महिला संगठनों में गुणवत्ता

महिला संगठनों में गुणवत्ता


रेनू जुयाल


सन् 1987-88 में जब उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षा संस्थान, अल्मोड़ा से जुड़ी हुई संस्थाओं द्वारा कार्य की शुरूआत हुई तो गाँवों में महिलाओं व बच्चों की संख्या पुरूषों की अपेक्षा अधिक थी इस वजह से तय किया गया कि शिक्षा संबंधी कार्य महिलाओं और बच्चों के साथ हों। महिलाओं का भी यही कहना था कि बच्चों के लिये कुछ शैक्षणिक कार्य किया जाना चाहिए। इसी जरूरत के आधार पर संस्थाओं ने गाँवों में बालवाड़ी कार्यक्रम की शुरूआत की। धीरे-धीरे इस कार्यक्रम से महिलाओं का जुड़ाव हुआ और गाँवों में संगठन बनने लगे।


बालवाड़ी कार्यक्रम में खेल-विधि से बच्चों के शिक्षण का कार्य किया गया। बच्चे चार घंटे के लिए केन्द्र में आते। इससे महिलाओं का कार्य-बोझ कम हुआ। वे बच्चों को केन्द्र में छोड़कर खेती-जंगल के काम निपटा लेतीं। संस्थाओं ने माह में एक दिन महिलाओं के साथ बातचीत करने की पहल की।


महिला संगठनों का निर्माण


संस्थाओं द्वारा गाँव में कार्य शुरु करने के लिए महिलाओं से बातचीत की गयी। धीरे-धीरे महिलाओं के जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों पर चर्चा होने लगी। महिलायें संगठन के रूप में इकट्ठा होने लगींसंगठनों के माध्यम से सामुहिक हित के काम, जैसे-रास्ते और पानी के स्रोतों की सफाई, जंगलों की व्यवस्था में सुधार, एक-दूसरे की मदद, शराब-जुआ जैसी सामाजिक बुराइयों पर प्रतिबंध, ग्राम–कोष जमा करना आदि कार्य किये गये महिलायें गाँव से बाहर निकल कर अन्य संस्थाओं के कार्य देखने के लिए जाने लगीं। धीरे-धीरे साहस बढ़ा और वे अल्मोड़ा में आयोजित की जाने वाली गोष्ठियों में शामिल होने लगींआपस में अनुभवों और विचारों का आदान-प्रदान हुआ। गोष्ठियों में शामिल होने वाली महिलायें गाँव में वापस जाकर संगठन की अन्य सदस्याओं को भी शिक्षित करती थीं।


क्षेत्र स्तर पर गोष्ठियाँ एवं सम्मेलन


गाँवों से सभी महिलायें अल्मोड़ा नहीं आ सकती, इस वजह से मासिक गोष्ठियों के साथ-साथ आस-पास के संगठनों की । सम्मिलित गोष्ठियाँ भी आयोजित की गयींगोष्ठियों में महिलाओं की दशा सुधारने, कार्य-बोझ कम करने, शिक्षा के प्रति जागरुकता लाने, स्वास्थ्य-संबंधी जानकारियाँ देने, निर्णय की प्रक्रिया में महिलाओं के महत्व को बढ़ाने तथा कुरीतियों, कुप्रथाओं, अत्याचार के प्रति आवाज उठाने का साहस जगाने के प्रयत्न किये गयेइन प्रयासों से ग्रामीण महिलाओं को आभास हुआ कि उनकी आवाज सुनने वाला भी कोई है।


कम खर्चे में शौचालय निर्माण, नर्सरी (पौधशाला) बनाना, वनीकरण, जंगलों का संरक्षण और संवर्धन, दीवारबंदी, प्लास्टिक के अस्तर वाली टंकियों में वर्षा का पानी इकट्ठा करना, फलों के पेड़ लगाना, चाल-खाव बनाना आदि कार्यों से महिलाओं को सुविधा हुई।


सन् 2001 में उत्तराखण्ड महिला परिषद् का गठन किया गया। परिषद् उत्तराखण्ड के लगभग 490 संगठनों का एक वृहद् मंच है । परिषद् में लगभग अठारह हजार सदस्याएं जुड़ी हैं। इस से सभी क्षेत्रीय संगठनों को एक मंच मिला है। महिलाओं के हौसले बुलन्द हुए हैंउत्तराखण्ड महिला परिषद की कार्य-प्रणाणी की विशेषता यही है कि उपरोक्त सभी कार्यों से संबंधित निर्णय स्वयं महिलायें सामुहिक गोष्ठियों में लेती हैं।


क्षेत्रीय स्तर पर महिला संगठनों द्वारा किए जा रहे कार्यों में एक-दूसरे का सहयोग,एकल महिलाओं की मदद, गाँवों में आगंतुकों (फेरीवाले, बर्तन बेचने वाले, जेवर साफ करने वाले, लड़कियों की शादी की बातें करने वाले) की संख्या और कार्य-कलापों की जानकारी रखना और उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करना, शराब-जुआ आदि सामाजिक बुराइयों पर प्रतिबंध लगाना आदि कार्य शामिल हैं। संगठनों के दबाव से ग्रामवासी खुलेआम सामाजिक बुराइयों को नहीं अपनाते शराब पीकर गाली-गलौज, मारपीट एवं बच्चों को परेशान करने की घटनाओं में बहुत कमी आयी है।


संगठन की सदस्याएं गाँव में आंतरिक कोष जमा करती हैं जमा हुई पूँजी से सामुहिक जरूरतों की सामग्री खरीदती हैं। जरूरत पड़ने पर आंतरिक ऋण देकर एक-दूसरे की मदद करती हैं। जागरूकता बढ़ाने के प्रयत्नों के साथ-साथ संगठन रचनात्मक कार्यों से जुड़े रहते हैं। सन् 1980 के दशक में प्रति परिवार बच्चों की संख्या लगभग पाँच से सात तक थी। सड़क से दूर स्थित गाँवों में गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं का टीकाकरण नहीं होता था। धीरे-धीरे संगठनों के माध्यम से यह कार्य शुरू हुआ । संस्थाओं ने गाँवों में साफ-सफाई व पौष्टिकता के महत्व के बारे में बातचीत की। बच्चों और गर्भवती महिलाओं का वजन लिया गया। गर्भावस्था, प्रसव एवं माहवारी के वक्त साफ-सफाई का ध्यान रखना जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने का काम किया। इससे गाँवों में काफी बदलाव आया।


कार्यक्रम की शुरूआत में गाँवों में शिक्षा का प्रसार बहुत कम थाखासतौर पर बालिकाओं की शिक्षा के लिए सीमित सुविधाएं और अवसर उपलब्ध थे। फिर भी, धीरे-धीरे परिवर्तन हुआ। इनमें से कुछ बदलावों का उल्लेख इस प्रकार से है:


आज गाँव में मजदूरी करके जीवन-यापन कर रहे परिवार भी चाहते हैं कि उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। इस वजह से गाँवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा हैग्रामवासी शहरों और कस्बों में जाकर बच्चों को पढ़ा रहे हैं गाँव में पढ़ने के बाद लड़कियाँ शहरों में आकर उच्च शिक्षा ले रही हैं।


गाँवों में भौतिक सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ी है। जैसे-फ्रिज, पंखे, मोबाइल फोन, टेलीविजन आदि उपलब्ध हैं । रहन-सहन में बदलाव हुआ है। खान-पान और पहनावे में काफी बदलाव आया है। पहले से महिलायें मोटे कपड़े पहनती थीं। आजकल पतली साड़ियाँ और सलवार कमीज पहनावे में हैं बाजार पर निर्भरता बढ़ी है। खेती के प्रति लोगों को रुझान कम हुआ हैपहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे, अब अधिकतर परिवार एकल हैं। प्रति परिवार सदस्यों की संख्या कम हुई है।


घरेलू काम, पशुपालन, खेती, जंगल से लकड़ी, चारापत्ती, बिछावन आदि इकट्ठा करना आदि कार्यों को करने के तरीके में फर्क आया है। गाँवों तक बिजली, सड़क की पहुँच होने भौतिक सुख-साधनों में बढ़ोत्तरी हुई है। घर के भीतर उपभोग की वस्तुएं बढ़ने के साथ-साथ आडंबरपूर्ण जीवन-शैली विकसित हुई है।


ग्राम स्तर में बैठक करना पहले की अपेक्षा कठिन हो गया हैगाँवों में निवास कर रही नई पीढ़ी में उत्साह की कमी और हताशा दिखाई देती हैसभी आरामदायक जीवन जीना चाहते हैं। कठिन कार्य नहीं करना चाहते। बुजुर्ग महिलायें इस बदलाव को समझती हैं। बुजुर्ग स्त्रियों में साक्षरता की दर कम है लेकिन ज्ञान बहुत है, समझदारी ज्यादा है। गाँवों में गोष्ठियाँ करना इस वजह से भी कठिन हुआ है कि ग्रामवासियों के बीच आपसी-विश्वास में कमी आई है।


इस वजह से भी कठिन हुआ है कि ग्रामवासियों के बीच आपसी-विश्वास में कमी आई हैकिसी भी क्षेत्र में काफी लम्बे समय तक काम करने के बाद ही सफलता मिलती हैसामाजिक क्षेत्र में तीन या पाँच साल तक काम करने से बदलाव नहीं होता। सामाजिक बदलाव के लिए निरंतर प्रयास किये जाने आवश्यक हैंइस का मुख्य कारण तो यही है कि समाज में जटिलतायें बहुत हैं जैसे "सबको शिक्षा," "लड़का लड़की एक समान," "हम सब एक हैं," "जाति-पाति और भेदभाव मिटाना है," "धूम्रपान ना करें," आदि नारे पढ़ने और सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन व्यवहार में लाना कठिन है।


उत्तराखण्ड महिला परिषद् के गठन से राज्य की ग्रामीण महिलाओं को एक मंच मिला है। सबको अपनी बात कहने का अधिकार है। परिषद् ग्रामीण महिलाओं के सम्मान की हिमायती है। परिषद् के गठन से खेती के काम में एकल महिलाओं को सहारा हुआ है। मुखसार बंद करने से कृषि-व्यवस्था में सुधार आया है। साथ ही, सामुहिक नियम तोड़ने वाले परिवारों के लिए दंड का प्रावधान रखा गया है।दंड की राशि से महिला कोष में मूलधन बढ़ता है। पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ती हैसाथ ही, सरकारी योजनाओं तक संगठनों की पहुँच बनी है। इन सभी प्रयासों से महिलाओं की झिझक दूर हुई है। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। वे अपनी पीड़ा निर्भय होकर कह पाने की हिम्मत जुटा पायी हैंसंगठनों में एकता होने से सहयोग की भावना बढ़ी है। रहन-सहन, साफ-सफाई में बदलाव आया है। शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है। महिलायें अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं और संगठनों के काम-काज संभालने में सक्षम हैं।