शराब माफिया का साम्राज्य

||शराब माफिया का साम्राज्य||


राज्य बनने के बाद भी पहाड़ शराब माफिया के शिकंजे से मुक्त होता नहीं दिखता। इसे सरकार की ईच्छा शक्ति में कमी कहा जाए या फिर चाहे पांच सौ करोड के राजस्व की हानि का भय, लेकिन सच तो यह है कि उत्तरांखंड में अब भी पहले की तरह शराब माफिया का साम्राज्य कायम रहेगा।


पिछले 19  बरस  में काफी कछ बदल गया। नया 'प्रदेश, नई सरकार और नया परिवेश लेकिन अभी भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं आया है। ये हैं पहाड़ की अस्मिता से जुड़े कुछ कड़वे सच, जिनमें शराब भी एक है।


राज्य के पहले मुख्यमंत्री बनते ही नित्यानंद स्वामी ने जोर-शोर से घोषणा की थी 'उत्तरांचल को नशा मुक्त राज्य बनाया जाएगा और यहां पूर्ण शराबबंदी लाग की जाएगी।' लेकिन इस दिशा में कोई पहल 19 वर्षो से नजर नहीं आयी हैं. हालात यह है की यहां मुख्यमंत्री की घोषणाओं का विश्लेषण करने का कोई मंतव्य नहीं है। दरअसल ये तो मात्र एक झलक है कि पहाड़ (यहां उत्तरांखंड से तात्पर्य है) के संदर्भ में घोषणाओं की क्या परिणीत होती है।


'यह पहाड़ का सच' है कि पिछले दो दशक से उत्तराखंड शराब माफिया के शिकंजे में छटपटा रहा है और इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं ब्यूरोक्रेट्स, पुलिस और माफिया की चौकड़ी।मोटा राजस्व एकत्र करने की आड़ में इस चौकड़ी ने पहाड़ की अर्थव्यवस्था को घुन की तरह चट कर दिया है।


पहाड़ के अधिकांश जिलों में आंशिक नशाबंदी लाग है और यही कारण है कि यहां माफिया को फलने-फूलने के लिए एक उपजाऊ जमीन मयस्सर है। यदि पहाड़ की बजाए 'उत्तरांखंड' का जिक्र किया जाए तो राज्य के तेरह जिलों में से देहरादून, हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर और नैनीताल के कुछ हिस्सों में शराब की खुली बिक्री होती है जबकि शेष में आंशिक मद्यनिषेध की नीति के तहत परमिट के आधार पर शराब बेची जाती है।


दरअसल परमिट आधारित शराब बिक्री ही समस्या की जड़ है। परमिट शराबियों को इस सर्टिफिकेट पर निर्गत किए जाते हैं कि उसके लिए शराब पीना जरूरी है। है न हास्यास्पद नियम। लेकिन फिर भी इसे अक्षरश: मान लिया जाए और प्रत्येक परमिट धारी प्रतिदिन एक बोतल शराब की खरीदे तो भी इसकी बिक्री की धनराशि उस आंकड़े के इर्द-गिर्द नहीं फटकती जो शराब माफिया पहाड़ से रोज इकट्ठा करता है।


सच तो यह है कि आंशिक मद्यनिषेध की आड़ में माफिया पूरे पहाड़ में मनमानी कीमतों पर अनाप-शनाप तरीके से शराब बहा रहा है। गौरतलब यह भी है कि सरकारी तंत्र की मिलीभगत से यहां वे ब्रांड भी बेचे जा रहे हैं जो और कहीं नहीं बिकते। यदि आंकड़ों को ही देखा जाए तो पहाड़ में वर्तमान में डेढ़ सौ से पौने दो सौ करोड़ की आय आबकारी राजस्व से हो रही है। लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि इससे दो-तीन गुना शराब माफिया द्वारा अवैध तरीके से इन आशिक शराबबंदी वाले जिलों में बेची जा रही है। आंशिक शराबबंदी का सबसे ज्यादा फायदा माफिया को हो रहा है लेकिन इसमें एक निश्चित हिस्सा नेताओं और अफसरों का भी है। यदि एक मुख्य कारण है कि पहाड़ में आंशिक नशाबंदी समाप्त कर पूर्ण खुली बिक्री की मांग वर्षों बिक्री की मांग वर्षों पुरानी होने के बावजूद आज तक भी पूरी नहीं हो पाई है।


शराब माफिया का जाल अत्यंत जटिल है। मिली भगत से हर वर्ष वही पुराने चेहरे अगर शराब के ठेके हथिया रहे हैं तो कैसे धनराशि में दस से पन्द्रह प्रतिशत तक की वृद्धि पर वही ठेकेदार हर वर्ष शराब व्यवसाय पर काबिज हैं। कुछ वर्ष पूर्व गढ़वाल मंडल में शीर्ष सहकारी संस्थाओं को शराब बिक्री के अधिकार आवंटित करने की उत्तर प्रदेश सरकार ने नीति तय की थी लेकिन यहां भी शराब माफिया अपना 'खेल' खेल गए। सरकार ने ठेके सपि तो सहकारी संस्था को ही लेकिन उन्हें अंदरखाने सवलेट' कर निजी हाथों के हवाले कर दिया गया। बवाल हुआ तो अगली बार 'सिस्टर कंसर्न' बनाकर अवैध प्रक्रिया को वैधता का चोला पहना दिया गया।


राज्य के प्रत्येक मुख्यमंत्री ने जन भावनाओं के अनुरूप घोषणा की है कि उत्तरांखंड में शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाएगा। लेकिन सच तो यह है कि उनके ही कई मंत्रिमंडलीय सहयोगियों ने खुले रूप में इस घोषणा को अव्यवहारिक माना। इनका कहना था कि हजारों करोड़ के कर्जे तले दबे उत्तरांखंड में करोडों के आवकारी राजस्व से भी। हाथ धोना गलत है। साथ ही हरियाणा और आंध्र प्रदेश में पूर्ण नशाबंदी के नतीजे से भी ये लोग चिंतित है। लेकिन यदि पर्ण मद्यनिषेध संभव नहीं है तो क्यों नहीं पूरे राज्य में खली विक्री कर दी जाए। इस सम्बन्ध में कोई कुछ कहने को तैयार नहीं। तो क्या यह समझा जाए कि अंदरखाने 'कुछ' है।


जबकि देश के नक्शे पर सत्ताइसवें राज्य के रूप में उत्तरांखंड का उदय हुआ है। जरूरी है कि नए राज्य के लिए एक नई आबकारी नीति शीघ्र घोषित की जाए ताकि राजस्व के इस भारीभरकम स्रोत का फायदा इसी राज्य को मिल सके।