काश! उनकी सुध लेते, जो कला जो कला को खप गए

||काश! उनकी सुध लेते, जो कला जो कला को खप गए||



चली दस साल बाद ही सही, सरकार ने सुध तो ली संस्कृति के संवाहकों की। एक हजार रुपये में जैसे-तैसे जीवन बसर कर रहे थे, अब तीन हजार में कुछ तो राहत मिलेगी। संस्कृतिकर्मी भी इस फैसले से खुश हैं, लेकिन एक टीस है, जो रह-रहकर उभरती है कि काश! उन लोगों की भी सुध ली जाती, जो सदियों से अपनी संस्कृति और परंपराओं को जिंदा रखे हुए हैं। बात सही भी है, कोई व्यक्ति पेंशन पाने लायक तभी तो बनेगा, जब कला जिंदा रहेगी, लेकिन यहां तो उपेक्षा ने उसे कला से ही विमुख कर दिया। फिर उसका क्या होगा?


सूबे में बीते एक दशक के दौरान जितनी उपेक्षा संस्कति कर्मियों की हई, उतनी शायद ही किसी और की दर्द हो। यही वजह रही कि देवभमि की कोई पृथक सांस्कृतिक पहचान कायम नहीं हो पाई। कलाकार रोजी- - रोटी की फिक्र में अपनी कला से विमुख होने लगे और लुप्त होती चली गई हमारी समृद्ध परंपराएं। जिस ढोल को आदि वाद्य कहा जाता है, आज वह खंडहर हो चुकी।


खोलियों में दीवारों की शोभा बढ़ा रहा है, ढोली तो अब ढूंढकर भी नहीं मिलते। यही हाल उन कलाकारों का भी है, जिन्होंने अपनी परंपराओं की समृद्धि के लिए पूरा जीवन खपा दिया। कई कलाकार तो सदर पहाड़ों में जीवन से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं। कहां गए वे बाद्दी परंपरा के संवाहक, जिन्हें स्वयं प्रकृति ने यह कला सौंपी। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि आज वह स्वयं को बाद्दी कहलाने में भी झिझक महसूस करते हैं। पिछले एक दशक से यही तो लड़ाई चल रही थी कि आखिर सरकार इन कलाकारों की सुध कब लेगी। चलो 'देर आयद, दुरुस्त आयद'।


देर से ही सही, कुछ तो सुनवाई हुई, लेकिन सवाल फिर भी वही है कि क्या जरूरतमंदों को सरकार की इस पेंशन योजना का लाभ मिलेगा। कहीं ऐसा न हो कि चकडेत फायदा उठा ले जाएं और जो कला के लिए समर्पित हैं, टकर-टकर निहारते रहें।


- सरकार ने पेंशन बढ़ा दी, अच्छी बात है, लेकिन इससे भी अच्छी बात यह होगी कि उन औजी, जागरी व बादिदयों को इस पेंशन पाने का हक मिले, जो सदियों से हमारी परंपराओं को जीवन देते रहे हैं। ( नरेंद्र सिंह नेगी सुप्रसिद्ध लोकगायक)


- यह छोटा, किंतु महत्वपूर्ण कदम है। बुर्जुगों की सुध ली जाएगी तो युवा भी प्रेरित होंगे। जो अपनी परंपराओं से विमुख हो रहे हैं, वह जरूर वापस लौटेंगे। (रजनीकांत सेमवाल गढ़वाली संगीतकार)


- पहाड़ में कई ऐसे कलाकार हैं,जो कला के लिए खप गए, लेकिन उन्हें कोई नहीं जानता। अच्छा हो कि सरकार उन्हें सूचीबद्ध करे, ताकि वे भी सरकारी सुविधाओं का लाभ ले सकें।(संगीता ढौडियाल गढ़वाली गायिका)


- पुश्तैनी कलाकारों का तो आज भी शोषण हो रहा है। उनके लिए कोई सुविधा नहीं है। सही मायने में पेंशन के असली हकदार तो वही हैं। खासकर ढोल बजाने वाले तो आज भी वहीं हैं, जहां सदियों पूर्व रहे होंगे। (प्रेम पंचोली लोक कलाकार)


कोई कलाकार पेंशन लायक तभी बनेगा, जब कला को जिंदा रखेगा, लेकिन जैसे हालात हैं उनमें वह कला पर ध्यान दे या रोजी-रोटी पर। अच्छा तो यह होता कि सरकार कोई सांस्कृतिक नीति बनाती। (जयपाल सिंह रावत गढ़वाली कवि एवं गीतकार)