जीवन कौशल की जरूरत

जीवन कौशल की जरूरत


अपरा बिष्ट


मैं किशोरी संगठन की सदस्य हूँ। दन्यां, जिला अल्मोड़ा, में कक्षा दस में पढ़ती हूँ। किशोरी संगठन में जुड़ने से पहले मुझे यह मालुम नहीं था,  कि विवाह की सही उम्र अठारह साल होती है। आज से कुछ समय पहले तक ही गाँवों में लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती थी।  लड़के को देखे-जाने बिना ही विवाह की सहमति हो जाती थी। यदि माँ-बाप ने हाँ कर दी तो बेटियाँ झुककर उस बात को मान लेतीं, चाहे वह लड़का उनके लिए सही हो या ना हो।जब हमें मालुम हुआ कि क्षेत्र में किशोरी कार्यशालाओं का आयोजन हो रहा है तो हम सभी लड़कियाँ वहाँ गयीं। वहाँ हमें बाल और महिला अधिकारों के बारे में बताया गया।  यह भी बताया कि हमें खुद लड़के को देख कर और सोच-समझ कर शादी के लिए सहमति देनी चाहिए । हमें इन कार्यशालाओं से बहुत लाभ हुआ है। विद्यालयी शिक्षा में किताबी ज्ञान होता है, लेकिन संस्था से हमें दैनिक जीवन में काम आनेवाली जानकारियाँ मिलती हैं। विद्यालय जाने के बावजूद हमें बाल-विवाह, अहिंसा-हिंसा, भेदभाव आदि मुद्दों का ज्ञान नहीं था। किशोरी कार्यशालाओं में जाकर हमने अपने हित के लिए लड़ना सीखा । अपने अधिकार समझे और अच्छे-बुरे का ज्ञान सीखा । मैं चाहती हूँ कि संस्था से लगातार जुड़ी रहूँ। किशोरी कार्यशालाओं से हमारे विद्यालय की छात्राओं ने खुलकर बोलना सीखा, आगे बढ़ना सीखा, बाहर जाना सीखा। पहले जब हमें या घर की अन्य स्त्रियों को माहवारी होती थी तो वे तीन दिन के बाद नहाती थी। इससे शरीर में गन्दगी हो जाती थीअब स्त्रियाँ रोज नहाती हैं। किशोरियाँ भरपूर भोजन लेती हैं और रोज कपड़ों को धोती हैं। समाज में किशोरियों के साथ अनेक तरह के भेदभाव होते हैंजैसे उन्हें विद्यालय ना भेजना, भरपूर भोजन ना देना, लड़की को बोझ समझना, जन्म से पहले ही मार देना, सही उम्र से पहले ही विवाह कर देना आदि जब भी मेरे साथ भेदभाव होता या लडकियों को बोझ समझने की बातें होती तो मैं खुद को लड़की होने पर कोसती थीमेरा दिल ही नहीं बल्कि रूह भी काँप उठती थी। मुझे लड़की होने का बहुत गम होता था। जब मेरी इच्छओं को ठुकराया जाता तो मन अशांत हो जाता था। अब इस विषय पर मेरी कुछ समझ बन रही है। मैं यह समझ पायी हूँ कि समाज में स्त्रियाँ दोयम दर्जे की भागी क्यों बन गयी हैं।  कच्ची उम्र में ही शादी के बन्धन में बँध जाने से ना रिश्तों की पहचान होती है, ना ही सही-गलत का आभास लड़कियाँ यह भी नहीं कह पाती कि उन्हें विद्यालय जाना है, खेलना है। हमें भी कुछ सपने देखने हैं।  लड़कियाँ यह बात मन में ही रखती हैं और बहुत ही डर कर रहती हैं। जब भी भ्रूणहत्या होती है तो हम सहेलियों के सीने में दर्द उठता है कि, उस अजन्मे शिशु को भी सपने देखने का हक है। जब कोई अपनी बेटी को जन्म से पहले ही मार देता है तो मेरा उस से यही सवाल है कि क्या वह एक इंसान नहीं? अगर जन्म से पहले उन्हें भी मार दिया जाता तो क्या आज वे लड़के पैदा करने का सपना देख पाते? मैं पहले इस बात को नहीं समझती थी। यह हिम्मत, यह दिशा, यह जोश हमें संस्था में आयोजित कार्यशालाओं से ही मिला है।  जब बेटियों का विवाह किया जाता है तो अभिभावक कन्यादान करते हैं। क्या वे लड़कियों का विवाह करके उसका दान कर रहे हैं? दान तो किसी वस्तु का किया जाता है । क्या लड़कियाँ कोई वस्तु हैं? अगर मुँह-माँगे दहेज के साथ विदा ना किया तो लड़कियों को ससुराल में चैन से जीने नहीं दिया जाता। जली-कटी सुनाकर उनका दिल दुखाया जाता है। दहेज ना लाने पर उन्हें मार दिया जाता है, जला दिया जाता है। बहुओं को मार पीट कर घर से निकाल देते हैं,इस वजह से अनेक स्त्रियाँ आत्महत्या कर लेती हैं।  आत्महत्या करना गलत बात है। हमें अपने हक के लिए लड़ना चाहिए चुप बैठे रहने से समस्या नहीं सुलझेगी। अगर हम इसी प्रकार चुप रहे तो दहेज ना आने पर जुर्म बढ़ते जायेंगे। कहा जाता है कि स्त्री में सहन-शक्ति होती है लेकिन इतना भी क्या सहना कि जीते हुए ही जिन्दा लाश बन जायें?  जाति की दूरियाँ भगवान ने नहीं बनायी। सभी इंसान एक समान हैइंसान धर्म से नहीं कर्म से बड़ा होता है। अगर कोई पंडित है, बुरे काम करता है तो वह कैसा इंसान है? जाति-विशेष के लोगों के साथ भोजन नहीं करना, उनके हाथ से छू ली गयी वस्तु को अशुद्ध मानना, उन्हें मंदिरों में ना आने देना, ये सभी सामाजिक बुराइयाँ हैं। जानवर भी प्रेम करते हैं, हम तो इंसान हैं। यह एक अच्छा संकेत है कि समाज में भेदभाव कम हो रहा है। फिर भी, इस दिशा में आगे बहुत काम करने की जरूरत है।