पक्षी दुनियां: हिमालय से एक संगीतमय आवाज पर खतरा


||पक्षी दुनियां: हिमालय से एक संगीतमय आवाज पर खतरा||


पहाड़ यानि हिमालय, वह भी मध्य हिमाद्री। यहां हर कोने पर एक सुर संगीता की आवाज आपके कानो में सुनाई देती है। यह संयोग ही है कि यही आवाज आज भी पर्यावरण सन्तुलन से लेकर प्राकृतिक संसाधनो का संरक्षण कर रही है। इसमें भी वह जन्तु अर्थात पक्षी, जिसकी प्रजाती दिनप्रतिदिन कम हो रही है, मगर आज भी ये नदी, जंगल, झरना और पहाड़ की बात पक्षियों और उनके चहचहकाने के बिना कैसे पूरी हो सकती है। कह सकते हैं कि इसलिए पहाड़ जिन्दा है, की वहां पर आज भी प्रकृति संरक्षण के प्रहरी खड़े हैं। फलस्वरूप इसके झरनों की सुर-सरितामय आवाज, जंगल की सनसनाहट और पक्षियों की संगीतमय आवाज यू ही सुकून देती है। मगर आज के विकास ने इस जीवित प्राकृतिक सौन्दर्य पर खतरा पैदा कर दिया है।


रोकना होगा मानवीय दखल को
उतराखण्ड में मिश्रित वनों के महानायक और पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली, रक्षासूत्र आन्दोलन के प्रणेता और पर्यावरण के जानकार सुरेश भाई का मानना है कि पक्षियो का संसार इसलिए आज जिन्दा हैं कि यहां के लोग हमेशा प्रकृति संरक्षण के प्रति संवेदनशील है। जबकि सरकारे इस हिमालय की प्राकृतिक सुन्दरता को व्यवसायिक रूप से दोहन करना चाहती है। वे कहते हैं कि आने वाले समय में यह संकट बढने वाला है। इसलिए पक्षीपे्रमियों को राज्य के लोगो के साथ जल, जंगल, जमीन के आन्दोलनो में सरीक होना पड़ेगा। उनका यह भी मानना है कि पक्षी स्वच्छता की अवैतनिक कार्यकर्ता है। इसलिए पक्षी छोटी हो या बड़ी पर्यावरण के लिहाज से जिन्दा रहना अतिआवश्यक है। अनूप साह, सदस्य स्टेट वाइल्ड लाइफ एडवाइजरी बोर्ड का कहना है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भी बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप को रोकना होगा। तभी पक्षियों के प्राकृतिक वासस्थल बचेंगे। निचले भूभाग में पेड़ों का अंधाधुंध दोहन पक्षियों की विलुप्ति का कारण बन रहे। उन्होंने कहा कि माउंटेन क्वेल 1860 में स्नो व्यू से लगे सेंडलू (नैनीताल) में देखी गई थी। स्नो कॉक भी संरक्षित श्रेणी में आ गई है।


मानवीय हस्तक्षेप, वनाग्नि से भी पक्षियों पर खतरा 
हालांकि हिमालयी क्षेत्र की आबोहवा स्थानीय व मेहमान परिंदों के लिए माकूल स्थान देती है। पर मौजूदा समय में इसके वजूद पर संकट मंडराने लग गया है। हिमालयन माउंटेन क्वेल की विलुप्ति, फिर अस्तित्व को जूझ रहे वेस्टर्न ट्रेगोपैन व राज्य पक्षी मोनाल परिवार के चीर फेजेंट के बाद अब स्नो कॉक यानी हिमाल भी संरक्षित श्रेणी में शामिल हो गया है। विशेषज्ञ इसके लिए वनाग्नि, प्रदूषण व उच्च हिमालय में बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप को बड़ा कारण मान रहे हैं। ज्ञात हो कि पश्चिमी हिमालय में 2400 से 2500 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला वेस्टर्न ट्रेगोपैन पक्षी विलुप्त हो चुकी है। पांच से नौ हजार फिट की ऊंचाई पर पाई जाने वाली लंबी पूछ वाली बहुत ही सुन्दर चीर फेजेंट जहां दुर्लभ हो चली है, वहीं अब 12 से 19 हजार मीटर उच्च हिमालय पर मिलने वाले स्नो कॉक के अस्तित्व पर भी खतरा पैदा हो गया है। हिमालयी परिंदों के पर कुतरने के लिए वनों की आग में इजाफा हो रहा है।


बुग्यालों व अन्य वासस्थलो तक जलवायु परिवर्तन व ताप में भारी वृद्धि नजर आ रही है। मानवीय हस्तक्षेप और अवैध शिकार, कीड़ा जड़ी जैसी दुर्लभ जड़ी बूटी का गलत दोहन, कीटनाशकों व रसायनों का प्रयोग जैसी स्थितियां ना कि पक्षियों के वासस्थल पर खतरा पैदा कर रहे हैं बल्कि इनके जीवन पर भी खतरा पैदा हो गया है। जबकि इधर देखा जाय तो ''सन बर्ड परागण में सहायक, फ्लाई कैचर फसलों के दुश्मन कीटों का शिकारी, लाफिंग ट्रश जो मानव को तनाव मुक्त करता है, गिद्ध प्रकृति के सफाई कर्मी, गौरैया बचाती है धान व गेहूं की फसल'' जैसी पक्षियां मानवमित्र हैं।


प्रकृति और पक्षियों का परस्पर संबन्ध
उल्लेखनीय हो कि आजकल वर्ड वाचिंग का दौर बड़ी तेजी से बढ रहा है। यदि इस हिमालय में पक्षियां ही नहीं हों तो यह व्यवसाय लुढकर गिर जायेगा। यह व्यवसाय भी तब तक जिन्दा है जब तक जंगल, पानी के साथ-साथ पक्षियों का संसार जिन्दा है। जी हां! यहां हिमालय में पक्षियो का अलग संसार है। जो जिन्दा है। पक्षियो का संसार है तो यहां जंगल और पानी भी जिन्दा है। आजकल यह बत इसलिए उभरकर सामने आ रही है कि हिमालय के शिखर से एक मेहमान उतर कर हिमालय की गोद में आया है। जिसका इंतजार प्रकृति प्रेमियों को सदैव रहता है। ट्रैगोपान नाम की इस पक्षी को अपने कैमरे में कैद करने की होड़ लगी है। छः माह के प्रवास के बाद यह पक्षी फिर अपने आशियाने हिमालय के उच्च शिखर पर चली जायेगी। बहुत ही खूबसूरत और कोमल यह पक्षी आजकल पिथौरागढ के मुनस्यारी, उतरकाशी की हरकीदून, चमोली की उर्गमघाटी की पहाडियों को अपना वास स्थल बनाय हुई है।



क्या है ट्रैगोपान 
यह बेहद खूबसूरत पक्षी है जो शोर-शराबे से बिल्कुल दूर रहती है यानि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में। यह दुलर्भ पक्षी अपने छह माह के प्रवास के लिए मध्य हिमालय की गोद में पहुंचती है। उतराखण्ड हिमालय में मोनाल के बाद ट्रैगोपान पक्षी बर्ड वॉचिंग के लिए सबसे आकर्षण का केन्द्र है। हिमरेखा के पास रहने वाली ये पक्षी शीतऋतु में शिखर से उतरकर लोगो के इतने करीब आ जाती हैं और लोग सहजता से इनका दीदार करते हैं। अतएव उच्च हिमालय में हिमरेखा के नजदिक रहने वाली और शीतकाल में अधिकतम 22 सौ मीटर की ऊंचाई तक बसेरा बनाने वाले इन पक्षियों के चलते मध्य हिमालय की इस उंचाई पर पक्षियों का संसार भी बदल जाता है। ट्रैगोपान देखने में बेहद खूबसूरत होता है, जबकि मादा पक्षी गहरे भूरे रंग की होती है। इस पक्षी के लिए खतरे बहुत ज्यादा हैं। शिकारियों के निशाने पर यह अक्सर आता रहता है। इनकी घटती संख्या के पीछे का मुख्य कारण भी यही है। ट्रैगोपान भारत, नेपाल और भूटान के हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। गर्मियों में 8000 से 14000 फुट तक यह नजर आता है, जबकि शीतकाल में यह नीचे उतर आता है। 70 सेंटीमीटर ऊंचाई वाला यह पक्षी ज्यादातर बुरांश के घने जंगलों में रहता है। बेहद शर्मीले स्वभाव का यह पक्षी ज्यादा लंबी उड़ान नहीं भरता। यह पक्षी उच्च हिमालयन रेंज में ही नजर आया है। अमूमन 2900 से 34 सौ मीटर में रहने वाला ट्रैगोपान फीमेल को आकर्षित करने के लिए गले से नीला वेतल निकालता है। स्थानीय लोग लौंग नाम से भी इस पक्षी को जानते हैं।


आकर्षक का केन्द्र बनी यह पक्षी
उच्च हिमालय के दुलर्भ पक्षियों को देखने के लिए पर्यटकों की भीड़ अब जुटने लगी है। बीते वर्षों तक केवल स्थानीय लोगों में परिचित ये पक्षी अब दुनियांभर से आने वाले पर्यटकों के कैमरों में कैद हो रहे हैं। उतराखण्ड में अलग-अलग जगहो पर इस शीतकाल में बर्ड वांचिंग आरम्भ हो गई है। मोनाल संस्था के अध्यक्ष सुरेंद्र पंवार बताते हैं कि शीतकाल में पक्षियों को देखने के लिए देश ही नहीं बल्कि दुनियांभर के पर्यटक यहां पहुंचने लगे हैं। बर्ड वॉचिंग से पर्यटन बढ़ने के कारण लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। उनका कहना है कि जिस तरह से विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन होने लगा है उससे ऐसा लगता है कि आने वाले समय में यह व्यवसाय तो चैपट होगा ही बल्कि इस हिमालय में सांस लेनी भी मुशकिल हो जायेगी। उनका सुझाव है कि विकास के नाम पर पहाड़ के पर्यावरण को ना बिगाड़े। पहाड़ पर पानी पेड़ रहेगा तो पक्षियों का भी संसार रहेगा और लोग भी शुद्ध सांस ले सकेंगे। इसके अलावा यहां अन्य पक्षियों का भी एक और संसार है


कोकलास फीजैंट
यह पक्षी 2200 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाने वाला पक्षी है। कोकलास फीजैंट भी शरीर से तो बेहद खूबसूरत है लेकिन अपनी तीखी आवाज के कारणयह बदनाम है। यह अक्सर बांझ, बुरांश जैसी अन्य प्रजातियों के पेड़ पर छेद बनाकर अपना बसेरा करता है। यह भी बर्फिले स्थानो पर ज्यादा पाया जाता है।


रेड बुलफिंच
बुलफिंच नाम की यह चिडिया पांच रंगों की एक छोटी सी पक्षी है। फूलों का रस चूसने वाली यह पक्षी बहुत ही आकर्षक होती है। यह पक्षी केवल 25 सौ मीटर की ऊंचाई तक ही पंहुच पाती है। इस पक्षी को झाड़ीनुमा जंगल या चैड़ी पती के जंगल सर्वाधिक पंसन्द है। इसी तरह विंटर रेन भी छोटी सी फुदकने वाली चिड़िया है। विंटर रेन एक डाली से दूसरी डाली पर उड़ती है तो इसके सुनहरे पंख इसकी तरफ ध्यान खींचते हैं। गोल्डन बुश रोबिन पक्षी भी उच्च हिमालय में पाई जाती है। उच्च हिमालय की यह रंग बिरंगी छोटी सी चिडियां बेहद सुन्दर होती है। इसको देखना ही शुभ माना जाता है।


मोनाल 
मोनाल को सुरखाब नाम से भी जाना जाता है। इस पक्षी पर कहावत भी है कि ''लग रहा है सुरखाब के पर लगे हैं,'' इससे स्पष्ट हो जाता है कि पक्षी की खासियत क्या है। सुनहरे पंखों से लेकर खूबसूरत के फर वाला मोनाल अपनी उपस्थिति से जंगलो, पेड़ो की शोभा बढ़ा देता है। इसलिए यह उतराखण्ड में राज्य पक्षी का दर्जा प्राप्त कर पाया। साथ में सामान्य रंग वाली फीमेल मोनाल भी आसपास ही नजर आती है। मोनाल भी 22 मीटर तक ही अपना प्रवास करते हैं।