||ऐसे ही एक शाम चौकट की चौखट से||
इस बार शीतकालीन अवकाश में गाँव गया। गाँव में घुमते हुए देखता हूँ कि एक तरफ विशिष्ट कला युक्त कई चौकट तमाम विषमताओं को सहते हुए आज भी अपनी उपस्थिति बनाये हुए हैं तो दूसरी तरफ हमारे पुरखों द्वारा सिद्दत से बनयी गई तिबारियाँ भी वर्तमान के अनुरूप नव रंग-रोहन के साथ प्राचीन व नूतन की शानदार बानगी प्रस्तुत कर रही हैं।
उल्लेखनीय है कि राजशाही के दौर में रवाँई क्षेत्र के बनाल पट्टी अन्तर्गत अवस्थित कोटी ग्राम निवासी रावतों को थोकदारी के अधिकार प्राप्त थे। कोटी ने ही राजशाही को श्री रणजोर सिंह व श्री मोर सिंह जैसे थोकदार दिये, जिनकी गाथाएं लोक में आज भी जीवंत बनी हुई हैं यथा-
"कोखऽ गई तेरऽ सी पंद्रह सौ बनाली, कोखऽ गई संगटारू वीर।
तेरऽ पगड्या रणजोर सिंहंगा, डख्याट बांधों तीर।।"
गाँव को बसाने के लिए भूमि चयन भी लाजवाब! गाँव के चारों ओर जयेडी़, बस्टाडी़, गटेडी़ तथा पिऊनियाँ में स्वच्छ पेयजल के प्राकृतिक स्रोत, बादल बरसे या जमीन धंसे, किसी को भी कोई भी खतरा नहीं।
समाजिक सद्भावना ऐसी कि गाँव में रावतों के अतिरिक्त कुम्हार के "चाक" लोहार की "अनसाल" बढा़ई का निवास और गाँव से कुछ दूरी पर बसे गैर में पुरोहित पडि़तों का निवास जो आज भी प्रति माह संक्राति की भोर में ग्राम वासियों के घरों में धुपियाना लेकर पहुँच जाते हैं और अपने दायित्वों का सफलता पूर्वक निर्वाहन करते हुए "जजमानी प्रथा" को यथावत जी रहे हैं।
ग्रामवासी प्रति संक्राति को अपने कुल पुरोहितों को परम्परानुसार चावल व दक्षिणा भेंट करते हैं। ठीक ऐसा ही झुमराडा़ में निवास करने वाले बाजगी लोग भी, अपने लाद्य यंत्रों को उठाकर जिम्मेदारी के साथ प्रति त्यौहार बढा़ई बजाने पहुँच जाते हैं। इष्ट देव के पुजारी भी ससमय इष्ट की नियमित पूजा, अर्चना करते रहते हैं और वर्ष भर में फसलों के आने पर परम्परानुसार "खलतू" लेने पहुँच जाते हैं। पुजेली में रघुनाथ जी के पुजारियों के अतिरिक्त बेढा़ परिवार भी निवास करते हैं, जो वर्षों तक रघुनाथ जी के साथ देव यात्रा में शामिल होकर नृत्य- अभिनय कर लोगों का मनोरंजन करते थे। शादी-विवाह में भी इनकी उपस्थिति अलग ही रंग घोलती थी और चैत मास में कोटी में ये लोग भी फेरा देने पहुँच जाते थे। चैत के फेरे में चैती गाथा का अलग ही महत्व होता है।
एक ही गाँव में अलग- अलग व्यावसायिक लोगों की मौजूदगी और सुख-दुःख के हर मौके पर एक-दूसरे के पूरक बनकर किसी व्यक्ति या परिवार विशेष के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख बना लेना लोगों की विशिष्टता है। गाँव में कोई साधु, सन्यासी आये तो उन्हें भी रहने में किसी प्रकार की असुविधा या असहजता न हो इसके लिए गाँव के एक छोर पर बनी कुटिया ग्रामवासियों की दूरदर्शिता को उद्घाटित करती दिखती है......गाँव के ही पाँच मंजिल जमीं के ऊपर और एक जमीन के अंदर यानि छः मंजिलें चौकट की देहरी पर बैठ कर कुछ ऐसा ही सोच रहा था।