उत्तराखण्ड के शिल्पकार

उत्तराखण्ड के शिल्पकार


उत्तराखंड के शिल्पकार नाम से यह पुस्तक आपके हाथ में है। इस पुस्तक के 26 लेखों में शिल्पकारों के सवालों को जानने एवं समझने का एक साथ प्रयास किया गया है। तीन खंडों में विभाजित इस पुस्तक में शिल्प और शिल्पकार शब्दों के विस्तार के साथ ही पहाड़ी भूभाग में शिल्पकारों के इतिहास और देश की आजादी के बाद शिल्पकारों की स्थिति पर विमर्श का प्रयास किया गया है। पुस्तक के सभी विद्वान लेखकों ने समाज को समग्र दृष्टि से देखते हुए शिल्पकारों के सवाल पर शोध और लेखन कार्य किया हैपरन्तु इस पुस्तक का उद्देश्य किसी भी रूप में शोध ग्रंथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना नहीं है अपितु यह पुस्तक शिल्पकारों के इतिहास और वर्तमान से जुड़े सवालों के जबाव खोजता एक यात्रा का प्रस्थान बिन्दु है। इन अर्थों में यह पुस्तक शिल्पकारों से जुड़े अनेक समसामयिक सवालों के जबाव तलाशने की श्रृंखला की एक कड़ी है।


पुस्तक के प्रथम खंड 'शिल्प और शिल्पकार' के पहले आलेख में चमन लाल प्रद्योत ने वर्णव्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि किस प्रकार वर्णव्यवस्था के कारण समाज का सबसे उद्यमशील, प्रयोगधर्मी और आविष्कारक समाज सबसे पिछड़ा और उपेक्षित बना दिया गया।


दूसरे आलेख में दिनेश कुकरेती और केदार दत्त ने इतिहासकारों के बीच बार-बार विमर्श का मुद्दा बनते रहे शिल्पकारों को उत्तराखंड का मूल निवासी बताया है। लेखक द्वय का कहना है कि उत्तराखंड नाम से प्रचलित भूभाग के मूल निवासियों के बारे में बार-बार सवाल उठाया जाता है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि इस भूभाग के मूल निवासी वे लोग है, जिन्हें आधुनिक समय में शिल्पकार के नाम से संबोधित किया जाता है। जबकि उत्तराखण्ड के संवर्ण विभिन्न शताब्दियों में देश के विभिन्न भागों से यहां आकर बसे हैं। प्रथम खंड के तीसरे लेख में कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार उत्तराखंड के शिल्पकारों के इतिहास पर गहन दृष्टि डालते हुए लिखते हैं कि गढ़वाल के शिल्पकार यहां की प्राचीन आदिम जातियों किरात, पुलिंद और तंगणादि जातियों की संतानें हैं। लेखक के मुताबिक कुलिंद नाम के एक निवासी समूह का वर्णन महाभारत में भी आता है। पर्वतीय क्षेत्र एवं गंगा की घाटियों में रहने वाले तत्कालीन समाज को किरात कहा जाता थाचौथी सदी ईसवी पूर्व के प्रसिद्ध यूनानी राजदूत मेगस्थनीज, जिन्होंने भारत के उत्तरी भागों में भ्रमण किया था। उन्होंने अपने लेखन में उत्तराखंड क्षेत्र में किरात जाति का होना वर्णित किया है।


मेगस्थनीज के किरात जाति के वर्णन की पुष्टि प्राचीन पाश्चात्य इतिहासकार पेरिप्लस ने भी की हैरामायण में भी किरात जाति का उल्लेख मिलता है। वर्णन यह भी है कि राम के वन जाने पर उनके गुरू वसिष्ठ इसी किरात क्षेत्र हिमगांव (हिदांव-टिहरी गढ़वाल) में आकर एक गुफा में अपनी पत्नी अरुन्धति के साथ कुछ काल तक रहे थे। उत्तराखंड में वर्ण व्यवस्था शीर्षक से अपने लेख में एस. के. पंत कहते हैं कि ऐतिहासिक संदर्भ स्रोत इस तथ्य की पुष्टि करते है कि उत्तराखंड में वर्ण आधारित व्यवस्था प्राचीन समय से थी। आरम्भ में यहां का समाज रंग भेद पर आधारित था। जिसे आर्य और आर्येत्तर कहा जा सकता है। समय-समय पर प्राप्त हुए अभिलेख इस तथ्य की पुष्टि करता है कि इस समय तक यहां वर्ण आधारित व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी।


मध्यकाल में महाराष्ट्र, राजस्थान आदि राज्यों से ब्राहम्णों और क्षत्रियों के इस क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व यहां का समाज सवर्ण (बिठ) और असवर्ण (बैरसुआ) इन दो भागों में व्यक्त था। शिल्प और शिल्पकार खंड के पांचवे लेख में सुबर्द्धन जादी से लगभग दो दशक पूर्व 1931 की जनगणना को आधार बनाकर तत्कालीन शिल्पकार समाज की स्थितियों की पड़ताल कर रहे हैंअगले आलेख में भोला दत्त गढ़वाल के शिल्पक पर आर्य समाज के प्रभाव को बता रहे हैं। श्री दत्त लिखते हैं कि ऊंची जातियों के शोषण और दमन का शिकार हुए शिल्पकार किस प्रकार आर्य समाज के जनजागरण अभियान से जुड़कर सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन की लड़ाई में शामिल हुए थेआर्य समाज के प्रभाव के कारण ही गढ़वाल के शिल्पकारों का जनजागरण हुआ और वे आजादी के आंदोलन में बढ़-चढकर शामिल हुएलेखक ने अपने लेख में गढ़वाल के शिल्पकारों के शिल्प के बारे में भी बताया है। प्रथम खंड के अंतिम लेख में एन. आर. बौद्ध ने उत्तराखंड के विभिन्न भागों में शासन कर चुके नागवंशी शासकों के बारे में सबिस्तार बताया है। बौब ने अपने लेख में लोहारों से संबंधित उत्तराखंड के अनेक स्थानों का भी वर्णन किया है।


पुस्तक के दूसरे खंड 'शिल्पकारों के विविध आयाम' में शामिल नौ लेखों में शिल्पकारों की विरासत और उनके सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर लेख हैं। खंड का पहला लेख आद्य बौद्धिक चिंतन के संवाहक दास शिल्पकार में प्रो. महेश्वर प्रसाद जोशी लिखते हैं कि किस प्रकार उत्तराखंड के प्राचीन शिल्पकार तांबा, कांसा और लोहा बनाने की कला में निपुण थे। मुगलकाल में उत्तराखंड हिमालय में निर्मित तलवारों एवं कटारों की मैदानी क्षेत्रों में बहत मांग थी।


उत्तराखंड हिमालय के शिल्पियों ने लकड़ी के आड़े-तिरछे धरनों जोड़कर 15-17 मीटर ऊंचे भूचाल अवरोधी भवनों का निर्माण किया है। इतना ही नहीं नौल, घट और सांण जैसी जल तकनीकी के उत्कृष्ट नमूने भी उत्तराखंड में शिल्पकारों की ही देन हैं। उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत के संवाहक औजी शीर्षक से अपने लेख में शन्तन सिंह नेगी ने संस्कृति संरक्षक के रूप में शिल्पकारों को रेखांकित किया हैनेगी ने लिखा है कि उत्तराखंड में दास. बाजगी, औजी समाज के अतरग व अभिन्न वर्ग हैं जो यहां सेवक, वादक, संगीतज्ञ, देवोहवानक, मनोरंजक के रूप में कार्यशील रहे हैं। औजी प्राचीन से अर्वाचीन काल तक की परम्पराओं को मौखिक रूप से संग्रहित एवं सुरक्षित किए हए हैं। खंड के तीसरे लेख मौखिक लोक परम्पराओं के संवाहक दास शिल्पकार में डॉ. विजय बहुगुणा और चन्द्र मोहन रावत ने इतिहासकार मैसेंजर के संदर्भ से लिखा है कि लिखने का कार्य भारत के भीतर बहुत पहले से ही हो चुका था फिर भी धर्म तथा संस्कृति से सम्बद्ध उच्च परम्पराएं आज भी ज्यादातर मौखिक रूप से संरक्षित हैं। खंड के अगले लेख परम्परागत प्रौद्योगिकी के संवाहक कुमांऊ के शिल्पकार में सुरेश चन्द्र टम्टा लिखते हैं कि उत्तराखंड में अधिकांश तकनीकी कार्य शिल्पकार वर्ग द्वारा ही किए गए हैंशिल्पकारों द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिर, नौले, किले, मूर्तियां व आवासीय भवनों का निर्माण यहां के पत्थर शिल्पी कर्मियों द्वारा किया गया।


कार्य के आधार पर कुमाऊं में शिल्पकारों की अनेक उपजातियां विद्यमान हैं। इन्हें अपनी-अपनी तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर जाना जाता हैताम्र कर्म करने वाले टम्टा, लौह कर्म के लिए लोहार, पाषाण कर्म के लिए ओढ़ तथा बांस, रिंगाल से विभिन्न उपकरण बनाने वाले शिल्पकारों की उपजाति बाड़ी कहलाई। वर्तमान में भी कुमाऊं के बढ़ई या काष्ठकर्मी अपनी उपजाति मिस्त्री लिखते हैं। अगले लेख काष्ठशिल्पीः अतीत से आज तक में डॉ. यशोधर मठपाल उत्तराखण्ड के काष्ठशिल्प के इतिहास से वर्तमान तक की स्थितियों पर विस्तार से प्रकाश डालते हैं। मठपाल यह भी बताते हुए चलते हैं कि सवा सौ वर्ष पूर्व अठकिंसन ने उत्तराखण्ड में शिल्पकारों की 25 उपजातियां अभिलिखित की हैं। डॉ. मठपाल लिखते हैं कि उत्तराखण्ड में काष्ठशिल्प का कार्य देंवालयों, आवासग्रहों तथा चल सामग्री के रूप में तीन प्रकार का होता रहा है। उत्तराखण्ड में काष्ठशिल्प के 300-600 साल पुराने अवशेष आज भी मौजूद है। मठपाल ने अपने लेख में तत्कालीन प्राचीन समाज और समाज में काष्ठशिल्पियों की भूमिका का खूबसूरत रेखांकन किया है।


मठपाल ने बताया है कि किस प्रकार काष्ठशिल्पियों को उनके श्रम के बदले मासिक या दैनिक वेतन और वस्त्र, बर्तन आदि देकर प्रसन्न किया जाता था। स्व0 बलदेव सिंह आर्य जी ने दलितों के स्वतन्त्रता से पहले के सबसे बड़े आन्दोलन डोला पालकी की मूल पृष्ठभूमि पर तथ्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। स्व0 बलदेव सिंह आर्य जी द्वारा 1942 में तैयार की गई रिपोर्ट के प्रमुख अंशो को इसमें शामिल किया गया हैखण्ड के अगले लेख में प्रो. शेखर पाठक उत्तराखण्ड में सामाजिक आंदोलनों की रूपरेखा शीर्षक से बता रहे हैं कि किस प्रकार आजादी के आंदोलन से पूर्व ही शिल्पकार समाज में सामाजिक जागरण का आंदोलन जोर पकड़ने लगा था।


जसपाल सिंह खत्री एवं शन्तन सिंह नेगी अपने लेख उत्तराखण्ड के शिल्पकारों का ऐतिहासिक संघर्षः डोला पालकी आंदोलन में लिखते हैं कि डोला पालकी आंदोलन उत्तराखण्ड के शिल्पकारों के संघर्ष का इतिहास है। डोला पालकी का प्रयोग प्राचीन समय में राज परिवार के सदस्यों द्वारा शानो-शौकत के साथ आवागमन में होता था। कालांतर मे विवाह के मौकों पर वर-वधू के लिए डोला पालकी का प्रयोग किया जाने लगा लेकिन सभी लोग इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे। सवर्ण समाज ने डोला पालकी का अपना विशेषाधिकार मानते हुए शिल्पकारों के लिए डोला पालकी पर प्रतिबंध लगा दियाइस प्रतिबंध के खिलाफ उठ खडे हुए शिल्पकारों का संघर्ष ही डोला पालकी आंदोलन के रूप में सामने आया। हालांकि दशकों तक चले इस आंदोलन के बाद ही शिल्पकारों को डोला पालकी में बैठने का हक हासिल हो पायाअपने लेख में चंद्र शेखर तिवारी ने शिल्पकारों के प्रमुख व्यक्तित्वों पर प्रकाश डाला हैं।


पुस्तक का तीसरा खण्ड 'समसामयिक सन्दर्भ है। जिसमें दस लेख शामिल किए गए हैं। शिल्पकार और पृथक राज्य आंदोलन शीर्षक से लिखे अपने लेख में डा. प्रभात उप्रेती ने उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई और अनेक समसामयिक आंदोलनों में शिल्पकारों की भूमिका समझाते हुए लिखा है कि शिल्पकार भी राज्य आंदोलन सहित समय-समय पर हुए सभी आंदोलना म बराबर भागीदार रहे हैं। डॉ. उप्रेती का कहना है कि राज्य आंदोलन के दौरान जुलूस के साथ चलने वाले ढोलियों को आज कहीं भला दिया गया है। आबादी का एक बड़ा भाग आदोलना स अलग रह जाए यह कैसे मुमकिन है। वहीं राजीव लोचन शाह अपने लेख इन स्थितियों को बदलना ही होगा में अपने बालपन को याद करते हुए कहते है कि उनके घर में तब भी शिल्पकारों को लेकर कोई भेदभाव नहीं था। लेकिन दशकों बाद की सामाजिक स्थिति का आंकलन शाह इस प्रकार करते है कि भले ही नई पीढ़ियों में अस्पृश्यता का मर्ज खत्म हो गया है लेकिन अभी लोग भोजन माताओं के रूप में शिल्पकार स्त्रियों को बर्दाश्त करने को तैयार नही है। डॉ. मंजू चन्द्रा ने साहित्य में दलितों की भूमिका को बताते हुए नई सम्भावनाओं की और इंगित किया है। उनका कहना है कि नई पीढ़ी के साहित्यकार दलितों की मनोदशा एवं नई जीवनशैली में आने वाली चुनौतियों को सामने लाएगे, क्योंकि दलित साहित्यकारों ने एक वर्गीय चेतना को उभारने का बखूबी कार्य किया है।


महेश पाण्डे अल्मोड़ा के तान शिल्प की बदहाली के कारणों एवं उसके परिणामों को सार्वजनिक करते हुए दलितों के आर्थिक तन्त्र को मजबूती प्रदान करने की बात कही है। प्रेम पंचोली ने दलितों के आज के सामाजिक एवं राजनैतिक सवालों को उठाया है, विनोद कुमार ने दलितों के हुनर को गैर बराबरी के कारण होने वाली बरवादी को रेखांकित किया है। उन्होनें आज की पहाड़ी अस्मिता को बचाये रखने के लिए दलित वर्ग के उद्यमों को पहले बचाने की वकालत की है। डॉ. नीरज रूवाली ने अनुसूचित जाति से सम्बन्धित नये सरकारी प्राविधानों को अपने आलेख में उल्लिखित किया है। डा. अजय कुमार प्रद्योत ने उत्तराखण्ड अनुसूचित जाति के विकास एवं नियोजन पर नीति सम्मत विचार व्यक्त किये हैं। पुस्तक के अन्तिम आलेख में प्रवीण कुमार भट्ट वर्तमान राजनैतिक सन्दर्भो में दलितों की स्थिति एवं उनके कल्याणकारी योजनाओं के वास्तविक स्वरूप एवं कियान्वयन को सामने रखा है।


शिल्पकार आज भी समूची सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक चिन्तन की मुख्य धारा का विषय नही है, भले ही उसके कल्याण के लिए शोर-शराबा खूब होता है। इस विचार पर चिन्तन करते हुए बहुत से मित्र एवं विद्वान लेखकों के सामूहिक चिन्तन एवं श्रम का परिणाम है यह पुस्तकहम सबके लिए वो सब मित्र साधुवाद के पात्र है जिन्होने प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप में इस पुस्तक को तैयार होने में सहयोग प्रदान किया है।


हम इस पुस्तक की परिकल्पना के केन्द्र बिन्दु डा. अजय कुमार प्रद्योत का हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं, जिनके सुविचारों एवं सुप्रयासों ने इस कार्य को मूर्तरूप प्रदान किया है।


हम विशेष रूप में प्रो. एम.पी. जोशी, प्रो. शेखर पाठक एवं डॉ0 नागेन्द्र ध्यानी के हृदय से आभारी है जिन्होनें पुस्तक सम्पादन में अपना मार्गदर्शन हर स्तर पर प्रदान कियाडॉ0 नन्द किशोर हटवाल, चन्द्रशेखर तिवारी, दिवान बोरा एवं चन्द्रबीर सिंह तड़ियाल ने इस पुस्तक तैयार करने में अपने-अपने स्तर से जो सहयोग दिया है वह काबिले तारीफ हैइस पुस्तक के प्रकाशक कीर्ति नवानी, विनसर प्रकाशन जो कि उत्तराखण्ड की सृजनशीलता को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हें हमारी बहुत सी शुभकामनाओं के साथ आभार -


By - चमनलाल प्रद्योत, प्रवीण कुमार भट्ट, अरुण कुकसाल,