सिर्फ जल दोहन, जल संरक्षण नहीं, मानसून पर ही निर्भरता

|| सिर्फ जल दोहन, जल संरक्षण नहीं, मानसून पर ही निर्भरता||




राज्यवासियों के हलक कैसे तर होंगे? जो अहम सवाल है। लगातार राज्य में भूजल का स्तर गिरते जा रहा है और संबधित विभाग है जो कुम्भकरणी नींद में डूबा है। प्राकृतिक जल स्रोत सूख रहे हैं, भूजल का स्तर अब आठ मीटर से भी नीचे चला गया है, राज्य में जनसंख्या बढ रही है। इसके अलावा राज्य में लोग गांव छोड़कर पास के कस्बों में आकर बस रहे हैं। ऐसे में शहर व बाजार का रूप लेते छोटे कस्बों में पानी की किल्लत का होना लाजमी है। मगर जो जल उपलब्धता पूर्व से थी वह अब आधी हो चुकी है। जल स्रोत कैसे रीचार्ज होंगे? पेयजल की सुचारू व्यवस्था कब होगी? ऐसे तमाम सवाल राज्य में लोगो के गले में कौंध रहे हैं।


उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून का उदाहरण इस बात के लिए काफी है कि लोग पेयजल की किल्लत से कैसे जूझ रहे हैं। जबकि इस अस्थाई राजधानी में सत्ता प्रतिष्ठानों के सभी लाव-लश्कर मुस्तैद रहते हैं फिर भी लोग पेयजल संकट का सामना करते ही हैं। देहरादून में बांदल नदी का एक ऐसा प्राकृतिक जल स्रोत है जिससे प्रतिदिन 220 लाख लीटर पानी लगभग दो लाख लोगो की पेयजल की आपूर्ती करता है। वर्तमान में बांदल स्रोत का पानी 140 लाख लीटर पर पंहुच गया है। यानि 80 लाख लीटर डिस्चार्ज कम हो गया है। इस स्रोत का पानी क्रमशः जल संस्थान के वाटर वक्र्स, घण्टाघर, पल्टन बाजार, चकराता रोड, राजपुर रोड, हाथीबड़कला, विजय काॅलोनी, सालावाला, ओल्ड सर्वे रोड, करनपुर, ईसी रोड, सर्वेचैक आदि क्षेत्रो में सप्लाई होता है। जबकि बाकि पानी की आपूर्ती बांदल स्रोत से ही पास के लाडपुर, सुन्दरवाला, रायपुर तपोवन, तपोवन इनक्लेव आदि स्थानो में होती है।


बता दें कि केन्द्रीय भूजल बोर्ड ने वर्ष 2000 से 2012 के बीच भूजल पर एक अध्ययन किया है। राज्य के कुल 15 क्षेत्रों को इस अध्ययन का हिस्सा बनाया गया, जिसमें देहरादून सबसे आपातस्थिति में आ रहा है। अध्ययन बताता है कि देहरादून का भूमिगत जल 08 से 12 मीटर नीचे चला गया है। ताज्जुब इस बात का है कि देहरादून का भूजल स्तर बड़ी तेजी से न कि सिर्फ रसाताल में जा रहा है बल्कि देहरादून उन जनपदो में पहले स्थान पर है, जिनका भूमिगत जल भूतल से सबसे निचले स्तर पर है। इधर देहरादून में भूमिगत जल का सबसे निचला स्तर 70.66 मीटर है। जबकि नैनीताल में यह स्तर 60.53, पौड़ी में 53.47 व


उत्तरकाश्ी में 36.85 मीटर है। इस तरह समझने की आवश्यकता इस बात पर है कि देहरादून में भूमिगत जल के रीचार्ज की कितनी जरूरत है। यह अध्ययन ऐसा संकेत भी कर रहे हैं कि हम लोग जल का कितना दोहन करते है, अपितु जल के पुनर्भरण की हम कोई कोशिश भी नहीं करते। यदि कोशिशें हो भी रही होगी तो वे सारी कोशिशे कागजो की धूल फांक रही है। अध्ययन के मुताबिक अकेले देहरादून के होटलो में 125 लाख लीटर पानी की खपत प्रति माह पंहुच जाती है। इसी तरह घरेलु उपयोग प्रति परिवार 10 हजार लीटर व प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 55 लीटर ग्रामीण क्षेत्र, 135 लीटर शहरी क्षेत्र पर अनुमानित पानी की खपत है। इस हेतु विभिन्न स्रोतो से देहरादून में पानी की उपलब्धता 215 एमएलडी प्रति माह है, जबकि देहरादून में पानी की कुल डिमाण्ड 260 एमएलडी प्रमिमाह है। यही नहीं यहां पानी की उपलब्धता कम है और पानी की खपत अधिक है, यह समस्या तो मुंहबायें खड़ी है ही, इधर 60 वर्ष से अधिक पुरानी पाईपलाईने हैं, जिससे 30 एमएलडी पानी रोजाना लिकेज से बर्बाद हो रहा है।


पेयजल के संकट के कारण राज्य के निवासी अपने पैतृक गावं से पलायन ना करें तो वे और क्या करे। उनके सामने दिन प्रतिदिन जल संकट एक अकाल के रूप में खड़ा हो रहा है। विभागीय आंकड़ो पर नजर दौड़ायें तो स्थिति और भी भयावह है। पिछले दिनों जल संस्थान, पेयजल निगम, जल निगम ने मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के सामने एक संयुक्त रिपोर्ट पेश की है, जिसमें बताया गया कि राज्य में 21 शहर ऐसे हैं जहां मानक के अनुसार पेयजल आपूर्ती हो रही है और 12 शहर ऐसे हैं जहां गांव के मानक सें भी कमतर में जलापूर्ती हो रही है। बताया गया कि मानक के अनुसार 135 एलपीसीडी से अधिक पानी शहरी लोग एवं 40 एलपीसीडी से अधिक पानी ग्रामीणों को मिलना चाहिए। पर 17 वर्षो में किसी भी सरकार ने इन मानको को पूरा नहीं कर पाया। अब राज्य के 72 शहर और 17417 बस्तियों को मानक अनुसार पेयजल आपूर्ती का इन्तजार इस वजह से है कि उत्तराखण्ड राज्य में डबल इंजन की सरकार है।
ज्ञात हो कि राज्य में पेयजल की आपूर्ती के लिए जल संस्थान और जल निगम ही जिम्मेदार है। ये ऐसे


विभाग हैं जिनमें कभी भी जिम्मेदारियों का अहसास तक नहीं हुआ। बजाय जल संस्थान व जल निगम आपसी खींचतान में हर वित्तीय वर्ष तक झगड़ते रहते है। यह सिलसिला राज्य बनने के बाद से अब तक जारी है। राज्य में कई गांव ऐसे हैं जहां की करोड़ो की पाईप लाईन जंक खा रही है। हालात इस कदर है कि जल संस्थान ने इन पेयजल लाईनों से अपना पल्ला ही झाड़ लिया है और पेयजल लाईने ग्राम सभा के अधीनस्थ कर दी गयी। इधर जल निगम योजनाऐं तैयार करते समय जल स्रोतो की क्षमता का ख्याल नहीं रखता। यही नहीं अधिकांश पेयजल लाईनों की योजनाऐं सूखे जल स्रोतो से बनाई जा रही है। इन योजनाओं को दबाव में तैयार करके जल संस्थान को हैंडओवर किया जाता है और तो और जल निगम की इस अनियमितता को दूर करने के लिए जल संस्थान कोई कदम ही नहीं उठाना चाहता। जिसका खामियाजा राज्य के लोग पेयजल संकट के रूप में भुगत रहे हैं। हालात सिर्फ पेयजल के मानको को लेकर ही नहीं है, पेयजल के अलावा बड़ी तेजी से विकसित हो रहे शहरों में जितने भी निर्माण के कार्य हो रहे हैं उनके लिए भी भूमिगत जल का उपयोग किया जा रहा है। भूमिगत जल के दोहन और पुनर्भरण के लिए हमारी सरकारों ने अब तक कोई कारगर नीति नहीं बना पाई। बहरहाल जल का दोहन ही हो रहा है, वह चाहे भूमिगत जल हो या प्राकृतिक जल स्रोत हों या नदी परियोजनाऐं। जल संरक्षण, जल संबर्द्धन की कवायद करने के लिए सरकारें फीसड्डी ही साबित हुई है। लोग सिर्फ व सिर्फ मानसून पर ही निर्भर रहने के आदि हो गये हैं।


राज्य में नये शहरों का गठन तेजी से हो रहा है। शहरी व ग्रामीण क्षेत्रो में मानक अनुसार पेयजल उपलब्ध करवाने को अगली योजनाओं पर काम किया जा रहा है। यही नहीं जल संरक्षण के लिए विशेष योजनाऐं बनाई जा रही है ताकि जल की उत्पादकता बढे और लोग बेहिचक जल दोहन भी कर सके। (- स्वर्गीय -प्रकाश पन्त , वित्त एवं पेयजल मंत्री रहे हैं उन्होंने 2017 में  प्रेस को सम्बोधित कर कहा था )