||किशोरियों में बदलाव||
जब से मैंने ऊष्मा संस्था के माध्यम से किशोरियों के साथ काम किया तब से क्षेत्र के गाँवों और विद्यालयों में जागरूकता बढ़ी है। क्षेत्र की सभी किशोरियाँ विद्यालय जाती हैं। विद्यालय की शिक्षा से किताबी ज्ञान तो मिल जाता है लेकिन वे जीवन कौशल नहीं सीख पाती । जैसे-अपने विचारों और भावनाओं को प्रकट करना । वे बोल नहीं पाती। हम संस्था के कार्यकर्ता यह समझने की कोशिश करते हैं कि क्यों कम बोल रही हैं। लिखने-पढ़ने में तो आगे हैं लेकिन बोलने में संकोच क्यों है? इसके लिये हम संकोची लड़कियों पर अधिक ध्यान देते हैं। उन्हें आगे बढ़ाते हैं। खेल और कहानियों के माध्यम से उनकी जरूरतों को समझते हुए काम करते हैं। हर एक किशोरी में विशिष्ट गुण और कौशल होते हैं। हम संस्था में शिविर लगाकर उनके कौशल व प्रतिभाओं को उजागर करते हैंरोल-प्ले, कहानियों एवं नाटकों के मंचन से विद्यालयों में कार्यशालाएं करते हैं इससे किशोरियों का संकोच कम हो रहा है। किशोरियाँ गाँव की गोष्ठियों में भी भाग लेने लगी हैं.
गाँव की महिलाओं व किशोरियों की गोष्ठी साथ-साथ करते हैं तो माँ और बेटी के बीच विचारों का टकराव भी होता है इस टकराव को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ संभालना पड़ता है। जैसे-गोष्ठियों में किशोरियाँ कहती हैं कि अभिभावक उनके साथ असमानता का व्यवहार करते हैं यह व्यवहार पढ़ाई के असमान अवसरों के अलावा घर के काम, इधर-उधर आने-जाने में रोक-टोक तथा कम उम्र में शादी करने जैसे मुद्दों पर दिखाई देता है। माँ-दादी के तर्क भी वाजिब हैं। वे बेटियों की सुरक्षा चाहती हैं। पहली और नयी पीढ़ी के बीच संतुलन बनाने का कार्य सरल नहीं है।
किशोरियों का कहना है कि अब वे थोड़ा-बहुत आगे बढ़ रही हैं। जैसे-उनकी पढ़ाई बीच में छोड़ देते थे लेकिन अब वे पढ़ा रही हैं। एक दशक पहले तक ही लड़कियों की शादी सोलह-सत्रह साल में कर देते थेअब किशोरियाँ कहने लगी हैं कि अभी शादी की उम्र नहीं है। वे पढ़ना चाहती हैं। किशोरियाँ भी शादी के निर्णय स्वयं लेने लगी हैंजैसे-शादी से पहले लड़के से मिलकर बातें करना, उसका व्यवहार समझना, लालच से शादी तो नन्दा नहीं की जा रही, यह समझना लड़की कह सकती है कि वह शादी के बाद भी स्वतंत्र जीवन जीना चाहती है.
जो लड़की पढ़ने में होशियार है, वह अपनी माँ से कहकर गाँव से बाहर जाकर पढ़ने की इच्छा जाहिर करने लगी है एक ऐसी ही गरीब परिवार की लड़की है। उसने बारहवीं कक्षा तक दन्यां गाँव में पढ़ा । वह विज्ञान वर्ग की छात्रा हैउसने अपने अभिभावकों से कहा कि उसे आगे पढ़ने की इजाजत दें जो पैसा उसकी शादी में खर्च होगा वह पढ़ाई में लगा दें। वह आगे पढ़ना चाहती थी। उसके पिताजी मना ही कर रहे थेमाँ ने पिताजी को मनाकर लड़की को आगे पढ़ने के लिए भेजा । अब वह अल्मोड़ा में बी. एस. सी. की पढ़ाई कर रही है। इसी प्रकार, दन्यां क्षेत्र के गाँवों में किशोरियाँ पढ़ाई के लिए काफी संघर्ष कर रही हैं.
इस बार हमने संस्था में किशोरी सम्मेलन किया तो दस-पन्द्रह गाँवों की किशोरियाँ आयीं। सभी ने अपने बारे में तथा दहेज-प्रथा, भ्रूण-हत्या, सामाजिक असमानता आदि मुद्दों पर विचार प्रकट किये।
कई ऐसी किशोरियाँ भी हैं जिनके मन में पीड़ा है लेकिन वे आगे आकर सब के सामने बोल नहीं पातीं। उन्हें विश्वास और सहारा देना जरूरी है। दूर-दराज के गाँवों की लड़कियाँ अभी भी काफी परेशानियाँ झेलती हैं वे निःसंकोच व बिना किसी डर के कहीं पर भी काम कर सकती हैं, ऐसा शैक्षणिक माहौल बनाना जरूरी है, तभी लड़कियाँ आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ सकेंगी। इसके साथ ही सभी वर्गों को आगे बढ़ाना है, समाज में ठोस कार्य करने की जरूरत है। दिल्ली-देहरादून आदि स्थानों पर आये दिन सेमीनार करने और पैसा खर्च करने से समस्या हल नहीं होगीगाँव में, समाज के बीच में, घर-घर में काम करने की जरूरत है। धन की आवश्यकता गाँव-गाँव में काम कर रही संस्थाओं को है, तभी बदलाव होगा.
विद्यालयों और गाँवों में आयोजित कार्यशालाओं से किशोरियों के बीच शिक्षण का दायरा बढ़ा है। वे समझ पा रही हैं कि स्वास्थ्य से संबंधित क्या समस्याएं हैंविद्यालय की शिक्षा के साथ-साथ जीवन-कौशल बढ़ाना जरूरी है। जरूरी है, रिश्तों के बारे में समझ बनाना खेलों, कहानियों गीत-नाटकों द्वारा किशोरियाँ जल्दी सीखती हैं। अगर हिम्मत है तो आगे बढ़ना चाहिये। दूसरों पर निर्भर नहीं होना चाहिये अगर आग है तो आग जलनी चाहिये । मन के भीतर की आग को बाहर निकालना जरूरी है। किशोरी और महिला संगठनों के माध्यम से सामाजिक शिक्षण तो होता ही है, दैनिक जीवन में काम आने वाली जानकारियाँ भी बढ़ती हैंइससे हिम्मत बढ़ती है और आगे काम करने के लिए दिशा मिलती है।