कार्तिक में नही मंगसीर में मनायी जाती है दीपावली


||कार्तिक में नही मंगसीर में मनायी जाती है दीपावली||


यमुना घाटी का भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्वरूप समतुल्य है मगर कागजो में यमुनाघाटी को क्रमशः तीन जनपदो टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून से जाना जाता है। इस भूभाग में उत्तरकाशी के नौगांव, पुरोला, मोरी, देहरादून के चकराता, कालसी व विकासनगर तथा टिहरी का थत्यूड़ विकास खण्ड आते हैं। यहां निवास करने वाले लोगो की सांस्कृतिक व सामाजिक मान्यतायें एकरूपता में ही है। यही नहीं हिमांचल प्रदेश के कूल्लू, शिमला, सिरमौर आदि क्षेत्रो में भी यमुनाघाटी के जैसे ही सांस्कृतिक समानतायें हैं। अर्थात इन क्षेत्रों में दीपावली का पर्व एक माह यानि मंगसीर माह में उन्ही तिथियों को मनाया जाता है।


यहां हम बात कर रहे है दीपावली के मनाने के तौर तरीको पर। देशभर में दीपावली के त्यौहार को लोग ''राम'' के संघर्ष और कहानी से जोड़कर मनाते है यानि की कार्तिक के माह में। परन्तु यमुना घाटी के सम्पूर्ण क्षेत्र में दीपावली के मनाने का रिवाज राज्य के अन्य भागो के अपेक्षा भिन्न है तथा अनूठा भी है। यहां पर दीपावली को लोग एक माह बाद यानि मंगसीर के माह में उन्ही दिनो जो दिन कार्तिक के माह में दीपावली के लिए तय हुआ था के दौरान ही मनाते है। इस त्यौहार को लोग अलग-अलग नामो से जानते है और मनाने का ढंग भी भिन्न है।


देहरादून के जौनसार-बावर (कालसी, विकासनगर, चकराता विकास खण्ड) में एक माह के बाद मनायी जाने वाली दीपावली को ढिपसा, दियांई कहते हैं तो वही नौगांव, मोरी, पुरोला व थत्यूड़ विकास खण्डो में लोग इस दीपावली को बग्वाल नाम से जानते हैं। परन्तु नौगांव विकास खण्ड की पट्टी बनाल में इस दीपावली को ''देवलांग'' नाम से जानते हैं। जबकि नौगांव विकास खण्ड की ही मुगंरसन्ती पट्टी, गोडर-खाटल पट्टीयों में मंगसीर माह में मनायी जाने वाली दीपावली को सामान्य रूप बग्वाल तो कहते है। मगर यहां दीपावली के तीसरे दिन जो कार्यक्रम देखने को मिलता है उसे वे लोग बाॅर्त कहते हैं। यह एक प्रकार से प्रतिस्पर्धात्मक होता है जिसका दृश्य रस्सा-कस्सी जैसी होती है। इन क्षेत्रो में कार्तिक मास के बजाय मंगसीर मास में दीपावली मनाने के कुछ कारण भी है।


पहला कारण बताया जाता है कि एक समय टिहरी रियासत में बीर माधोसिंह भण्डारी की किसी ने झूठी शिकायत की थी जिस कारण बीर माधोसिंह भण्डारी को टिहरी स्थित में कार्तिक की दीपावली के दिन राज दरबार जाना पड़ा और वापस घर आने में बीर माधोसिंह भण्डारी को देर हो गयी। इस कारण रियासत के लोगो ने अपने प्रिय नेता को दीपावली के अवसर पर अनुपस्थित पाकर दीपावली को अगले माह में धूमधाम से मनाने का निर्णय लिया। जनश्रुति है कि बीर माधोसिंह भण्डारी भी एक माह बाद ही मंगसीर माह की आमावस्य में ही घर में वापस लौटा। इसी दिन इस क्षेत्र में दीपावली के त्यौहार का भव्य आयोजन किया गया। तब से अब तक यह तारतम्य लोगो की परम्परा बन गयी। दूसरा कारण कुछ लोग बताते हैं कि कार्तिक माह में किसानो की फसल खेतो व आंगन में समेटने बावत बिखरी पड़ी रहती है। जिस कारण लोग खेती किसानी के कार्यो में व्यस्त रहते हैं। इस वजह से भी दीपावली को मनाने का समय लोग अपनी सुविधा अनुसार मंगसीर के माह में तय करते थे। जो कालान्तर में एक प्रकार से परम्परा बन गयी। यही नहीं एक माह बाद इन क्षेत्रो में आयोजित होने वाली दीपावली के पर्व पर और कई कहानियां भी जुड़ी है।


उतरकाशी के गैर गांव में ''देवलांग''
लोकश्रुति के अनुसार शिवपुराण व लिंगपुराण में श्रेष्ठता को लेकर आपस में प्रतिस्पर्धा होने लगी और ये दोनो एक दूसरे के बध करने पर आमाद हो गये। इस विद्रुप वातावरण को देखकर सभी सृष्टी के देवी-देवता व्याकुल हो उठे और शिवजी से शान्त माहौल बावत प्रार्थना करने लगे। शिवजी देवताओं की इच्छानुसार विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग के रूप में दोनो के मध्य खड़े हो गये। इसी बीच आकाशवाणी हुई कि तुममें से जो इसके आदि और अन्त का पता कर सकेगा वही श्रेष्ठ होगा। ब्रहमा जी ऊपर की ओर उड़े एवं विष्णु जी नीचे की ओर। वे कई वर्षो तक पता करते रहे परन्तु जहां से खोज में निकले थे अन्त में वहीं पंहुचे। अन्ततः दोनो देवताओं ने स्वीकार किया कि उनसे ऊपर भी कोई और श्रेष्ठ है। जिस कारण वे दोनो उस ज्योतिर्मय स्तम्भ को श्रेष्ठ मानने लगे।


इस लोकोक्ती से यमुनाघाटी के नौगांव विकासखण्ड के अन्र्तगत बनाल पट्टी में लोग मंगसीर माह की आमावस्य को आयोजित होने वाली दीपावली के पर्व को देवलांग नाम से मनाते हैं। जिसे वे साक्षात ज्योर्तिलिंग भी मानते हैं। यही वजह है कि लोग सांकेतिक ज्योर्तिलिंग अर्थात देवलांग की पूजा अर्चना भी करते हैं। इस क्षेत्र में देवलांग को बनाने का अनूठा रिवाज है। एक माह पूर्व लोग अपने आस-पास के जंगल में एक देवदार का सीधा, लम्बा-सुडौलनुमा पेड़ की खोज करते हैं। मंगसीर माह की दीपावली के दिन उस पेड़ को स्थानीय अनुसूचित जाति के लोग जड़ सहित ऊखाड़कर ले आते हैं। इस कार्य को वे भूखे पेट निभाते है। पेड़ गांव में पंहुचने के पश्चात लोग उनका तिलक अभिषेक करके स्वागत करते है। बनाल पट्टी के गैर गांव में इस पेड़ को गाड़ने व खड़ा करने के दृष्य को देखना ही अतिआकर्षक का केन्द्र है।


बनाल पट्टी के दो दर्जन से अधिक गांव के लोग लोक परम्परानुसार दो भागो में बंट जाते हैं जिन्हे सांठी व पांसाई नाम से जाना जाता है। ये लोग इतने लम्बे पेड़ को हाथ में लिये हुए डण्डो से खड़ा करते हैं और जहां इस पेड़ को गाड़ने के लिए गढा बनाया होता है बिना हाथ लगाये गाड़ देते है। इसके पश्चात अलग-अलग गांवो से पंहुचे लोग जूलूस की शक्ल में ढोल, गाजे-बाजो के साथ गीत गाते हुए, हाथ में जलती हुई मशाल लिए हुए प्रागंण में पहुचते है जहां पर उक्त पेड़ गाड़ा हुआ होता है। इस पेड़ को ही देवलांग कहते है। सांठी व पांसाई नामो से विभक्त हुए लोगो में देवलांग की चोंटी को छूने के लिए प्रतिस्पर्धा होती है। चोंटी को छूने के लिए जो करतब देखने को मिलते हैं वह बहुत ही मनोरम व रोमांचक दृश्य है। चोंटी स्पर्श करने के पश्चात हाथ में लिए मशाल से देवलांग को आग दी जाती है। इसके बाद सभी एकत्रित लोग हारूल, तांदी व रासौं नृत्य गाकर, नृत्यकर एवं चूड़ा, गुड, तिल, बांटकर रातभर जश्न मनाते है। इस आयोजन में यमुनाघाटी के लगभग 100 से भी अधिक गांव के ग्रामीण सम्मलित होते है। अब तो इस आयोजन को देखने बावत दूर-दराज के लोग सम्मलित हो रहे है।


सांठी और पांसाई क्या है
वरिष्ठ साहित्कार दिवंगत राजेन्द्र सिंह राणा 'नयन' ने अपनी किताब 'यमुनाघाटी की उपत्याकाऐं' में सांठी और पांसाई का जिक्र महाभारतकाल से की है। वे लिखते हैं कि यमुनाघाटी के लोगो ने तत्काल पाण्डवों और कौंरवों को महाभारत युद्ध में सहयोग किया होगा। इसलिए सांठी का मतलब साठ यानि पाण्डवों का सहयोगी दल और पांसाई का मतलब पांच सौ यानि कौंरवों का सहयोगी दल। सांठी एवं पांसाई थोक (ग्रुप) में बंटने वाले गांव क्रमशः ईड़क, सीड़क, थानकी, भानकी, छत्री, बिसाटगांव, घण्डाला, गौल, अरूण, व्यांली, गैर, कोटी, भटाड़ी, गडोली, सीना, कुण्डिला, भद्राली, बखरेटी, पुजेली, कुणी, कुण्ड, कोटला, नत्थेड़ गांव, सिशाला, काण्डा, बिगराडी, करनाली, जेस्टवाड़ी, पौड़ी, गुलाड़ी, झुमराड़ा, मठ, धौंसली, घुण्ड आदि।


ढीपसा और दियाई क्या है


जौनसार-बावर जनजाति क्षेत्र में ढीपसा का संबध रात में जो अलाव के रूप में जलाने का तरीका है उसे ढीपसा कहते हैं। अन्तर इतना है कि लोग दीपावली की रात्री को जो हाथ मे लिए हुए मशाल होते है उन्हे अन्त में एक साथ इक्कठा करके जलाते है उसे ढीपसा कहते है। जब यह ढीपसा जलता है तो उस समय स्थानीय धान के चावल से बनी चूड़ा को आपस में लोग बांटते है। तब तक रात खुल चुकि होती है। इसे दियाई या ढीपसा ही कहते हैं।


बग्वाल एवं बाॅर्त एक अद्भुत दृष्य
बाॅर्त का दृश्य सिर्फ व सिर्फ उत्तरकाशी के नौगांव विकास खण्ड की मुंगरसन्ती, गोडर, खाटल पट्टीयों में देखने को मिलता है। इन पट्टीयो में लगभग 250 गांव आते हैं। बाॅर्त को लोग बबूल घास से एक मोटी व लम्बी रस्सी बनाते है। इस रस्सी को गांव के अनुसूचित जाति के ही लोग बनाते है। सिर्फ कफनौल गांव में बाॅर्त नाम की रस्सी को पुआल घास से बनाते हैं। इसकी भी एक अजीब कहानी है। बताते हैं कि बबूल घास से बनी रस्सी ने एक बार अचानक सांप का रूप ले लिया था और रस्सी सांप के रूप में उड़कर आसमां की तरफ हवा हो गयी। तब से कफनौल गांव में बबूल की जगह पुआल से रस्सी बनाते हैं। दीपावली के तीसरे दिन सम्पूर्ण गांव के छोटे एवं बड़े पुरूष सांय को एकत्रित होकर इस रस्सी पर छोटे एक तरफ और बड़े एक तरफ प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होते है। रस्सा-कस्सी खेल की तरह इसमें जोर-अजमाइश तब तक करते हैं जब तक यह रस्सी टूट ना जाये। यह क्रम लगभग तीन से चार घण्टे तक चलता है। रस्सी टूटने के पश्चात सम्पूर्ण ग्रामीण और गांव में आये हुए मेहमान एक दूसरे को चूड़ा बांटते हैं। इस तरह रातभर तांदी गीत हारूल, रासौं आदि नृत्य चलता है। इस बाॅर्त नाम के खेल को गांव-गांव में लोग कौंरवो व पाण्डवो की कथाओं से जोड़ते है। कुछ लोग कहते हैं कि बाॅर्त तोड़ने का जो दृश्य होता है वह ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे समुन्द्र मन्थन हो रहा हो।


देवलांग देखने कैसे पंहुचे
यहां पंहुचने के लिए देहरादून से नौगांव व नौगांव से राजगढी वाले मोटर मार्ग से गडोली होकर गैर गांव पंहुचा जा सकता है। देहरादून से यह दूरी लगभग 160 किमी है। नौगांव से बस टैक्सी इत्यादी की सुविधा गैर गांव तक हर समय उपलब्ध है।