मैं चाहता हूँ


|| मैं चाहता हूँ || 



मैं पचास पार का व्यक्ति
लौटना चाहता हूं
अपनी उम्र के आधे पर


तानना चाहता हूं
मुठ्ठियां





जलाना चाहता हूं
अंधेरे के खिलाफ
अपने भीतर आग


आग से फैलाना चाहता हूं प्रकाश


मैं चीरना चाहता हूं
काले घने बादलों को
जलाना चाहता हूं प्रेम की ज्योति


मैं अपनी मौजूदा उम्र के
आधे में लौटकर
अपने से भी कम उम्र के लोगों के लिए
खुला आसमान
रिमझिम बारिश लिखना चाहता हूं


मैं मुरझाई आंखों में
स्वर्णिम सपने बोना चाहता हूं


अपनी मौजूदा उम्र के आधे में लौटकर
मैं उस उम्र के भी
आधे में लौटना चाहता हूं


जहां मुझे मालूम न हो
किसी खास जाति का अंतर
किसी खास धर्म का विभेद


मैं खेलना चाहता हूं
बालमन के खेल


मैं लौटना चाहता हूं
उस उम्र में
जब मैं घुटनों के बल
घुस जाता था
किसी के भी घर के
धार्मिक स्थल तक
और
उलट पुलट कर देता था वहां रखी
आस्था से जुड़ी चीजें को


और तब डांटने के बजाय
मुझे गोद में उठाकर
दुलार देते थे वे


आज
उनके घर के सामने से
गुजरने पर भी


मेरे चेहरे पर देखते हैं वह
मजहब और जाती की रेखाएं


ऐसे में


मैं लौटना चाहता हूं
अपनी वर्तमान उम्र से पीछे
बहुत पीछे. ||



लेखक - वरिष्ठ पत्रकार है। आजकल बनारस में अमर उजाला संस्करण हेतु सेवारत है।
नोट - कृपया कविता को प्रकाशन हेतु लेखक की अनुमति अनिवार्य है। यह कापिराईट के अन्र्तगत आता है।