यह ‘रैबार’ नहीं, यह ‘इवेंट’ है

||यह कोई 'रैबार' नहीं यह तो 'इवेंट' है||



लो फिर आ गया रैबार 'आवा अपणु घौर' यानि अपने घर आओ । दो साल पहले मुख्यमंत्री आवास की चाहरदिवारी के अंदर से निकला 'रैबार' अब टिहरी झील पहुंच गया है । कितना बड़ा मजाक है उत्तराखंड के साथ यह रैबार ! और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार खुद इसकी जिम्मेदार और भागीदार है । यह सब कहना लिखना तो नहीं चाहता था, मगर इस राज्य निर्माण के महायज्ञ से हमने भी आहुतियां डाली हैं । दु:ख होता है अपनी नजरों के सामने उत्तराखंड को छला जाता देखते हुए, दर्द होता है इसे लुटता हुआ देखते हुए ।


बीस साल होने जा रहे हैं उत्तराखंड को बने हुए, और बीस साल बाद अगर सरकार रैबार देती है कि 'अपणु घौर आवा' तो यह बहुत खुशी की नहीं बल्कि आश्चर्य और दु:ख की बात है । पहले रैबार और अब रैबार-2, कई सवाल खड़े होते हैं इस रैबार पर । सिर्फ रैबार पर ही नहीं रैबार देने वालों की मंशा पर भी । आखिर किसे रैबार दे रही है सरकार ? क्या उन्हें जो कि उत्तराखंड से बाहर कामयाबी भरा जीवन जी रहे हैं और किसी न किसी क्षेत्र में मुकाम पर हैं और बेहद सक्षम हैं ? या फिर उन्हें जो आजीविका, रोजगार, बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में उत्तराखंड छोड़ चुके हैं ? आखिर किसे वापस बुलाना चाहती है सरकार ? सरकारों ने बीते सालों में ऐसा क्या किया है कि कोई सरकार के एक बुलावे पर भरोसा करते हुए दौड़ा चला आए ?


हकीकत बेहद कड़वी है । सरकार तो शायद ही उसे पचा पाए । हकीकत यह है, राज्य में पलायन का रोना रो रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि राज्य बनने के बाद बड़ी संख्या में अन्य प्रांतों से लोग आकर यहां बस चुके हैं । संख्या सैकड़ों या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में है, सरकार के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं है । ऋषिकेश से लेकर जोशीमठ और उत्तरकाशी तक और हल्द्वानी से पिथौरागढ़ तक हजारों हेक्टेअर जमीनों की खरीद-फरोख्त राज्य बनने के बाद हुई है । पहाड़ के पहाड़ बिके चुके हैं, उत्तराखंड में आज जो भी पहाड़ अच्छा दिखाई देता है वह दिल्ली या मुंबई वालों का है । आज सरकार कह तो जरूर दे रही है कि आवा अपण घौर , मगर क्यों ? किस लिए ? इलाज के अभाव में तड़प-तड़प कर मरने के लिए या फिर किसी आपदा का शिकार होने के लिए? या फिर देहरादून में बैठे बड़े बाबुओं के हाथों लुटने के लिए ?


दिल्ली और देहरादून में बैठकर बातें बनाना प्लानिंग करना बहुत आसान है, लेकिन व्यवहारिक धरातल पर हकीकत तो कुछ और ही है । सच्चाई यह है कि दो दशक में अरबों रुपया खर्च करने के बावजूद हम अपना बदरी-केदार यात्रा मार्ग ठीक नहीं कर पाए । जो लगातार मार्ग पर यात्रा करते हैं वे जानते हैं कि यह राष्ट्रीय राजमार्ग मार्ग सालों से सिर्फ बजट खपाने का जरिया बना हुआ है, इस मार्ग पर एक योजना पूरी होती नहीं कि दूसरी योजना पहाड़ और सड़क दोनों को खोद डालती है । राज्य के दो हिस्सों को जोड़ने वाली कंडी रोड़ तक तैयार नहीं करा पायी है सरकार । जिस राज्य में बीस सालों में सड़कों का नेटवर्क तक सही न बना हो उस राज्य के विकास की कल्पना आसानी से की जा सकती है ।


अब बात उद्यमों की, उद्योंगों के नाम पर राज्य की हजरों हेक्टेअर कृषि भूमि लुट चुकी है । जमीनों के इस खेल में करोड़ों के वारे-न्यारे हुए और राज्य और उसकी पीढ़ियों को हासिल हुआ सिफर । शायद ही कोई उद्यमी ऐसा हो, जिसका उत्तराखंड के सरकारी सिस्टम को लेकर अच्छा अनुभव रहा हो । इसके बाद भी सरकार रैबार दे रही है तो सवाल उठता है कि बीते तीन साल में आखिर ऐसा क्या चमत्कार हुआ है ?


एक बात बहुत साफ है कि किसी भी संदेश या रैबार के पीछे मंशा और नीयत का साफ होना बहुत जरूरी है । विडंबना देखिए कि सरकार राज्य में भूमि खरीद फरोख्त की तमाम सीमायें हटा देती है और दूसरी ओर 'रैबार' देती है कि आवा अपणा घौर ।


राज्य के मुख्यमंत्री और नौकरशाह देहरादून के साथ-साथ दिल्ली में भी सरकारी आवास कब्जे में रखने की जुगत लगाए रहते हैं और सरकार कहती है 'आवा अपणा घौर'... राज्य के बड़े नेता अपना घर गांव छोड़कर मैदानी इलाकों में सियासी जमीन तलाशते हैं और सरकार कहती है 'आवा अपणा घौर'... राज्य के सरकारी पालिटेक्निक और स्कूलों पर ताले लटका दिये जाते हैं, चलते हुए सरकारी अस्पतालों से सरकारी डाक्टर हटाकर उन्हें निजी हाथों में सौंप दिया जाता है और सरकार कहती है कि 'आवा अपणा घौर'... सरकारी विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और संस्थान दम तोड़ रहे हैं, निजी विश्वविद्यालयों व संस्थानों का जाल बिछ रहा है और सरकार कहती है 'आवा अपणा घौर'...राज्य के पहाड़ी इलाकों में डेढ़-डेढ़ सौ किलोमीटर तक स्वास्थ्य सुविधाओं का नामो निशान नहीं है और सरकार कहती है 'आवा अपणा घौर'...सिस्टम पर इंस्पेक्टर राज हावी है और सरकार कहती है 'आवा अपणा घौर'...


कौन समझाए कि 'रैबार' वो नहीं होता जो उत्तराखंड सरकार दे रही है । रैबार वो होता है जो हिमाचल के अलग राज्य बनने पर वहां के मुख्यमंत्री डाक्टर यशवंत परमार ने दिया था । उन्होंने कोई इवेंट नहीं किया, उन्होंने अपील की देश के अलग-अलग प्रांतों में रह रहे हिमाचलवासियों से कि वह अपने राज्य में आएं और उसकी तरक्की के लिए काम करें । इसके लिए उन्होंने इस तरह की बुनियादी नीतियां तैयार कीं ।


डा. परमार पर हिमाचलवासियों को भरोसा था । उनकी अपील पर देश के कोने-कोने से लोग वापस हिमाचल लौटे, किसी ने व्यवसाय शुरू किया तो किसी ने नौकरी । वहां औद्योगीकरण व विकास के नाम पर जमीनें नहीं लुटायी गयी, वहां पहला काम जमीनों को बचाने का ही किया गया । हिमाचल में आज परमार नहीं हैं, सरकारें वहां भी आती जाती हैं मगर हिमाचल में बुनियादी नीतियां वही हैं जो डा. परमार स्थापित कर गए ।


रैबार वो होता है जो जम्मू कश्मीर में दिया जा रहा है । जम्मू कश्मीर में एक 'बैक टू विलेज' नाम का कार्यक्रम चलाया जा रहा है । जरा गौर कीजिए कि इस कार्यक्रम के तहत वहां तकरीबन 4500 ग्राम पंचायतों में सरकारी बड़े अफसरों ने दस्तक दी । गांवों की समस्याओं से रुबरू होने के लिए प्रमुख सचिव स्तर तक के अफसरों ने गांवों में डेरा डाला । अफसर सीमा पर बसे दुर्गम गांवों में भी गए तो आतंकवाद पीड़ित गावों में पहुंचकर उन परिवारों का हाल भी जाना, जिनके बच्चे किसी न किसी कारण मारे जा चुके थे । इस दौरान अफसरों ने गांव की तकलीफों का सर्वे किया और तात्कालिक व स्थायी जरूरतों का पता लगाया । जाहिर है जब आला अफसर दो रात और तीन दिन गांवों में गुजारकर लौटे तो गांव की समस्याओं से जुड़े तमाम अनुभव उनके साथ रहे होंगे । ग्राउंड जीरो से लौटे अफसरों की रिपोर्ट के बाद वहां राज्यपाल ने सभी जिलों के लिए एक धनराशि जारी की । यह भी तय किया कि एक बार फिर से अफसरों को गांवों में ही एक विकास योजना तैयार करने के लिए भेजा जाएगा । इस कार्यक्रम के नतीजे आने शेष हैं , मगर इस कार्यक्रम से सरकार के पीछे सरकार की सीधे जनता से जुड़ने और उन पर भरोसा जमाने की मंशा जरूर साफ होती है । वहां सरकार के इस कार्यक्रम की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चर्चित 'मन की बात' कार्यक्रम में इसकी तारीफ करते हुए इसे सुशासन की मिशाल बता चुके हैं ।


उत्तराखंड का यह तो दुर्भाग्य रहा ही कि यहां डा परमार जैसा नेतृत्व नहीं रहा, उसे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि उत्तराखंड पहले दिन से ही 'सियासत' और 'लूट' का शिकार रहा । नवंबर 2000 से शुरू हुआ यह सिलसिला आज भी जारी है । दु:खद यह है कि आज 'हिटो पहाड़' , 'चलो गांव की ओर' और 'रैबार' जैसे आयोजन भी इसी का जरिया बने हुए हैं । उत्तराखंड में चलाए गए इन तमाम कार्यक्रमों का जो मकसद बताया गया वह एक ही था, लेकिन कोई भी अपना मकसद पूरा नहीं कर पाया । पूरा होता भी कैसे, सवाल इसके पीछे की 'मंशा' का जो है । दरअसल किसी भी कार्यक्रम के पीछे की मंशा कभी स्पष्ट ही नहीं रही । अब 'रैबार' को ही लें, दो साल पहले हुए इस आयोजन पर उस वक्त सवाल उठे कि मुख्यमंत्री आवास में चंद लोगों के बीच होने वाले कार्यक्रम से कैसे कोई संदेश दिया जा सकता है । गांव और अपनी जड़ों से जोड़ने की अपील करने वाले इस कार्यक्रम को हाई प्रोफाइल बनाकर रखा गया । देश के बड़े पदों पर बैठे उत्तराखंड मूल के अफसरों का समागम हुआ, व्याख्यान हुए लेकिन नतीजा क्या रहा, मालूम नहीं ।


इस 'रैबार-2' में फिर से उत्तराखंड की हाई प्रोफाइल शख्सियतों का जमावड़ा होगा, सब संदेश देंगे 'आवा अपणा घौर' । इनमें कई ऐसी शख्सियतें भी होंगी जिनके नाम की स्पेलिंग तक बदल चुकी है, जिनकी नयी पीढ़ियां देश-विदेश में अलग-अलग जगहों पर बस चुकी हैं । रैबार की कामयाबी तो तब मानी जाती जब ये शख्सियतें उत्तराखंड के अपने घरों को अपना 'फर्स्ट होम' बनाते, अपनी आने वाली पीढ़ियों को उत्तराखंड की धरती पर लाते । नहीं, ऐसा कोई ख्वाब मत पालिये क्योंकि यह रैबार तो एक 'इवेंट' भर है, यह एक 'पावर शो' है । जी हां, जनता की गाढ़ी कमाई पर होने वाला एक 'इवेंट' और 'पावर शो' । इसके पीछे मंशा वो नहीं जो प्रचारित की जा रही है, इवेंट के निमंत्रण पत्र पर गौर करिये, आवा अपण घौर संदेश वाले इस कार्यक्रम में बिना निमंत्रण के एंट्री नहीं है । सुरक्षा कारणों के चलते कार्यक्रम को सीमित रखा गया है। यह संदेश देने वाले उत्तराखंड की धरती के लाल हैं और उन्हें अपनी ही धरती पर खतरा है । जिन शख्सियतों को अपनी ही धरती पर अपने समाज और लोगों के बीच खतरा हो वो किसी और को क्या 'रैबार' देंगे ?


अच्छा होता, सरकार ऐसे वीवीआई पी लोगों का जमावड़ा करने की बजाय उन अफसरों को बुलाती जो प्रदेश में, खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में रहते हुए सराहनीय काम कर रहे हैं । जो अपनी कार्यशैली से वास्तव में 'रैबार' दे रहे हैं । उत्तराखंड को चारागाह समझने वाली कर अफसरलाबी से इतर प्रदेश में ऐसे बहुत से अफसर, कर्मचारी भी हैं जो वास्तव में राज्यहित में काम करने में लगे हैं । प्रदेश हित ने नित नई पहल कर रहे हैं जिनके सुखद परिणाम भी दिख रहे हैं । मसलन पौड़ी के युवा जिलाधिकारी धिराज गार्बियाल की ही बात करें तो वे पहाड़ हित में लगातार पहल कर रहे हैं । पहाड़ के दूरस्थ गांवों को होम-स्टे योजना के जरिए रोजगार से जोड़ने की बात हो या गढ़वाली बोली को विद्यालयी पाठ्यक्रम में शामिल करने की पहल, उनके प्रयास इस प्रदेश के लिए सुखद संकेत हैं । और भी अधिकारी हैं जो राज्यहित में पूरी निष्ठा के साथ लगे हुए हैं, मगर दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे अधिकारियों को बुलाने के बजाय सरकार उन बड़े लोगों के स्वागत में लगी है जिनकी जड़ें न जाने कहां-कहां तक फैली हैं । जिनको उत्तराखंड के सरोकारों से कोई वास्ता नहीं है ।


अगर वास्ता होता तो, जिन प्रभावशाली पदों पर रहते हुए ये बड़े लोग दुनिया भर के लिए नीतियां बना रहे हैं, उसी प्रभाव के दम पर उत्तराखंड के लिए भी बहुत कुछ कर सकते हैं । दरअसल पूरा मसला 'मंशा' और 'निष्ठा' का है । जिनकी मंशा इस प्रदेश की दुःख-तकलीफों को 'इवेंट' में बदलने की हो , जिनकी निष्ठा राज्य को तबाह करने वालों के पक्ष में हो, उनसे कैसे 'रैबार' की उम्मीद की जा सकती है ।अभी एक दिन पहले सरकार ने छट पर्व पर छुट्टी की घोषणा करके भी एक 'रैबार' दिया है जिसके निहितार्थ सीधे तौर पर वोट और तुष्टीकरण से जुड़े हैं । सामाजिक सद्भावना और देश की बहुरंगी संस्कृति का दिल से सम्मान करने वाले उत्तराखंड के लोक पर्वों और सांस्कृतिक आयोजनों पर सरकार ऐसी 'मेहरबानी' कभी नहीं दिखाएगी । प्रदेश की रीति-नीति और संस्कृति को दरकिनार करने वाले इस 'रैबार' के पीछे कोई है जो उत्तराखंड से खेल रहा है ।