हाल-ए-दि़ल


हाल-ए-दि़ल


किससे शिकवा करूँ,
किससे करूँ जिक्र तकलीफों का।
कोई बेगाना होता तो कह देते,
हर दर्द में हाथ है अपनों का।
ये सोचा था कि,
हाल-ए-दि़ल सुना बैठेंगे
न था मालूम,
फिर अपना दि़ल जला बैठेंगे।
यूँ तो हर कोई कर रहा था,
मरहम लगाने की बात।
फिर एक-एक जख्म को, 
कुरेदने की कवायद कर बैठै।
रिश्तों की अहमियत,
वो क्या जानेगें भला।
गैरों की खातिर जो, 
खुद का ही घर जला बैठे।


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