नजारा
अनंत में नारंगी के छिलके से प्रतीत होते बादल,
यकायक खोल देते हैं एक दरवाजा,
ठीक मेरी आंखों के सामने विलुप्त होते क्षितिज पर।
और कानों को पार करते
अजान के स्वर,
भेद देते हैं मन के पहरे को।
सांवला सलोना सा अंबर ,
अंधेरे का जामा लपेटे,
धीरे.धीरे रात को लाता है संग में।
रेलगाड़ी की छुक . छुक और सीटी,
हिला देती है पूरे समां को ।
मसूरी फिर झिलमिलाती, चुनरी को ओढे,
खींच लेती है आंखों की सारी रोशनी ।
नकाबपोश पर्वत घेर लेते हैं दून को, हर तरफ से,
बना देते हैं बंदी,
ताकि शाम आए घिरने को,
तो बचा लें वो अपना ठिकाना ।