उम्मीद की किरण : बधाई शिरीष मौर्य


||उम्मीद की किरण : बधाई शिरीष मौर्य||


पंद्रह दिन की उत्तर-पूर्व की यात्रा से लौटने के बाद सुबह पांच बजे हल्द्वानी के अपने फार्म हाउस में लौटा हूं। करीब साढ़े छह बजे शिरीष का यह उत्फुल्ल कर देने वाला समाचार मिला कि वह आज महादेवी वर्मा सृजन पीठ के निदेशक का कार्यभार संभाल रहे हैं। क्या अब जिंदगी के दिन, महीने और साल बेहतर बीतेंगे?


पच्चीस साल पहले हम कई लोगों ने महादेवी की रचना-परंपरा के विस्तार के रूप में इस योजना की शुरुआत की थी। कुछ साल सुखद सपनों की तरह बीते। पूरी दुनिया में लोग इससे परिचित होने लगे थे। मगर एक दशक भी नहीं गुजरा था, कई लोगों के बीच छीना-झपटी हुई और यह संस्था लोगों की स्वार्थपूर्ति का हिस्सा बन गयी। सब कुछ बिखर गया।


अब उन बातों को दुहराने का कोई मतलब नहीं है। चिंता का सबब हिंदी रचनाकारों का वह समाज है जो लगातार अवसाद के गर्त में धंसता चला जा रहा है। महादेवी का समूचा जीवन इन्हीं चिंताओं के बीच बीता। याद है आपको, जब वो संस्कृत में एम ए करने का सपना लेकर बनारस गयी थीं और वहां के पंडितों ने यह कहकर लौटा दिया था कि ब्राह्मण न होने और स्त्री होने के कारण उन्हें वेद पढ़ने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। तब वो भी अवसाद में आ गयी थीं और उससे मुक्त होने के लिए ही बद्रीनाथ की पैदल यात्रा पर निकल पड़ी थी। 1935-36 में वापसी के वक्त रामगढ़ में उन्होंने अपनी प्रिय कवयित्री मीराबाई के नाम पर 'मीरा कुटीर' की नींव रखी। इस बीच उन्होंने दो क्रांतिकारी काम और किए - अपना अंतिम कविता-संग्रह 'दीपशिखा' (1936) का प्रकाशन कर कविताएं लिखना छोड़, गद्य लिखना शुरू किया और हिंदी के सबसे निर्भीक क्रांतिकारी कवि निराला को राखी बांधी।


महादेवी ने अवसाद-मुक्ति के लिए निराला की ही शरण क्यों ली? उनके समकालीन और कहीं आधिक समर्थ सुमित्रानंदन पंत थे, मैथिलीशरण गुप्त थे, मुकुटधर पांडेय थे, जयशंकर प्रसाद थे और थे प्रेमचंद!


महादेवी सृजन पीठ की रचना को लेकर मेरे मन में यही दबाव थे, जिनके साथ मैंने हिंदी पट्टी के रचनाकारों को जोड़ा, और इसका स्वागत भी हुआ।
मगर पिछले दो दशकों में ऐसा क्या घटित हो गया कि हिंदी लेखन फिर से अवसादग्रस्त हो गया? कई लोगों ने मुझ पर आरोप लगाया कि संस्था को विवि को सौंपकर मैंने अपने पांवों पर खुद कुल्हाड़ी चलाई, मगर क्या यह सच नहीं है कि इस संरक्षण के बिना महादेवी का यह घर किसी की मिल्कियत बनकर नष्ट हो गया होता, चाहे वह मैं ही क्यों न होता; जैसी कि उनकी बाईस नाली जमीन और उनके नाम पर बनाया गया सरकार द्वारा बनाया गया गेस्ट हाउस आनेक प्रभावशाली व्यक्तियों के द्वारा कब्जाया जा चुका है।
इसलिए शिरीष के लिए रास्ता आसान नहीं है, फिर भी उम्मीद इसलिए बनती है कि अब उनके ऊपर विश्वविद्यालय का छाता है। लोगों को आतंकित करने के लिए ही सही। उनके अपने हक में भी है कि विवि के वित्त अधिकारी के सहारे से उन्हें पैसे के आरोपों की फिक्र नहीं करनी है। अब यह चिंता हिंदी के सभी रचनाकारों की है, वे अवसाद से उबरें और उसी निर्भीकता के साथ एकजुट हों जैसे कभी निराला और महादेवी हुए थे।