उत्तराखंड का लोक पर्व

|| उत्तराखंड का लोक पर्व ||


भारत कृषि प्रधान देश है। इसलिए हमारे अधिकांश त्योहार ऋतओं से किसी न किसी रूप में संबंधित त में मन नाए जाने वाला संक्राति (मकर), उगादी, पड़वा, नवरात्र (चैत्र और शारदीय) तथा छठ पर्व और सावन में मनाया जाने वाला तीज का उत्सव और ऐसे ही न जाने कितने ही असंख्य उत्सव हैं जो कि ऋतुओं से संबंधित हैं । ऐसे ही उत्तराखंड का एक लोकपर्व है हरेला हरेला अर्थात हरियाली । 'हरेला पर्व' नई ऋतु के आगमन की सूचना देता है। वैसे तो सामन्यतया चार ऋतुएं गर्मी, बरसात, शरद व वसंत ऋतु है हरेले का पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार मनाया जाता है।


चैत्र मास में पहले दिन बोया जाता है व नवमी को काटा जाता है। श्रावण में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के पहले दिन काटा जाता है। इसी प्रकार अश्विन मास में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है। लेकिन उत्तराखंड में हरेले का यह पर्व श्रावण माह में मनाया जाता है। श्रावण लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ माह में ही हरेला बोने की परम्परा है। इसमें 5 या 7 प्रकार के अनाज को बोया जाता है। जिसमें गेहूं, जौ, धान, गहत (कुलथ), भट्ट (काला सोयाबीन), उड़द, सरसों आदि होते हैं। जिस पात्र में इसे बोया जाता है।


उसे नौ दिन तक लगातार प्रातःकाल पानी छिड़कते हैं और इसे सूर्य से बचाकर रखा जाता है और दसवें दिन तक इनकी लम्बाई 4 से 6 इंच तक की हो जाती है। इन्हें ही हरेला कहा जाता है और दसवें दिन इसे काटा जाता हैपरिवार का मुख्यिा या कुल का पुरोहित इसे काटकर बहुत आदर से परिवार के सदस्यों के शीश (सिर) पर रखता है और परिवार में अपने से छोटों के सिर पर रखते हुए आशीर्वाद देते हुए कहते हैं।


"जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये, हिमाल में हूंय छन तक, गंग ज्यु में पांणि छन तक, यो दिन और यो मास भेटनैं रये, अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये, स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।"


अर्थात हरियाला तुझे मिले, जीते रहो, जागरूक रहो, पृथ्वी के समान धैर्यवान बनो, सूर्य के समान त्राण, सियार के समान बुद्धि हो, दूर्वा के समान पनपो।


इस आशीर्वचन में प्र ति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैउत्तराखंड का यह पर्व प्र. ति के कितना निकट है। हरेला घर में सुख, समृद्धि व शान्ति के लिए बोया व काटा जाता है। हरेला अच्छी फसल का द्योतक है और इसे इस कामना से बोया जाता है कि फसलों को हानि न हो ऐसी भी मान्यता है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होगा उसकी फसल उतनी ही अच्छी होगी । हरेले को सामूहिक पर्व भी माना जाता है क्योंकि कई गांव इसे गांव के स्थानीय ग्राम देवता के मंदिर में भी बोते हैं और पुजारी आशीर्वाद स्वरूप हरेले के तिनके प्रदान करता है। इसी प्रकार संयुक्त परिवार में भी परिवार का मुखिया ही हरेला बोता है और इसे काटकर परिवार के सदस्यों को आशीर्वाद के रूप में देता है । यदि परिवार के सदस्य उस स्थान पर न होकर किसी अन्य स्थान पर हों तो उन्हें हरेला अक्षत व रोली के साथ अवश्य ही दिया जाता है चाहे इसे डाक द्वारा ही क्यों न भेजना पड़े । उस दिन घर में खीर, पूरी, हलवा व उड़द की दाल के पकौड़े (वड़ा) अवश्य बनाए जाते हैं।


उत्तराखंड में हरेले के इस त्योहार को वृक्षारोपण त्योहार के रूप में मनाया जाता है। सावन के महीने में हरेले के त्योहार दिन में हरेला पूजे जाने के उपरांत एक-एक पेड़ या पौधा अनिवार्य रूप से लगाए जाने की परम्परा है। ऐसी मान्यता है कि इस त्योहार के दिन किसी भी पेड़ की टहनी को मिट्टी में रोप दिया जाये तो पांच दिन बाद इसमें जड़ें निकल आती हैं और पेड़ हमेशा जीवित रहता है।


स्रोत - समाचार भारती, समाचार सेवा प्रभाग, आकाशवाणी