वाहनों और फक्ट्रीयों के कैमिकल्स ने घुला वातावरण में जहर

||वाहनों और फक्ट्रीयों के कैमिकल्स ने घुला वातावरण में जहर||




पिछले एक वर्ष से उतराखण्ड के शहरी क्षेत्र में लोग त्वचा रोग के शिकार हो रहे है। इसका कारण चिकित्सक वायु प्रदूषण को बता रहे हैं। राज्य के देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार, काशीपुर, हल्द्वानी आदि शहरों के चिकित्सालयों में इन दिनों त्वचा रोगीयों की संख्या में काफी इजाफा हो रहा है। यहां सवाल माथे चढकर बोल रहा है कि जिस जगह को लोग सुकून और स्वच्छ वातावरण के लिए मानते थे वहां अब खड़ा रहना भी खतरे से बाहर नहीं है। वायु प्रदूषण के कई कारण हो सकते है। फिलवक्त इन शहरों में बढते वाहन और फैक्ट्रीयों के कैमिकल्स इत्यादि के कारण यहां की आबोहव्वा में जहर घुल गया है।


एसपीएस राजकीय चिकित्सालय ऋषिकेश की ओपीडी में रोजाना हर तिसरा रोगी त्वचा से संबधित पीड़ित मिलता है। यहां आपीडी में तैनात सीनियर फिजिशियन श्री असवाल के अनुसार नगर सहित आसपास क्षेत्रों में बढ़ते प्रदूषण की वजह से त्वचा रोगियों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। इसी का नतीजा है कि नगर के एसपीएस राजकीय चिकित्सालय में इन दिनों प्रतिदिन 40 से 50 मरीज त्वचा सबंधित पहुंच रहे हैं। राजकीय चिकित्सालय में त्वचा रोग विभाग के डॉ. संतोष कुमार पंत ने बताया कि त्वचा रोगियों की आमद अचानक बढ़ने का कारण जलवायु परिवर्तन और वातावरण में प्रदूषण की मात्रा बढ़ना है। उन्होंने बताया कि शरीर में जगह-जगह खुजली होना, लाल रंग के दाने होना, दाद होना इसके लक्षण है। वे लोगो को इसके निवारण के तौर तरीके भी बता रहे हैं कि हमेशा अपने आसपास साफ सफाई बनाये रखें और कपड़ों को धूप अवश्य दें। वे त्वचा से संबधित रोगियों को अगाह कर रहे हैं कि ऐसे कोई भी लक्षण अगर किसी को भी हां, तो वह इसे नजरअंदाज न करें। अपने नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र में जाकर चिकित्सक से परामर्श लें। उन्होंने सलाह दी कि इस राज्य में वाहनों और फैक्ट्रीयों के मलवा, सीवर और खुलेआम उड़ेले जा रहे कार्बनिक धुऐं के लिए सरकार को विशेष पाॅलिसी बनानी चाहिए। इसी तरह खटारा व अवधी पार कर चुके वाहनो को भी शहर से बाहर करना चाहिए। इसके साथ-साथ पेड़-पौधो की मात्रा भी हर निर्माण कार्य के साथ आवश्यक कर देनी चाहिए।


वायु प्रदूषण में वाहन भी पीछे नहीं


राज्य के देहरादून, हल्द्वानी, काशीपुर, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे शहरो में डीजल और पेट्रोल से चलने वाले सैकड़ों बूढ़े वाहन अब भी सड़कों पर दौड़ते हुए देखे जा सकते हैं। ऐसे वाहन नगर में प्रदूषण का बड़ा कारण बने हुए हैं। दिलचस्प यह है कि ऐसे वाहनों को नियंत्रित करने के लिए परिवहन विभाग के पास कोई कारगर पॉलिसी नहीं है। जबकि हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य सरकार को इस समस्या पर रिपोर्ट जारी करके फटकार भी लगाई। ऋषिकेश स्थित सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी डॉ. अनीता चमोला का कहना है कि अभी उतराखण्ड में अन्य राज्यों की तरह पुराने वाहनों को रिटायर करने की कोई पॉलिसी नहीं है। जैसे केंद्र सरकार से कोई दिशा निर्देश जारी होते हैं तो भविष्य में इस बावत अमल की कोशिश की जाएगी।


नगर के बीचोंबीच कूड़े के पहाड़


राज्य के इन महत्वपूर्ण नगरों देहरादून, हल्द्वानी, काशीपुर, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि के बीचोंबीच कूड़े के ढेर दिखाई देते है। कूड़ा निस्तारण पर म्युनिशपल्टी के पास साधन तो हैं पर उसके निस्तारण के लिए आवश्यक कार्ययोजना का अभाव बना हुआ है। खाली पड़े भूखंड पर कूड़ा डंप होना भी प्रदूषण का बड़ा कारण है। यहां कूड़े में अक्सर लोग खुले में आग लगा देते हैं। इससे पर्यावरण को बहुत नुकसान तो होता ही है, साथ ही सांस संबंधी बीमारियां भी जन्म लेती है। फिलहाल इस मामले में कई बार चहलकदमी हुई मगर, यह मामला राजनीति की भेंट चढ़ गया। इधर ऋषिकेश के आसपास ऑलवेदर रोड की खुदाई भी वायु प्रदूषण को बढावा दे रहा है। नरेंद्रनगर बाईपास मार्ग पर उत्तराखंड के चारों धामों को जोड़ने के लिए ऑल वेदर रोड का निर्माण हो रहा है। इसकी खुदाई से धूल के कण स्वास्थ्य में बुरा असर डाल रहे हैं। चिकित्सक इस प्रदूषण को अस्थमा, आंखों के रोग, त्वचा आदि की समस्याओं का कारण मान रहे हैं।


बता दें कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने देश के 102 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों की सूची जारी की है। इनमें उत्तराखंड के दो नगर ऋषिकेश और काशीपुर भी शामिल हैं। मंत्रालय ने यहां की हवा को अगले पांच सालों के भीतर स्वच्छ बनाने के लिए राष्ट्रीय स्वच्छ हवा कार्यक्रम (एनसीएपी) में शामिल करने को मंजूरी दी है। मंत्रालय ने डब्ल्यूएचओ और अन्य एजेंसियों की 2011 से 2018 के बीच में आई कई रिपोर्ट को आधार बनाकर इन शहरों का चयन किया है। मंत्रालय ने आगाह किया है कि प्रदूषण के यही हालात रहे तो ऋषिकेश और काशीपुर में भी दिल्ली जैसी व्यवस्था लागू करनी पड़ेगी। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भवन निर्माण ढक कर हों, खुले में आग जलाने पर लगे रोक, पानी का छिड़काव, प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों की जांच और उन पर रोक, मशीनों से सड़कों की सफाई आदि उपायों पर अमल हो तो पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जा सकता है।


अस्थाई राजधानी देहरादून का बुरा हाल


वायु प्रदूषण को लेकर देहरादून के कई स्थानों पर मानक से ज्यादा प्रदूषण है। गति फाउंडेशन ने राजधानी दून में बढ़ते वायु प्रदूषण के स्तर को मापकर बताया कि यहां रहना किसी खतरे से खाली नहीं है। उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पीएम (पार्टिकुलेट मैटर)-10 का स्तर ही मापता है, जबकि गति फाउंडेशन प्रदूषण के अधिक छोटे कण पीएम-2.5 को भी माप रहा है। कुछ समय पहले संसद में रखी गई केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट में बताया गया था कि वायु प्रदूषण में देहरादून देश के 273 शहरों में से टॉप छह में शामिल हो चुका है। गति फाउंडेशन की टीम ने बल्लीवाला चैक, सहारनपुर चैक और दून चिकित्सालय क्षेत्र में वायु प्रदूषण का स्तर मापा। उन्होंने पाया कि वायु प्रदूषण (पीएम-2.5) की दर सहारनपुर चैक पर सबसे अधिक है जो मानक से चार गुना अधिक पाई गई। अन्य स्थानों पर भी प्रदूषण की दर दोगुनी या इससे अधिक पाई गई है।


रिकॉर्ड की गई प्रदूषण की दर


स्थल---------------पीएम-2.5-------पीएम-10


दून चिकित्सालय---------240------------330


सहारनपुर चैक-----------256------------244


बल्लीवाला चैक----------115------------190


(नोट- पीएम-10 की मानक सीमा 100 और पीएम-2.5 का मानक 60 माइक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है।)


वायु प्रदूषण के घटक


विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की गाइडलाइन के अनुसार पीएम-10 के लिए वार्षिक औसत स्तर 20 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर होना चाहिए, जबकि 24 घंटे के लिए इसका स्तर 50 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए। वहीं, पीसीबी के मानकों के हिसाब से देखें तो पीएम-10 का वार्षिक औसत 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर और 24 घंटे के लिए 100 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर होना चाहिए। अगर, डब्ल्यूएचओ के मानकों की बात करें तो उत्तराखंड में औसत ही नहीं बल्कि प्रतिदिन वायु प्रदूषण का स्तर बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच चुका है।


वायु प्रदूषण की मुख्य वजह


विशेषज्ञों के अनुसार पीएम-10 बढ़ने का मुख्य कारण कारखानों से निकलने वाला धुंआ और गंदगी, सड़कों की धूल, परिवहन का अकुशल मोड, घरेलू ईंधन व अपशिष्ट जल, कोयला आधारित बिजली संयंत्र, जंगलों में लगने वाली आग, फसल कटने के बाद खेतों में लगाई जाने वाली आग आदि हैं। वे बताते हैं कि हवा में घुलने वाले प्रदूषण के ये कण मनुष्य के बाल से 30 गुना अधिक महीन होते हैं। गहरी सांस लेने पर प्रदूषण के लिए जिम्मेदार ये तत्व फेफड़ों तक पहुंचते हैं तो इससे दिल का दौरा, स्ट्रोक, फेफड़ों के कैंसर व सांस संबंधी रोगों का सबब बन सकते हैं।


तेज हारन और कानफोड़ू शोर


यहां की आबोहवा ही जहरीली नहीं बल्कि भीड़ व वाहनों का दबाव बढ़ने से कानफोड़ू शोर भी प्रदूषण की समस्याऐं खड़ी कर रही है। वह चाहे व्यावसायिक क्षेत्रों की हो या साइलेंस जोन की, सभी जगह ध्वनि प्रदूषण मानक से अधिक है। पीसीबी के मुताबिक औद्योगिक क्षेत्र में दिन में ध्वनि की लिमिट 75 डेसिबल, व्यावसायिक क्षेत्र में 65, आवासीय क्षेत्र में 55 और साइलेंस जोन में 50 डेसिबल से अधिक नहीं होनी चाहिए। राज्य में देहरादून और अन्य आवासीय क्षेत्रों को छोड़कर सभी क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण मानकों से कहीं अधिक बढा है।


देहरादून में ध्वनि प्रदूषण (आंकड़े डेसिबल में)


क्षेत्र--------------2015-----2016-----मानक


सर्वे चैक------------71.0-----74.2-------65


गांधी पार्क-----------52.8-----54.1-------50


घंटाघर------------74-------74.1-------65


दून अस्पताल--------52-------53.2------50


सीएमआइ----------70.10----74.0-------65


रेसकोर्स-----------54.2------55.0-------55


नेहरू कॉलोनी--------53-------55-------55


स्वच्छता के मामले में पिछड़ता देहरादून


सूबे की अस्थाई राजधानी होने के बाद भी देहरादून के हालात स्वच्छता को लेकर और बिगड़े हैं। स्वच्छ भारत मिशन के तीसरे स्वच्छता सर्वेक्षण में भी देहरादून पिछड़े शहरों की कतार में खड़ा है। सर्वेक्षण में देहरादून को 1900 में से महज 752 यानी 39.57 फीसद अंक ही मिले हैं। ज्ञात हो कि इस शहर से रोजाना 350 मीट्रिक टन कूड़ा-कचरा निकलता है, मगर उठाया जाता है 200 से 250 मीट्रिक टन। इस समस्या के निदान के लिए सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट भी लग चुका है पर प्रदूषण की मात्रा कम नहीं हो रही है।