|| यमुना की गाथा||
सम्पूर्ण ब्रहमांड में अभी तक ज्ञात गृहों में केवल पथ्वी पर ही वायु जल और वनस्पति पायी गयी है। इसी कारण पथ्वी पर ही जीवन की उत्पत्ति हुई थी। प्राचीन काल से मानव ने वायु, जल, वनस्पति में ईश्वर का रूप देखा और उन्हें पूजा वैज्ञानिकों का भी मत है, कि जीवन की उत्पत्ति सर्व प्रथम जल के निकट हुई थी। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं और संस्कृति भी नदियों के तट पर विकसित हुई, परवान चढ़ीपृथ्वी पर उपस्थित सारे शिखरों, का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि लगभग सभी जलधाराएं इन हिमशिखरों से उद्गमित हुई हैं।
हिमालयी श्रृंखलाओं से निकली जलधाराओं ने, इस देश की संस्कृति, सभ्यता को जो गौरव प्रदान किया व इस धरती को शस्यश्यामला बनाने में जो योगदान दिया वह शायद अन्य कोई नहीं दे पाया। इन्हीं हिमालयी पर्वत श्रृंखलाओं की गोद में स्थित है, प्राकृतिक सौन्दर्य, हिम शिखरों और देवी स्वरूप जल धाराओं से भरपूर उत्तराखण्ड। प्राचीन काल से पुराणों, ग्रन्थों में इसे कहीं सप्त सरिताओं, कही दस धाराओं का देश पुकारा गया है। यहीं पर है नन्दा देवी, भगीरथ शिखर, नीलकंठ, कंचनजंघा, चौखम्बा, बंदरपुंछ, कालिंदी जैसी प्रसिद्ध अनेक पर्वत श्रृंखलाएंमैं सूर्य पुत्री यमुना, कालिंदी, यहीं कालिंदी पर्वत से उद्गमित होती हूँपुराणों में कहा गया है कि जब ब्रहमा जी ने गंगा को " अपने कमण्डल से मुक्त किया और शिव ने उसके प्रचण्ड वेग को अपनी जटाओं में उलझाया, पर वे भी उसके प्रचण्ड वेग को पूरी तरह नही रोक सके और वह दस धाराओं में बह निकली। उन सब धाराओं सरस्वती, अलकनन्दा, मन्दाकिनी, भागीरथी, नन्दाकिनी, पिन्डर, नयार, धौली गंगा, केदार गंगा और मुझ यमुना को देवी का रूप मानकर पूजा गया। ग्रन्थों में उत्तराखण्ड को देवभूमि अर्थात देव लोक कहा गया जबकि शेष भूमि को पृथ्वीलोक।
मैं सूर्यपुत्री, यमुना आज आपको अपनी व अपने पुरखों की कहानी सुनाती हूँ :- कहते हैं कि देवासुर संग्राम - समाप्त होने के बाद भगवान विष्णु जब आराम करने के बाद आँख मलते हुए उठे तो उनकी आँखों से तीन अश्रु बूंदे गिर कर संज्ञा अर्थात मेरी माँ के आँचल में गिर पड़ीं जो उस समय पूजा में लीन थी। मेरी माँ ने इसे भगवान का वरदान मानकर आँचल में समेटा ही था कि अचानक उन्हें देववाणी सुनाई पड़ी कि- हे संज्ञा, तुम तीन संतानों को जन्म दोगी। जिनमें से पहला बड़ा भाई मनु, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ, दूसरी मै एवं तीसरा मेरा जुड़वा भाई यम उत्पन्न हुये। मेरे पिता सूर्यदेव ने मुझे वरदान दिया कि हे पुत्री यमुना तुम पूरे देवलोक में, पृथ्वी लोक में सर्वगुण सम्पन्न पाप विनाशकारिणी होने के कारण सभी की पूजनीय होगी तथा द्वापर युग में भगवान कृष्ण की पत्नी बनोगी.
पत्नी बनोगीसृष्टि के निर्माण हेतु सर्वप्रथम ब्रहमा की उत्पत्ति हुई। ब्रहमा के पुत्र कश्यप और उनकी पत्नी अदिति से ही देवताओं और असुरों की उत्पत्ति हुई थी। कश्यप और अदिति से बेहद विकृत आकृति और आग से अधिक ताप रखने वाला पुत्र सूर्य उत्पन्न हुआ। सूर्य का ताप जितना प्रचंड था उनका विवाह उतनी ही रूपवती विश्वकर्मा जी की पुत्री संज्ञा मेरी माँ से हुआ। लेकिन सूर्य का ताप जब मेरी माँ संज्ञा के लिए असहनीय हो उठा और वह उनके ताप से झुलसने लगी, तब इससे बचने के लिए संज्ञा ने अपने योग से अपनी प्रति "छाया' उत्पन्न की, और उस पर तीनों सन्तानों का भार छोडकर, सूर्य को न बताने का वचन लेकर अपने पिता के पर चली गयी, लेकिन पिता द्वारा धिक्कारने के बाद वह घोड़ी का रूप धर कर पर्वतों में विचरण करने लगी।
मेरे पिता सूर्य ने छाया को संज्ञा समझकर उससे दो पुत्र उत्पन्न किये। एक पूर्व मन की तरह विख्यात हये और १, मिराज के नाम से श्रवण मन बने, समेरू पर्वत को उन्होंने अपना निवास स्थान बनायाजबकि छाया के दूसरे पत्र ज्ञानेश्वर को ब्रहमाण्ड के सारे ग्रहो में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ, और वे शनि ग्रह के नाम से प्रसिद्ध हये। धीरे-धीरे छाया क मन म हमारे ( संज्ञा की सन्तानों के) प्रति मोह कम होता गया तथा अपने पत्रों के प्रति मोह बढ़ता गयासंज्ञा के माता छाया की इस उपेक्षा को सहन कर लिया परन्तु याम न ता क्रोधित होकर छाया को मारने के लिए पांव उठा लिया थाजिससे रूा ठ होकर छाया ने यम को शाप दिया कि जा पाव तुमने मुझे मारने के लिए उठाया था वह कीड़े लगने के कारण गलकर पृथ्वी पर गिर पड़ेगाइस शाप से दुखी होकर मेरा भाई यम पिता सूर्य के पास गया और उनको समस्त घटना बतायी कि क्रोधवश मैंने सिर्फ पैर उठाया था मारने का प्रयास नहीं किया था, इसलिए मुझे इस शाप से मुक्त कर दिया जाना चाहिये। सूर्य ने यम से कहा, कि मै तुम्हें तुम्हारी माता के शाप से मुक्त तो नहीं कर सकता, लेकिन उसका प्रभाव कम कर सकता हूँ, अब तुम्हारे पैर में लगे कीड़े, धीरे-2 पृथ्वी पर अपने आप गिर पड़ेंगे, तथा जब सारे कीड़े गिर जायेंगे तब तुम अपने आप शाप से मुक्त हो जाओगेतदुपरान्त सूर्य ने अपनी पत्नी संज्ञा रूपी छाया से जानना चाहा कि तुम अपनी सन्तानों के प्रति पक्षपात-भेदभाव क्यों रखती हो, छाया के न बताने पर सूर्य ने क्रोधित होकर छाया के केश पकडकर उसे घसीटा तब उसने सच-सच बता दिया कि वह संज्ञा नही, उसकी प्रति छाया है.
सूर्य मेरी माँ संज्ञा के उस आचरण से कुपित होकर विश्वकर्मा के आश्रम में पहुँचे। विश्वकर्मा ने सूर्य का आदर, सत्कार, सम्मान और पूजा कर उन्हें शांत किया और कहा कि हे भगवन आपका रूप और आपके ताप को मेरी पुत्री संज्ञा सहन नही कर पा रही थीजब वह झुलसने लगी तब विवश होकर घोडी का रूप लेकर वन में विचरण करने लगी है। यदि आपकी आज्ञा हो तो मै आपके रूप रग को संवार दै। सूर्य के अनुमति देने पर विश्वकर्मा ने सूर्य को घिस-घिस पप्प, अलंकार, मुकुट टियामर्य अपना नया रूप व का रूप धर कर घोडी ने एक दूसरे के वास्तविक जब अपना सुंदरतम नया रूप में कीडे पड़ पर अत्यन्त सुंदर, लालिमा युक्त गंध, पप्प और आदि से सुस्सजित, कंचनीय रूप दिया। सर्य, देखकर प्रसन्न हुयेफिर सूर्य अश्व का रूप के पास पहुँचे, अपने तपोबल से दोनों ने एक दसोरूप को पहचान लिया। सूर्य ने जब अपना संदरता संज्ञा को दिखाया तो वह पुलकित हो उठी।
कीडे पड़ रहे थे और उसका पैर जब यम के पाँव में कीड़े पड़ रहे थे और भी गल रहा था। उस संकट के समय मैने ( यमना) ने आ की बहुत सेवा को और उसके पैर को अपने जो कीड़ों से मुक्त कर, गल कर गिरने से रोकातदपरान्त र पिता ने जब हम तीनों (मन, यम व मनसे या चलने का आग्रह किया तो मेरे भाई यम और मैंने पाली पर ही रहना चाहा। तब पिता सूर्य ने मुझे (यमुना) को पवित्र यमुना के रूप में पृथ्वी पर बहने, प्रसिद्ध होने तथा पृथ्वी लोक के वासियों द्वारा पूजे जाने का वरदान दिया, और कहा हे, यमुना जिस बंदरपुंछ के हिमाच्छादित कालिन्दी पर्वत पर जैमिनी तपस्या कर रहे है, उस पर्वत से पवित्र धाराओं के रूप में तुम प्रवाहित होगी (इसी कारण यमुना को कालिंदी भी कहा जाता है) तथा जिस स्थान पर मुनि तपस्यारत बैठे होंगे जहाँ पर तुम्हारी सारी धाराएं एकत्रित होंगी वहाँ मेरे ताप से एक तप्त कुण्ड अर्थात सूर्य कुण्ड की उत्पत्ति होगी। उस तप्त कुण्ड में श्रद्धालु चावल पका कर प्रसाद के रूप में वितरित करेंगेउस कुण्ड से तुम यमुना के रूप में प्रवाहित होओगी। वहाँ पर तुम्हारा मंदिर होगा एवं वह स्थान पवित्र तीर्थ यमनोत्री कहलायेगापृथ्वी लोक के निवासी तुम्हारी यात्रा कर वंदना पूजा कर पुण्य प्राप्त करेंगे और द्वापर युग में जब भगवान कृष्ण अवतार लेंगे तब तुम उनकी पत्नी के नाम से जानी जाओगीमंदिर में मेरी स्वर्ण रजत युक्त आभूषणा से जड़ित मूर्ति है.
जब मेरे पिता सूर्य ने माता संज्ञा की प्रति छाया केश पकड़कर खींचा था तो छाया का पुत्र शनि अपनी माता का यह अपमान सहन नहीं कर सकातब से लेकर आज तक सूर्य और शनि में शत्रुता चली आ रही है भाई यम मुझ से अथाह प्रेम था, वह मेरी सेवा को भूला नहीं था, उसने अपना राज्य सम्भाला तो मझे वरदान दिया कि पृ लोक में जो कोई, पवित्र मन से तुम्हारी यात्रा करेगा, तुम्हारी पूजा अर्चना, वंदना करेगा. तुम्हारे पवित्र जल में स्नान करेगा, तब उसे समस्त रोगों-पापों से मुक्ति मिल जायेगी और उसे में कभी दण्डित नहीं करूंगा। प्राचीन ग्रन्थों में यमुना को, कालिन्दी के अलावा एक हजार नामों से पुकारा गया है। ये विभिन्न नाम कीर्ती, कामना देने वाले, महापाप हरने वाले, रोगों को दूर करने वाले, आयु बढ़ाने वाले जैसे सैकड़ों वरदानों से युक्त हैं। मेरे सूर्य कुण्ड अर्थात तप्त कुण्ड में पके चावलों को श्रद्धाल प्रसाद के रूप में वितरित करते हैं। हिमपात के मौसम में शीत काल में मेरे मंदिर के कपाट बंद हो जाते है, एवं यमनोत्री के पास खरशाली गांव में मेरी पूजा अर्चना होती है। प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया को जब मेरे यमनोत्री धाम के कपाट खुल जाते हैं तब मेरी प्रतिमा (डोली) झांकी रूप में लाकर यमनोत्री मंदिर में स्थापित की जाती है।
मैं यमुना नदी के रूप में धीरे-धीरे कालिंदी पर्वत से उतर कर राड़ी का डांडा के पास गंगा के पवित्र मंदिर गंगनानी के समीप से बड़कोट, नवां गांव, डामटा, नैनबाग,हो कर लखवाड़ गांव के समीप पहुंचती हूं जहां बांध बनाकर मेरी जलराशि से लखवाड़ विद्युत गृह से 300 मेगावाट,व्यासी विद्युत गृह से 120 मेगावाट तथा हत्यारी विद्युत गृह से 19 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होगा। ये परियोजनाएं वर्तमान में निर्माणाधीन हैं।
यमुना घाटी को विद्युत दीपों से जगमगाने तथा वहाँ के निवासियों के जीवन में सुख समृद्वि लाने के लिए मै डाकपत्थर पहुँचती हूँ । जहाँ तमसा नदी मुझसे आकर मिलती हैइसके उपरांत डाकपत्थर में मेरी तथा तमसा की जलराशि पर बाँध बनाया गया है, शरद काल मे विदेशी पंछी मेरे तट पर लाखों की संख्या मे उत्सव मनाने आते है। यहाँ से शक्ति नहर निकाल कर ढकरानी ढालीपुर, कुल्हाल फिर बादशाही बाग नामक स्थान पर मेरी जलराशि से उत्पादित की जाती है कमश: 33.75, 51, 30 एवं 72 मेगावाट विद्युत। भारत की राजधानी दिल्ली पहुँच कर मैं दिल्ली की धड़कन बनती हूँ। फिर आगे अनेक शहरों को स्पर्श कर उन्हें तीर्थ स्थल में बदलते मै कष्ण की नगरी मथुरा पहुँचती हूँजहाँ कृष्ण गोपियों के साथ मेरे तट पर अटखेलिया करते थे.
समुद्र तल से 6387 मीटर की ऊंचाई पर कालिंदी पर्वत से उदगमित होते समय शतलता, पवित्रता, सुंदरता, कलकल-छलछल करती फेनिल जलधारा मेरी पहचान होता है। अपने इस 1376 किलोमीटर के सफर में मेरे अन्दर दिल्ली, हरियाणा, वजीराबाद, इटावा, नजफगढ़, फरादाबाद, आगरा, मथरा. जगाधरी, सोनीपत, करनाल, जैसे औद्यागिक महानगरों के सारे गंदे नाले और विषाक्त गंदगी मुझमें मिल जाती हैविश्व के कई देशों की सरकारों और वहा का जनता ने अपनी नदियों के प्रति धार्मिक आस्था न होते हुए भी उनकी सफाई अपना उत्तरदायित्व समझ कर अदभुत प्रयास किये। अमेरिका, यूरोप के देशों ने अपनी नदिया का प्रदूषण मुक्त रखने के प्रयास किये। उनके नतीजे सामने आये। लदन को दो भागों में विभक्त कर घनी आबादी के बीच से गुजरने वाली टेम्स नदी जो लगभग समाप्त हो चुकी थी, लेकिन सरकार तथा पर्यावरण प्रेमी जनता ने टेम्स के महत्व को समझा और कुछ ही वर्षों के प्रयास के बाद उसे स्वच्छ एवं निर्मल रूप में जीवित प्रवाहित कर दिया। उसके आस-पास बहने वाली गन्दगी को टेम्स में मिलाने पर रोक लगायी गयी । इस पर भी प्रतिवर्ष टेम्स की सफाई का कार्य कराया जाता हैआज टेम्स में मछलियों और पक्षियों का मेला नजर आता है। यह उस देश, उस देश की जनता के प्रयास हैं जिसकी हमारे यहाँ के लोग हर बात पर हर मिनट में आलोचना करते हैंसन 1992 में मेरी बहन गंगा के उदगम स्थल गोमुख यात्रा के दौरान उस घटना को कभी भूलाया नही सकता जब गोमुख के सामने एक भारतीय पर्यटक ने माचिस और सिगरेट की डिब्बी गंगा में फेंकी तो चटटान पर बैठा एक कैलीफोनिया का एक श्रद्धालु यात्री गंगा में कूद कर डिब्बी उठाकर लाते हुए बोला :- आप गंगा को इस तरह प्रदूषित कर रहें हैं.
मुझ,यमुना को स्वच्छ, रखने के लिए दिल्ली क्षेत्र में बारह सौ करोड़ रूपये की योजनाएं बनायी गयी, यह तो 1993 की बात थी पर 2006 में पुनः करोडों रूपये मेरे शुद्धिकरण के लिए स्वीकृत हुयेउ0प्र0, हरियाणा की सरकारो ने भी मेरे शुद्धिकरण के नाम पर खुब खर्च किया पर मै, यमुना आज भी उसी प्रदूषित रूप में प्रवाहित हो रही हूं। दिल्ली के अतिरिक्त उ0प्र0, हरियाणा के 20 शहरों की व्यापक गंदगी, कचरा, मुझमें बहने के लिए छोड़ दिया जाता है।
डाकपत्थर से लेकर इलाहाबाद तक की फैक्टिीयों का कचरा ही नहीं प्रतिवर्ष में हजारों लाशें, सड़े गलें जानवरों के शव, मझको जहरीला रूप देने में सहयोग दे रहे हैं। मुझे वह दिन दूर नहीं दिखाई पड़ रहा जब मेरा शुद्ध जल पूरी तरह "गा और में मारे शहरों के गंदे नाले के रूप में बहती नदी नजर आऊंगी यद्यपि मैं नहीं रहूंगी पर मेरे यात्रा पथ पर यह गंदा जल अवश्य बहता नजर आयेगा, मैं नहीं समझ पा रही मेरे देश के लोग कब समझ पायेंगे जल का मूल्य और नदियों का महत्त्व। कालिदी पर्वत से लेकर डाकपत्थर तक मुझमें गंगा, हनुमान गंगा, मीनस और गिरि मैदानी क्षेत्र में हिण्डन, काली, सिंध. में मिलती हैं। मेरा जल किलोमीटर तक फैला हैकर अपनी बहन गंगा एवं सरस्वती में जल धाराएं मिलती हैंमैदानी क्षेत्र बेतवा, केन और चम्बल नदी ग्रहण क्षेत्र लगभग 345848 l अंत में मैं प्रयाग पहँच कर अपने को समर्पित कर देती हूँ।