विलुप्त होती परंपरा


विलुप्त होती परंपरा



गांव की थाती का पंचप्रधान, राणी-बौराणी, लाडा- लठ्याळा, दाना-दिवना, वृत्ति का बृत्वानों की 'खण्ड बाजे'! 



लोक संस्कृति के मूल को बिसराता जनमानस शायद 'खण्ड बाजे' की अवधारणा तक से विज्ञ नहीं नतीजतन लोककी पूजा की जाती है। उसके बाद जो कलाकार लांग खेलता है उसकी पूजा होती है। पुरोहित द्वारा मंत्रोचार के बीच ग्रामीण उसे बाने देते हैं। नहला-धुलाकर गांव के मुखिया द्वारा लाये गये कपड़े उसे पहनाये जाते हैं और उसके बाद वह लांग पर चढ़ता है। लांग पर चढ़ने के बाद वह ग्रामीणों की अशल-कुशल व संस्कृति के संवाहक लोक कलाकार बादियों का आज पंच सितारा संस्कृति में कहीं लोप सा हो गया।


सृष्टि के पुजारी के रूप में महादेवपार्वती की कृपा दृष्टि से सृजित बादी जाति आज अपनी पहचान तक कायम रख पाने में असमर्थ हो चली है। लोक से जुड़ी इस जाति के लोग सुख-समृद्धि के लिये लांग के ऊपर नुकीली चोटी पर पेट के बल लेटकर चक्कर काटता है। बारी-बारी : से नाम लेकर अनिष्ट काटने के लिये खण्ड खेलता है।


'गांव के प्रधान की खण्ड बाजे', 'लाडा-लठ्याळों की खण्ड बाजे', 'वृत्ति 'लाडा-लठ्याळों का बुत्वानों की खण्ड बाजे' आदि जितने भी प्रमुख लोग होते ।


उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के आधार स्तम्भ हैं। सृष्टि रचना के दौरान हुये बंटवारे में जब एक आलसी गण समय पर नहीं पहुंच पाया तो सब कुछ बंट चुकने के बाद पार्वती के अनुरोध पर भोले शंकर द्वारा उस आलसी गण को सृष्टि के पुजारी का कार्य दायित्व दिया जाता है। उसमें उसे अपने ठाकुरों की रिद्धि- सिद्ध के लिये भूमि पूजन की जिम्मेदारी दी गयी बादी जाति के लोगों को वरदान है कि उनके द्वारा बोया गया बीज अंकुरित नहीं हो सकता। इसलिये आज भी बादी जाति के लोग हल नहीं चलाते। खेतों में बीज नहीं बोते। उनके भरण पोषण का साधन है खेतिहरों द्वारा चढ़ाई गयी अग्याळ। लोक परम्परा है कि लोक कलाकार बादी द्वारा पूजित माटी में फसलों को नष्ट करने वाले चूहे, बंदर, सूअर आदि का प्रकोप नहीं होता। अपने बृत्वानों की खेती के फलने-फूलने के लिये बादियों द्वारा लांग का आयोजन किया जाता है। बादियों द्वारा गांव में लांग गाढ़ दिये जाने के बाद सारे गांववासी परम्परागत ढोल-दमाऊं के साथ उस स्थल पर पहंचते हैं वहां लांग पर अग्याळ चढ़ाते हैं। लांग की पूजा करते हैं।


लोक कलाकार बादियों के स्वांग होते हैं। महादेव-पार्वती हैं उनके हैं उनके नाम पर खण्ड खेले जाते हैं। इसमें परम्परा थी कि खण्ड खेलते समय अगर बादी लांग से नीचे गिर गया तो उसे वहीं पर काट देते थे। हालांकि अब यह प्रचलन समाप्त हो गया है। लांग के कौथीग में गांव में विभिन्न प्रकार के पकवान बनाय जाते हैं। बड़े हर्षोल्लास के साथ यह सम्पन्न होता है। बादी के सकशल खण्ड खेलने के बाद हवन किया जाता है। उसके उपरांत ग्रामीण पूजी गयी माटी लेकर चले जाते हैं। एक खास बात यह कि हिन्दू संस्कृति में बांस व बबूल अशुभ कार्यों में प्रयोग किये जाने की परम्परा है, लेकिन लांग खेलने में बांस व बबूल का ही प्रयोग किया जाता है। लोक कलाकार बादी उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के उद्धार की बात तो रही दूर अपने अस्तित्व तक के लिये छटपटा रहे हैं। लोक कला पर ही जीवनयापन करने वाले इन कलाकारों को संस्कृति के पोषक भी आगे नहीं ला पाये। संस्कृति की समृद्धि के लिये किया जा रहा विकास भी इन तक नहीं पहुंचा। संस्कृति के नाम पर शहरों में बैठकर तैयार की जा रही खयाली परम्पराएं आज उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के लिये खतरा बनती जा रही हैं।


आरती उतारते हैं सवर्ण!


लोक कलाकार बादियों से जुड़ी एक लोक परम्परा यह भी है कि अनुसूचित जाति वर्ग के लोक कलाकार बादी के प्रति अस्पृश्यता का भाव न रखते हुये सवर्ण जाति के लोग उसे बाने देते हैं। मिलजुल कर उसे स्नान कराते हैं और उसके बाद बादी की आरती उतारते हैं।


भूमि पूजन के लिये आयोजित लांग कौथिग में लोक कलाकार बादी को हिन्दू रश्मो-रिवाज के अनुरूप सवर्ण जाति के ग्रामीण तांबे के भगोने (तौला) में लाये गये पानी से नहलाते हैं। इससे पूर्व दूल्हे की भांति ग्रामीण बारी-बारी से बादी को मंत्रोचार के साथ बाने देते हैंतब गांव के मुखिया सहित ग्रामीण बादी को बड़े स्नेह से स्नान कराने के बाद उसकी पूजा करते हैं। इस तरह उत्तरांचल की लोक संस्कृति में अछूत माने जाने वाले लोक कलाकार बादी के प्रति छुआ-छूत की भावना से इतर उसे पूजने की परम्परा है जो कि शायद किसी अन्य संस्कृति में देखने को न मिले। यही नहीं गांव का मुखिया नए कपड़े कलाकार को पहनाता है और उसके बाद बड़ी श्रद्धा के साथ उसे लांग पर चढ़ाया जाता है। गांव की महिलाएं इस शुभ अवसर पर मांगल गीत गाती हैं और बादी की कुशलता के लिये ग्रामीण जनमानस कामना करता है।


लोक संस्कृति के संवाहक थे बादी


जमाने ने करवट ली, और संस्कृति ने भी अपना रूप बदला, गढ़वाल के किसी भी शुभ कार्य में मनोरंजन का एकमात्र साधन : थे लोक कलाकार बादी । लोक कलाकार बादी शादी-ब्याह से लेकर विभिन्न अवसरों पर ग्रामीण समाज का अपने हास-परिहास व आकर्षक नृत्यों के माध्यम से मनोरंजन करते थे। लोक माटी से जुड़ी उनकी कला मनोरंजन के साथ-साथ संचार की भूमिका भी निभाती थी। विभिन्न घटनाक्रमों को गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करने की नायाब कला आज भी उनके खून में बसी है। सांस्कृतिक मूल्यों का अनमोल खजाना इन लोक कलाकारों के पास संचित है, लेकिन उस कला को परखने के लिये पारखी नहींये लोक कलाकार संचार सुविधाओं के अभाव में एक दूसरे क्षेत्र के ग्रामीणों व दीशा-ध्याणियों की असल-कुशल पहुंचाने का भी काम करते थेआज ये लोग भी रोजी-रोटी के जुगाड़ में अपनी मूल कला से विरत होने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त कलाकारी के नायाब गुणों के धनी ये कलाकार आज भी किसी बारात अथवा कार्यक्रम में शिरकत कर दें तो समा बंध जाती है। लोक कलाकार रामभक्ति लाल व उनकी पत्नी कौशल्या देवी उम्र के सातवें दशक में भी अपनी लोक संस्कृति का नायाब नमूना प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। उत्तरांचल की सांस्कृतिक विरासत के इन अगुवा कलाकारों की अब न तो कला ही बची है और न ही कलाकार।