोजी का साधन बनी हुई है। मनदनमोहन डुकलान बताते हैं कि यह इंडस्ट्री अभी गायकों के दम पर चलती है। इसे स्टार बेस होने में अभी लम्बा वक्त लगेगा। इस समय सीडी बानाने वाले अधिकांश प्रोडक्शन हाउस बाहर के हैं इसलिए वे कलाकारों का जबदस्त शोषण भी कर रहे हैं। कलाकार कितना ही पैसा खर्च करे उसे अधिकतम 50.000 ही मिलते हैं। कोई रायल्टी नहीं दी जाती। इस वहज से भी गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। जहां तक फिल्मों के विकास की बात है तो वह तो सरकार की प्राथमिकता में है ही नहीं। फिल्म जगत से जुड़े हुए और नैनीताल के होटल व्यवसाई इदरिश मलिक कहते हैं किए साल में पांच.छह फिल्म यूनिट को तो वही अपने प्रयासों से खींच लाते हैं। लेकिन जो फिल्म निर्माता यहां आता है वह सबसे पहले यह पूछता है कि उन्हें क्या सुविधाएं मिलेंगीघ् आज जमाना प्रोफेशनलिज्म का है।
इससे किसे इंकार है कि उत्तराखण्ड में मदहोश कर दने वाली फिजाएं हैं। बर्फीले पहाड़ों के नयानाभिराम नजारे हैंए नदियां झरने वह सब कुछ यहां मौजूद है जो दुनिया में दुर्लभ माना जाता है। लेकिन यह किसी काम का नहीं जब तक इसकी जानकारी बाजार को न हो। इसके लिए कुशल और ठोस रणनीतिक मार्केटिंग की जरूरत है। आज भी हम उत्तराखण्ड को सीधे मुम्बई से नहीं जोड़ पाऐं हैं। न तो अच्छा एअर लिंक है और न ही कोई सीधा रेलवे लिंक। हमारे पास इतनी शानदार लोकेशन हैं लेकिन वहां तक जाने के लिए कोई साधन नहीं। परमिशन लेने में ही पसीने छूट जाते हैं।
हेलिकॉप्टर पाना इतना आसान नहीं है। ऐसा लगता है ही नहीं कि हमारी सरकार को इसकी कोई परवाह भी है। राज्य में हिंदी और क्षेत्रीय सिनेमा के विकास के लिए राज्य सरकार को इस पेशे के जानकारों की एक कोर कमेटी का गठन करना चाहिए। इसमें पहाड़ से जुड़े क्षेत्रीय व मुम्बईया कलाकारों को शामिल किया जाना चाहिए। पूर्ववर्ती सरकार ने हिंदी व क्षेत्रीय फिल्मों के विकास के लिए फिल्म सलाहकार परिषद और हिंदी फिल्म सलाहकार परिषद जैसे दो बोर्ड तो बनाए पर उससे कुछ खास हुआ नहीं। क्योंकि इनमें जो बड़े मुम्बईया फिल्ममेकर रखे गए थे उनका पहाड़ से कुछ खास लेना.देना था नहीं। वे कहते कि यहां आने वाले फिल्माकारों को रियातें तो दी जाए पर उनसे शर्त भी रखी जाए कि कम से कम आधी कहानी तो राज्य की होनी चाहिए। शूटिंग अगर नैनीताल और भीमताल में हुई तो इसे पर्दे पर हिमाचल के इलाके कसौली का नाम देने के बजाए वास्तविक लोकेशन का नाम दिया जाना चाहिए था।
राजस्थान जैसे सुविधाओं के मामले में पिछड़े राज्य ने अपनी संस्कृति और सुविधाओं को इतना विकसित किया है कि फिल्मकार वहां जाना पसंद करते हैं। गोआ और हैदराबाद दूसरे उदाहरण बनते हैं। यहां कोई संस्थान नहीं होना भी एक बड़ा ड्रा बैक है। फिल्मसिटी का निर्माण तो दूर की बात है यहां तो सरकार ऑडिटोरियम तक नहीं बना पा रही है। श्री मलिक फिल्म और रंगमंच के अभिनेता रह चुके हैं। चांदनी और माया मेमसाब में अभिनय के जौहर दिखा चुके हैं। प्रख्यात गढ़वाली लोक गायक तथा हिमालयन फिल्म्स के संस्थापक नरेन्द्र सिंह नेगी राज्य में सरकारों द्वारा की जा रही सांस्कृतिक परिवेश की उपेक्षा से आहत दिखाई देते हैं। उनके अनुसार संस्कृति की रक्षा और संवर्धन के लिए बनाया गया पूरा विभाग जाने किस संस्कृति की रक्षा कर रहा है? जिन लोगों ने यहां के लोक गीतों और वाद्य्यों को अपनी जीवनशैली के साथ ढाल कर जिंदा रखा था उन्हें पूछने वाला आज कोई नहीं है। ऐसे आधिकांश कलाकार गुमनामी और तंगहाली का जीवन जीने को बाध्य हैं। साहित्य और संगीत या उससे जुड़ी हुई अन्य विधाएं सामाजिक चेतना को उभारने का एक शानदार माध्यम बन सकती थीं।
श्री नेगी कहते है कि अधिकतर लोक संगीत व गीत मुश्किल पहाड़ी जीवन की दुशवारियों को सामुहिकता के साथ जीतने के दौरान किए जाने वाले साझे श्रम से पैदा हुआ। यानी यह हमेशा से ही जनता के दुखों परेशानियों, उल्लास और जीवन के हर पहलू को स्वर देता रहा है। अगर इसी अन्तरवस्तु के साथ राज्य में सिनेमा को विकास किया जाता तो निसंदेह यह समाज को दिशा देने वाला सशक्त हथियार बन सकता था। इससे न सिर्फ रोजगार सृजित होता या सरकार को राजस्व प्राप्ति होती बल्कि यह रचनात्मकता को भी सृजित करता। बाहर से आने वाले फिल्मकारों की तो छोड़िए स्थानीय फिल्मकारों के लिए भी यहां शूटिंग कर पाना इतना आसान नहीं है। सल्याणा स्याली के गीतों के फिल्मांकन के लिए वे लगभग सभी कागजी औपचारिकताएं पूरी करके जोशीमठ गए थे। उन्हें एक गीत में सीमा पर तैनात सिपहियों को फिल्माना था इसके लिए उन्हें आखिरी समय तक भी अनुमति नहीं दी गई। लिहाजा यूनिट को बिना शूटिंग किए ही वापस आना पड़ा। 14 साल के बाद भी राज्य की कोई फिल्म नीति तक नहीं बन पाई है।
फिल्मों से जुड़ी हुई सारी कवायद एक मनोरंजन कर अधिकारी के दफ्तर की चाकर बनी हुई है। नरेन्द्र सिंह नेगी के बारे में इतना ही जानना काफी होगा कि 2006 में जब उन्होंने ''नौछमी नारेणा'' गाया तो यह उदाहरण बना कि किस तरह से लोक संगीत के माध्यम से षासकों की खामियों के खिलाफ जन की भावना को सिर्फ गीत के माध्यम से भी गोलबंद किया जा सकता है।यह चलचित्र वाली सीडी लाखों में बिक्री हुई। उस वक्त बीबीसी ने नरेन्द्र सिंह नेगी का आठ मिनट का इंटरव्यू लिया। ललित कला और रंगमंच से जुड़े हुए कलाकार नन्दकिशोर हटवाल बताते हैं कि राज्य की लोक कलाएं और साहित्य उन लोगों के साथ ही खत्म हो रहा है जो चंद इसके जानकार बचे हुए थे। इन कलाओं के संरक्षण के बारे में सरकार कुछ नहीं कर रही। आज इन्हें ऑडियो और वीडियो दोनों ही फार्म में संरक्षित करना कोई ज्यादा खर्च का काम नहीं रहा। इसके अलावा तमाम उत्सवों के आयोजन से इन कलाओं के प्रति नई पीढ़ी को इसके प्रति आकर्शित करने का काम किया जाना चाहिए था।
गोविन्द चातक जैसे लोगों ने इसे व्यक्तिगत प्रयासों से करने का प्रयास किया है। फिल्में और खास तौर पर आंचलिक और क्षेत्रीय सिनेमा का विकास इस बारे में ज्यादा कारगर हथियार हो सकता है। लेकिन सरकार को इससे कुछ लेना-देना नहीं है। वरना कितने लोगों को रोजगार मिलता। व्यवसायिक रूप से सफल नहीं हो पाने वाले कलाकारों को खास तौर से संरक्षण दिया जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए गंभीर प्रयास और इच्छाशक्ति चाहिए। 10 दिनों तक चलने वाले पांडव नृत्य को आप 30 मिनट की सीडी में रिकार्ड कर महसूस नहीं कर सकते। इसे अपने मूल रूप में ही संरक्षित करना होगा। एनएसडी के छात्र रहे सुभाष रावत बताते हैं कि कला संस्कृति से जुड़ी हस्तियों ने राज्य आंदोलन के वक्त यह सोचा था कि पृथक राज्य की मांग में उत्तराखण्ड की अलग संस्कृति एक महत्वपूर्ण कारक था। यह उम्मीद की जा रही थी कि राज्य कम से कम इस मामले में अपना परिदृश्य साफ रखेगा। सुदृढ सांस्कृतिक पृष्टभूमि, नैसर्गिक रूप से मिला हुए प्राकृतिक सौंदर्य हमारे यहां मजबूत फिल्म उद्योग के लिए षानदार आधार मुहैया कराता है। लेकिन यहां तो व्यक्तिगत प्रयासों को भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।
कला कलादर्पण उत्तरकाशी की ओर से 10 दिन का उत्सव आयोजित हुआ लेकिन किसी इसमें सहयोग की भावना तक प्रकट नहीं की है। अब लगता है राज्य आंदोलन से भी बड़ा कोई आंदोलन दोबारा करना होगा। फिल्म निर्देशक व एनएसडी पासआउट कलाकार एहसान बख्श के अनुसार उत्तराखण्ड प्राकृतिक सौर्दय के लिहाज से ही नहीं बल्कि आर्टिस्टिक पोटेंसियल के मामले में भी बहुत समृद्ध राज्य है। जितनी शानदार लोकेशन यहां मौजूद हैं उतने ही प्रतिभाशाली कलाकार भी यहां मौजूद हैं। अगर संभावनाओं की बात करें तो यहां यूरोप से ज्यादा संभावनाएं हैं। यहां मुख्य समस्या सरकार की और दूसरे सक्षम लोगों की मानसिकता एवं प्राथमिकता की है। 14 साल होने के बाद भी राज्य में कोई फिल्म विकास परिषद नहीं है। दूसरी बात रीजनल सिनेमा को यहां कोई सपोर्ट नहीं है। उन्होनेे आखरी मुनादी बनाई इसमें कोई भी स्थापित कलाकार नहीं है और बिना किसी के सहयोग के भी यह फिल्म अच्छा कर गई। अगर उन्हें प्रमोशन मिले तो वे कहां तक जा सकते थे।
1983 बैच के एनएसडी स्कॉलर रहे सुवर्ण रावत के अनुसार राज्य के पॉलिसी मेकर में जनता के प्रति एक्टिव एप्रोच ही नहीं है। कलाकारों को यहां अपने अस्तित्व के लिए बहुत स्ट्रगल करना पडता है। वे लोग राज्य में रिजनल फिल्मों का फेस्टेविल आयोजित करना चाहते थे। तब निर्मल पांडेय भी इसमें शामिल थे। उन्हें यहां के नकारात्मक रूख की वजह से फेस्टिवल को टाल देना पड़ा। राज्य में यदि फिल्म इंडस्ट्री पनपती है तो निश्चित तौर पर यहां से पलायान को भी रोका जा सकता है। राज्य में फिल्म निमार्ण की मूलभूत सुविधाओं का अकाल है। यह मानना है निर्माता निर्देशक महेश भट्ट का। वह कहते है कि न सिर्फ राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बल्कि घरेलू पर्यटन को भी वे प्रोत्साहित नहीं कर पा रहे। लोकेशन हंटर का काम यहां बेहद महत्वपूर्ण है। इस तरह से आप बाहर के निर्माताओं को यहां आकर्षित कर सकते हैं। दूसरी बात एक ही विंडो पर सभी सूचनाएं और अनुमतियों को क्लीयर होना चाहिए। लालफीताशाही के चलते निर्माताओं को जितने चक्कर लगाने पड़ते हैं और तब भी उन्हें वह नहीं मिलता जो वे चाहते हैं तो वे यहां के बजाए मॉरिशस या यूरोप क्यों न जाए।
असल बात तो यह है कि सरकार को सिनेमा से सरोकार ही नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या वे सिनेमा को समझते भी हैं? आज का फिल्म निमार्ण हमारी रचनात्मक अभिव्यक्तियों के स्तर का पैमाना है। लेकिन उन्हें फिर भी उस पर फक्र है क्योंकि यह भी उन्होने खुद अपने प्रयासों से सीखा जाना है। वह कहते हैं कि जहां तक सवाल इस बात का है कि सीडी फार्मेट ने चीजों को खत्म कर दिया। उनका मानना है कि आप यदि क्वालिटी देंगे तो यहां के सिनेमा हॉल मुम्बईया फिल्मों के साथ ही आपको भी दिखाना चाहेंगे। आप कोई बहुआयमी सिनेमा का सुविख्यात नाम यहां पैदा तो कीजिए। आंचलिकता का मतलब पहाड़ी बोलना ही नहीं होता। हमें व्यावसायिक रूप से ज्यादा जिम्मेदार होना होगा। वे मानते हैं कि सरकारी उपेक्षा के दौर में व्यक्तिगत प्रयासों के दम पर ही यह करना आसान नहीं है। लेकिन हमें रणनीतिक होना होगा। सिर्फ मेकिंग पर ही नहीं प्रमोशन पर भी ध्यान देना होगा। जरा सोचिए अगर थ्री ईडियट का इतना प्रचार नहीं किया गया होता तो क्या तब भी यह फिल्म इतना चलती? एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि अत्याधुनिक संचार माध्यमों ने आज कुछ सुविधाएं हमें दे दी हैं। और अगर हम सफल रहे तो हम आपको दो साल के भीतर 70 एमएम पर और सफल फिल्म दिखाएंगे। वे वादा करते हैं। नन्दा की पैली जात, उडना हमें नीले आसमां में, मैती इत्यादि फिल्मों में उन्होंने जिस तरह से तकनीक और लोकेशन का चुनाव किया है वह उनके इरादों और वादों पर यकीन करने की जमीन प्रदान करती है।
पेशे से फोटो जर्नलिस्ट कैलाश कंडवाल कहते हैं कि राज्य की रचनात्मक सोच नहीं बढने का परिणाम है इस विधा की एसी उपेक्षा। उनके अनुसार यह सिर्फ सिनेमा ही नहीं बल्कि समग्र संस्कृति के विकास की बात है। इसके लिए बड़े पर्दे पर जाना जरूरी है। बाहर के लोगों को यहां फिल्म बनाने के लिए बुलाया जाए, इससे प्रमोशन भी होगा। उनके अनुसार फिल्म तकनीक से जुड़े हुए किसी संस्थान की भी यहां स्थापना होनी चाहिए। वह देहरादून के एक संस्थान में मॉस कॉम पड़ाते भी हैं। उन्होंने तिगमांशु धूलिया की पान सिंह तोमर में इरफान खान और माहीगिल के साथ एक छोटी सी भूमिका भी निभाई है। वह रंगमंच से जुड़े हुए हैं और आंध्र के किसानों की आत्महत्या पर फार्म इन हाईटैक सोसाईटी जैसी डाक्यूमेंट्री कमेंट के लिए जाने जाते हैं। आंचलिक फिल्मों से जुड़े वरिष्ठ फिल्मकार एस.पी. ममगाई कहते हैं कि यह निसंदेह सरकार का जॉब है और दुर्भाग्यवश वह चुप है। निश्चित रूप से यह जबरदस्त रेवेन्यू और रोजगार देने वाला क्षेत्र है। लेकिन यह एक बेवशी ही तो है कि सरकारें शराब बेच कर पैसा कमाना चाहती हैं कला संस्कृति के विकास से नहीं। सरकार को एनएफडीसी के साथ मिलकर राज्य में फिल्म तकनीक के विकास पर औपचारिक व ठोस धरातल पर काम करना होगा। आज की आंचलिक फिल्में हमारी सांस्कृतिक थाती व राज्य की पहचान रही। सामूहिक जीवन शैली की प्रतिनिधि नहीं हैं। आज जो लोग यहां निर्णायक बने हैं वे इसकी तकनीक को 10 प्रतिशत भी नहीं जानते और वैचारिक रूप से तो अधिकांश षून्य हैं। ऐसे में सरकारों को कटघरे में खड़ा कर देने वाली पैरवी भी नहीं हो पा रही।
महेश भट्ट की फिल्म डांडी काठी की गोद मां से डेब्यू करने वाले अभिनेता अविनाश ध्यानी कहते है। वे पिछले दो साल से मुम्बई फिल्मइंडस्ट्री में हैं। यहां समुद्र के अलावा और कुछ नहीं है। जबकि उत्तराखण्ड में वह सब प्राकृतिक रूप से मौजूद है जिसे यहां स्टूडियों के अंदर आर्ट डायरेक्टर बनाते हैं। लेकिन यहां सिनेमा का मतलब नाच गाना भर समझा जाता है। दूसरे राज्यों में लोग सिनेमा को निमार्ण की जिम्मेदारी और संवाद के माध्यम की तरह इस्तेमाल करते हैं। मसलन अभी एक मराठी फिल्म आई ''लाल बाग'' पर बहुत कम बजट में यह शानदार फिल्म उन्होंने दी है। कुछ गंभीर लोग यहां भी हैं। अनुज जोशी की ''याद आली टिहरी'' ऐसा ही एक प्रयास है। अभी हमें इस विधा की तकनीक और रचनात्मकता को और गहराई से महसूस करने की जरूरत है।
अविनाश दूरदर्शन के सीरियल और कई टेलीफिल्मों में काम कर चुके हैं। आंचलिक फिल्म निर्माता एस.पी.एस. नेगी कहते हैं कि लोक भाषाओं और संस्कृति को नई पीढ़ी को हस्तांतरण के लिए आंचलिक फिल्म निमार्ण को प्रोत्साहन देना जरूरी है। वरना हिन्दी और अंग्रेजी का सांस्कृतिक हमला हमें हमारी जड़ों से काट देगा। वे सरकार से मांग करते रहे है कि राज्य में कम से कम दो स्टूडियो एक कुमाऊं में और एक गढ़वाल में होने चाहिए। फिल्म की डबिंग व अन्य कामों को सुगमता से पूरा करने के लिए लेब होनी चाहिए। कांग्रेस के समय पर राज्य फिल्म विकास परिषद का गठन हुआ था। उन्होने पूर्व मुख्यमंत्री श्री खंडूड़ी के सामने भी यह कहा कि इसके पुर्नजीवन और क्षेत्रीय फिल्म सलाहकार बोर्ड के गठन की जरूरत है। यह बात उन्होने पूर्व मुख्यमंत्री श्री निशंक को भी कही थी लेकिन कहीं कोई सुनवाई नही हुई है। आज कोई भी कलाकार नहीं बनना चाहता क्योंकि कलाकार बन कर भविश्य सुरक्षित नहीं होता। वे ओएनजीसी में नौकरी करते हैं। इसलिए यह षौक के स्तर पर पूरा कर लेते हैं। अधिकांश लोग जो आज इस क्षेत्र में हैं उन्हें रोटी के लिए कुछ और भी करना पड़ता है। जो कलाकार ही रहे आज उनकी दुर्दशा छिपी नहीं है। उन्होने ऐसे कलाकारों को पेंशन की भी मांग की थी। इसके अलावा कोई सुस्पष्ट फिल्म नीति का न होना भी राज्य में सिनेमा के विकास में बाधक है।
निर्माता निर्देशक सुनील बड़ोनी के अनुसार फिल्मों के माध्यम से पर्यटन की संभावनाओं का अच्छा.खासा प्रचार कर सकते थे। यह सरकार के सहयोग के बिना संभव नहीं है। अगर सरकार आंचलिक फिल्मों को प्रोत्साहन देगी तो बाहर के फिल्मकार भी यहां आएंगे। फूहड़ा आसानी से बिक जाती है। इसके बावजदू भी आज तक उत्तराखण्ड़ी सिनेमा ने भोजपुरी सिनेमा की तरह उस फूहड़ता की राह नहीं पकड़ी है। लेकिन यह ज्यादा दिन तक नहीं चल पाऐगा। इस विधा से जुड़े लोग बहुत कम जानते हैं कि यहां के कलाकारो में आपसी फूट मौजूद है। इससे पार पा कर ही सरकार पर लोग दबाव बना सकेंगे।
क्या है जो जरूर किया जाए
1. सरकार को चाहिए कि वह अपनी लोकेशनंस की एक्टिव मार्केटिंग करे, ताकि बाहर के फिल्मकारों को यहां शूटिंग के लिए आकर्षित किया जा सके। इसके साथ ही प्राथमिकता हो कि उन स्थानों पर सड़क और छोटे हवाई अड्डों, रोप वे तथा होटल जैसी आधारभूत सुविधाओं के विस्तार के काम को हाथ में ले। 2. सरकार एनएसडी और फिल्म संस्थान की मदद से राज्य में इस विधा को सिखाने वाला अपना स्तरीय संस्थान खोले। जहां रंगमंच, फिल्म, व टीवी सीरियल के हर क्षेत्र के कोर्स संचालित हों। इस संस्थान में पढने वालों के लिए कम से कम कुछ समय तक राज्य में ही काम करने की बाध्यता हो। 3. राज्य में फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन के लिए लैब खोली जाए। 4. राज्य में बनने वाली फिल्मों के लिए कोई पैनल या बोर्ड गठित किया जाए जिसमें राज्य के तथा बाहर के योग्य लोगों को शामिल किया जाए। या पैनल स्तरीय क्षेत्रीय फिल्मों का चयन कर उन्हें पुरस्कृत करें। 5. अच्छी फिल्मों को जिन्हें सिर्फ गुणवत्ता के आधार पर चुना गया हो विश्व भर में होने वाले फिल्म समारोहों में भेजने की जिम्मेदारी सरकार ले। 6. अच्छी फिल्मों को मनोरंजन कर माफ करने के अलावा सब्सिडी दे कर सर्पोट किया जाए। 7. राज्य के छोटे बड़े हर षहर में छोटे या बड़े प्रोजेक्टर वाले वीडियो या फिल्म पार्लर खोलने के लिए बेहद रियायती दरों पर लोन दिया जाए। 8. भारी-भरकम मनोरंजन कर कम करके फिक्चर हॉल का टिकट सस्ता करवाया जाए। स्थानीय फिल्में चलाने वाले हॉल को सब्सिडी दी जाए। 9. अच्छा काम करने वाले कलाकारों को पारदर्शी चयन प्रक्रिया के माध्यम से चुन कर सरकार द्वारा सम्मानित किया जाए।
उत्तराखण्ड में शूटिंग पर फिल्मकारों और कलाकारों की राय
-ः मेरी पसंदीदा जगह सिडनी है पर भीमताल के कुदरती नजारों से उसका कोई मुकाबला नहीं-प्रीति जिंटा।
-ः हिंदुस्तान में भीमताल जैसी कोई इतनी खूबसूरत जगह भी है मुझे पता नहीं था। मैं भीमताल पहली बार आया और इसके कुदरती सौंदर्य को देख कर हैरान हूं-ऋतिक रोशन।
-ः डीनो मोरिया रानीखेत का गोल्फ कोर्स देख कर मुग्ध हुई। यहां की हवाओं में भी संगीत सुनाई पड़ता है।
-ः विवेक ओबेरॉय का मानना है कि भीमताल और सातताल जैसे सुंदर लोकेशन दुनिया में दूसरी जगह देखने के लिए मैं लालायित रहती हूं।
-ः करिश्मा कपूर कहती है कि पहाड़ की सभी लोकेशनस बेहद खूबसूरत हैं पर वहां तक जाने के लिए सड़कों का नेटवर्क कहां है?
-ः सुभाष घई कहते हैं कि उत्तराखंड तो भाग्यशाली है जिसे प्रकृति का अकूत खजाना मिला है। देश-दुनिया से फिल्मकार यहां शूटिंग के लिए आएं इसके लिए सरकार को कुछ करना चाहिए।
-ः मुजफ्फर अली कहते हैं कि पहाड़ का फोक कानों में मिश्री सा रस घोलता है। फिर उत्तराखंड की हसीन वादियों के क्या कहने।
-ः रवीन्द्र जैन का कहना है कि राज्य के पास अकूत प्राकृतिक सौर्दय होने के बाद भी सरकार फिल्मों की षूटिंग को बढ़ावा नहीं दे पाई है। हिंदी फिल्मों की शूटिंग को बढ़ावा देने के लिए सरकार को रेल, हवाई और सड़क सुविधाओं के अलावा रिहाइशी सुविधाओं पर ध्यान देना होगा।
-ः हेमंत पांडे ने कहा कि वे तो पौड़ी का रहने वाला है। वहां की खूबसूरती को बखूबी जानता है। लेकिन स्विट्जरलैंड में शूटिंग करना उत्तराखण्ड से ज्यादा सस्ता है।
-ः तिगमांशु धूलिया ने बताया कि राज्य में शूट की गई फिल्में दीपक शिवदाशानी की फिल्म जूली, भीगी रात, शगुन, मधुमती, कटी पतंग, अनीता, गंगा तेरा पानी अमृत, गंगा की लहरें, गंगा की सौगंध, दिल दे के देखो, गुमराह, वक्त, शिकार, रामा ओ रामा, हसीना मान जाएगी, आन मिलो सजना, आऐ दिन बहार के, हरियाली और रास्ता, आई मिलन की बेला, तीसरी मंजिल, सन ऑफ इंडिया, जिस देश में गंगा बहती है, पतंगा, सन्यासी, आदि शंकराचार्य, मासूम, कलाबाज, लूटमार, हुकूमत, हिमालय पुत्र, हनीमून, अरमान, बाज द बर्ड इन डेंजर, कटी पतंग, राम तेरी गंगा मैली, वार्डर का एक गाना, कोई मिल गया, खून भरी मांग, संगम होके रहेगा, गुमराह, अर्जुन पंडित, शाबास, ट्रम्पकार्ड, जाना लेटस् फॉल इन लव, रामा ओ रामा, सलामी, सिर्फ तुम, विवाह, लक्ष्य, जाना, जानू, किसना, भारत भाग्य विधाता, काल, द लॉस्ट लीयर, प्यार जिंदगी है, आपकी कसम, घर का चिराग, आहिस्ता.आहिस्ता, चांद के पार चलो, टशन, बंटी और बबली, बाल कृष्ण, अभी तो जी लें, प्यार की धुन, कृष, नमस्ते लंदन, मेजर पान सिंह तोमर इत्यादि फिल्में षूट हुई है। मगर इनकी षूटिंग के दौरान फिल्मकारो को राज्य की तरफ से कोई खास रिस्पोंस नहीं मिला।
राज्य सरकार की ओर से फिल्मकारों को कोई सुविधाएं नहीं मिलती
हुनरवान फिल्मकार इस सरकारी उपेक्षा के बावजूद सिर्फ अपनी कला के दम पर राष्ट्रीय ही नहीं अंतरष्ट्रीय स्तर की फिल्म बना रहे हैं। ऐसी ही एक 25 मिनट की फिल्म है आखिरी मुनादी। यह फिल्म अब तक तकरीबीन 7.8 राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में जा चुकी है। अगर हुक्मरानों में जरा भी संवेदनशीलता बची होती तो इस फिल्म को मिल रही सराहना उन्हें झकझोर कर जगाने के लिए काफी होती। इस फिल्म के बारे में बताते हुए इसके कहानीकार और निर्दशक एहसान बख्श और कलाकार व रंगकर्मी डॉ॰डी.एन. भट्ट बताते हैं कि यह फिल्म महज तीन दिन में ही पूरी कर ली गई थी। इस फिल्म की पटकथा एक मुनादी करने वाले व्यक्ति पूरन सिंह और एक हवलदारिन के इर्द-गिर्द घूमती है। पूरन सिंह 30 साल से अपने दमुआ यानी ढोल के साथ सरकार के लिए अच्छी, बुरी, हर तरह की मुनादी करता रहा है। अपनी सेवा खत्म होते वक्त उसे जो आखिरी मुनादी करनी है वह उसी ठाबे वाली हवलदारिन की तबाही का दस्तावेज है जिस पर वह पिछले 30 साल से खाना खाता था।
यहां पर व्यवस्था के एक फरमाबरदार सिपाही को समझ आता है कि पिछले 30 सालों से वह जिस तरह बेपरवाह होकर लोगों के आशियानों की कुड़की, बेदखली इत्यादी की मुनादी कर रहा था। किस तरह से वह भी उस अत्याचार और शोषण की व्यवस्था का अंग था। एक औजार की तरह ही सही लेकिन वह भी शोषकों के साथ था उत्पीड़ित जनता के साथ नहीं। और अब वह अपना पक्ष चुनता है और जनता की आवज बनता है। यह एक जनपक्षीय कहानी है, जिसका परिवेश और गीत-संगीत सब कुछ उत्तराखण्डी है। इस फिल्म की षूटिंग एनटीटी बाजार अल्मोड़ा, हल्द्वानी, कमोला इत्यादि स्थानों पर हुई है। इस फिल्म में आलोक वर्मा, रीता देवी, डीएन भट्ट, सुरेश शर्मा, राजीव शर्मा, अनिल घिल्डियाल, गौरव जोशी, दिनेश जोशी इत्यादि ने काम किया। यह फिल्म इटली के फ्लोरेंस शहर में आयोजित रिवर टू रिवर फिल्म फेस्टेविलए बॉम्बे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टेविल, गोवा फिल्म फेस्टेविल, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के फिल्म फेस्टेविलस् में शिरकत कर चुकी है।
क्षेत्रीय फिल्में
जग्वाल, तुलसी घेमर,े कभी सुख कभी दुख, घरजवै, प्यारु रुमाल, कौथिग, उदंकार, रैबार, बंटवारू, फ्यूली, बेटी ब्वारी, चक्रचाल, ब्वारी हो तो इनी, सतमंगल्या, रामी वौराणी, किस्मत, तेरी सौं, जीतू बगड़वाल, चल कखि दूर जौला, छोटी ब्वारी, औंसी की रात, मेरी गंगा होली त् मै मु आली, मेरी प्यारी बोई, किस्मत अपणी अपणी, संजोग, सिपैजी, मेघा आ, चेली जैसी सैकड़ो आंचलिक फिल्में बनी है। मगर प्रमोषन और सरकार असुविधा के कारण क्षेत्रीय सिनेमा ने आकार नहीं ले पाया।
उतराखण्ड के बाॅलीबुड में प्रख्यात चेहरे
कमल मेहता, कैलाश जोशी मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री मंे धाक जमा चुके हैं। जबकि फिल्मकारो में केएन सिंह अभिनेता खलनायक हैं। हावड़ा ब्रिज, षाही लुटेरे, सिंदबाद विक्रम सिंह सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष व फिल्मफेयर के संपादक रहे। राम पहावा राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता। नई इमारत, षक्ति सामंत निर्माता, निर्देशक रमेश आहुजा, निर्देशक मीर रंजन नेगी, अभिनेता टॉम अल्टर, अभिनेता वरुण बडोला, अभिनेता अर्चना पूरन सिंह, अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी, चरित्र अभिनेत्री करूणेश ठाकुर, श्रुति उत्फत अभिनेत्री, आलोक उल्फत अभिनेता, हरवंश पापा, बीएस थापा निर्देशक, उस्ताद विलायत खां संगीत निर्देशक, परवीन सूद अभिनेता, सुभाष अग्रवाल निर्देशक, जितेन्द्र ठाकुर लेखक, प्रसून जोशी लेखक, विनोद तिवारी माधुरी के संपादक, तिग्मांशू धूलिया निर्देशक, निर्मल पांडे अभिनेता, हेमंत पांडे चरित्र अभिनेता, उदिता गोस्वामी अभिनेत्री, चित्रांक्षी रावत अभिनेत्री, अनुष्का षर्मा अभिनेत्री,