हाल-ए-दि़ल
किससे शिकवा करूँ,
किससे करूँ जिक्र तकलीफों का।
कोई बेगाना होता तो कह देते,
हर दर्द में हाथ है अपनों का।
ये सोचा था कि,
हाल-ए-दि़ल सुना बैठेंगे
न था मालूम,
फिर अपना दि़ल जला बैठेंगे।
यूँ तो हर कोई कर रहा था,
मरहम लगाने की बात।
फिर एक-एक जख्म को,
कुरेदने की कवायद कर बैठै।
रिश्तों की अहमियत,
वो क्या जानेगें भला।
गैरों की खातिर जो,
खुद का ही घर जला बैठे।
यह कविता काॅपीराइट के अंतर्गत आती है, कृपया प्रकाशन से पूर्व लेखिका की संस्तुति अनिवार्य है।