दावानल में देश, दिल दरियागंज में


||दावानल में देश, दिल दरियागंज में||
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एनडीए संसदीय दल का नेता चुना गया, तो वहां उन्होंने कहा, कि उन्हें प्रचंड जनादेश मिला है और इससे बहुत सी अपेक्षाएं हैं। जाहिर सी बात है अपेक्षाएं देश की ही हैं, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं, जो उनसे मतभेद रखते हैं। उस दिन मोदी ने एक शब्द का इस्तेमाल किया, जो बेहद चर्चा में रहा। उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यकों के साथ किए गए छल में भी छेद करना है, "हमें विश्वास को जीतना है", 'सबका साथ, सबका विकास' के साथ अब 'सबका विश्वास' हमारा नारा है।


मोदी ने कहा था, जिन्होंने आज हम पर विश्वास रखा है हम उनके लिए भी हैं और जिनका हमें विश्वास जीतना है हम उनके लिए भी है। जनप्रतिनिधि होने के नाते हमारा कोई पराया नहीं हो सकता है। लेकिन लेकिन देश के लिए पिछले सात माह में लिए गए फैसलों में यह शब्द अनुपयोगी साबित होता दिखा। तीन तलाक पर तो सरकार ने मुस्लिम समुदाय में प्रभावी लोगों को साधा और शांति की राह सुनिश्चित की लेकिन अचानक से संसद में लाए गए अनुच्छेद 370 और 35ए को निप्रभावी बनाने वाले विधेय के बाद बुलबुले जरूर उठे, भले ही वह सोशल मीडिया पर ही प्रभावी रहे। कश्मीर में सेना, पुलिस का उपयोग कर सरकार वहां उत्पन्न विक्षोभ को दबाने में कामयाब रही (मीडिया के मुताबिक)।


पिछले माह जब वर्षों से चले आ रहे राम मंदिर को लेकर देश की शीर्ष आदलत ने फैसला सुनाया, तो उससे पहले सरकार ने पहले और बाद में हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मों के गुरुओं से बात की, वे एक मंच पर आए और अदालत के फैसले का सम्मान किया। लेकिन नागरिकता संशोधन कानून के पारित होकर लागू होते ही मानो एक तूफान सा आ गया। थोड़ा सक्रिय होकर देखें, तो पता चलता है कि पहले असम, फिर बंगाल उसके दिल्ली और अब यूपी, बिहार, कर्नाटक, गुजरात सब जगह एक साथ न सिर्फ भ्रांतियां फैलाई गई हैं, बल्कि प्रदर्शन किया आड़ में दंगों की भूमिका बनाई गई है। और सरकारें तब जागी हैं, जब हजारों करोड़ की संपत्ति को दंगाई स्वाहा करके चले गए। और हम इस पूरे परिदृश्य को लेकर अपना मुंह इसलिए नहीं खोल रहे हैं, क्योंकि हमें, विचारधारा, पार्टी, तहजीब, दोस्ती, रिश्तों ने जकड़ रखा है।


संसद में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि देश के मुसलमानों पर नागरिकता कानून का असर नहीं पड़ेगा, पर ऐसी क्या खामी या गलतफहमी हो गई कि नागरिकता कानून के विरोध में होने वाला हर प्रदर्शन हिंसा में बदला गया है। असम, बंगाल हो या दिल्ली, पटना, लखनऊ हर जगह सरकारी संपत्ति को खुलेआम स्वाहा किया गया। एक बात इन कथित प्रदर्शनकारियों को (अब जो मुसलमानों के हक हकूक को लेकर सड़कों पर हैं, और गांधी, आंबेडकर की तस्वीर लेकर कथित शांति प्रदर्शन कर रहे हैं) समझना चाहिए कि उनका विरोध तभी निष्प्रभावी हो गया, जब उनके प्रदर्शन को हाईजैक किया गया और पहली मोटरसाइकिल या बस जलाई है, या पहला पत्थर उछाला गया। उन्हें यह याद रखना चाहिए कि असहयोग आंदोलन के दौरान 5 फरवरी, 1922 को जब चौरी-चौरा कांड हुआ, तो घटना के बाद गांधी जी ने उस आंदोलन को वापस ले लिया, क्योंकि विरोध की परिणति हिंसा नहीं हो सकती। कानून को लेकर मतभेद हैं समझ में आता है, लोकतंत्र में असहमति का अधिकार है, लेकिन हजारों करोड़ की सरकारी संपत्ति स्वाहा करना, पथराव, रेल लाइन उखाड़ना यह तो विशुद्ध रूप से दंगाइयों वाला काम है। सीलमपुर की वीडियो देखिए, बेहद कातर शब्दों में लोग कह रहे हैं, जो पत्थरबाज थे, मालदार हैं, दिक्कत तो हमें हुई कि हमें शाम की रोटी का इंतजाम करना है।


बहुत सारे बुद्धिजीवी कहते हैं कि मूल संविधान का अनुच्छेद 19 हमें स्वतंत्रता का अधिकार देता है जिसके तहत 19 (ए) बोलने की स्वतंत्रता और (बी) शांतिपूर्वक बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा करने की स्वतंत्रता देता है। बिना किसी सवाल के इस तर्क को स्वीकार करना हमारा सांविधानिक धर्म है, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह स्वास्थ्यवर्धक दवाई समान है। पर जिस संविधान ने हमें मौलिक अधिकार दिए, उसी संविधान में सरदार स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर 42वें संशोधन (1976) द्वारा मौलिक कर्तव्य को भी जोड़ा गया। इसमें कहा गया कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करें। साथ ही सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे। अब बीते दिनों हुए प्रदर्शनों पर नजर डालिए मीडिया, सोशल मीडिया और संसद में हर जगह अधिकारों की दुहाई देने वाले दिखे, उन्होंने बहुत सारा लिखा हमने दिल खोलकर पढ़ा-समझा और खुद को तसल्ली दी कि चलो सांविधानिक नियम और तहजीब के नाम पर इसे स्वीकार कर लें। पर उसी तहजीब वाले शहर लखनऊ में कल जो नंगा नाच हुआ उसका क्या। सारे बुद्धिजीवी गायब दिखे, जामिया के कथित प्रदर्शन में लड़कियों पर लाठी भांजती पुलिस की फोटो छापने वाले इंडियन एक्सप्रेस ने इस नंगे नाच को फ्रंट पेज पर दो कॉलम में समेट दिया, खबर के साथ ट्रीटमेंट ऐसा है मानो एक छोटी सी घटना घटित हो गई।



ऐसे मौके पर जबकि पूरे देश में आग लगी है, राजनीतिक पार्टियों के कर्ताधर्ता से उम्मीद की जाती है कि वे हिंसा को रोकने और लोगों में सही सूचना फैलाने का का काम करेंगे। इसके विपरीत उनकी पार्टियों के विधायक इस कानून पर गलतफहमियां पैदा कर रहे हैं, उनके ट्विटर हैंडल से फेक चीजें पोस्ट की जा रही हैं, कुछ इस कानून के लिए यूएन की निगरानी में जनमत संग्रह कराने की मांग कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कश्मीर उसी यूएन के चलते आज अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन गया है, इसमें सब शामिल हैं, बस कुछ राष्ट्रीय फ्रेम में दिख रहे हैं जबकि कुछ छिपे हुए हैं। ऐसा एहसास होने लगा है कि अपने आप को सबसे मजबूत लोकतंत्र साबित करने वाले इस देश में कुछ हजार लोगों को वर्चस्व हो गया है। इस दरिया में जिसे तहजीब, विरासत, मिल्कियत का नाम दिया गया है आप लंबी दूरी तय नहीं कर सकते। उससे पहले आपको किसी एक किनारे पर लगना ही होगा। कुछ सौ की संख्या में पूरे देश को आग लगाने वाले दंगाइयों ने जीना मुहाल कर दिया है। ये कौन लोग हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को खुलेआम चुनौती दे रहें हैं, इनकी पहचान हम सबको पता है। ये हमारे ही गली, मुहल्ले, शहर के लड़के हैं, जो आज आगजनी कर रहे हैं, वर्षों की मेहनत को स्वाहा कर रहे हैं। पर तथाकथित बुद्धिजीवियों की कलम यह देखने के बाद भी खामोश है कि गांधी के पोस्टर लेकर विरोध जताने वालों में गोडसे कैसे अंकुरित हो जाते हैं।